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कृषि – देश की तरक्की किसान के हाथ

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Aug 11, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 11 Aug 2014 12:13:21

भारत की खेती-किसानी को आजादी प्राप्त होने के साथ ही समस्याएं और चुनौतियां अकाल के रूप में विरासत में मिली थीं। भारत अनाज के एक-एक दाने के लिए अमरीका के आगे गिड़गिड़ाने ंके लिए मजबूर था लेकिन किसानों ने इस चुनौती का मुकाबला करते हुए देश को जिस प्रकार खाद्यान्न के मामले में न केवल आत्मनिर्भर बनाया बल्कि भारत को निर्यातक देशों की श्रेणी में ला खड़ा किया वह स्वयं में अद्वितीय उपलब्धि है। इसके बावजूद खेती-किसानी को आज भी अनेक तरह की घरेलू और अंतरराष्ट्रीय समस्याओं और चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। यदि हम अंतरराष्ट्रीय दबावों के सामने झुके बिना इनका सफलतापूर्वक समाधान कर पाए तो कृषि व ग्रामीण क्षेत्र में देश को एक बार फिर से सोने की चिडि़या बनाने की क्षमताएं मौजूद हैं।
कृषि क्षेत्र में छिपी सम्भावनाओं का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि उपेक्षित मानी जाने वाली खेती-किसानी ने खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता का जो करिश्मा कर दिखाया वह कार्य सर्व-सुविधा सम्पन्न उद्योग जगत आज तक नहीं कर सका। यही नहीं, इन्हीं सम्भावनाओं के कारण, यही उद्योग जगत कारपोरेट खेती और कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग के नाम पर खेतांे पर अपना एकाधिकार जमाना चाहता है। यदि एक बार ऐसा हो गया तो फिर कृषि क्षेत्र में भी वैसा ही होगा जैसा रिलायंस ने गैस-कुओं से गैस निकालने में मनमानी कर देश को गैस और बिजली के कृत्रिम संकट की ओर धकेल दिया।
आज भी कई प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद और बिना किसी सरकारी सहायता के भारत का मैंथा उद्योग चीन को कड़ी टक्कर दे रहा है। कॉफी, चाय, पटसन, मसालों और दूध आदि के मामले में भारत की विशिष्टता बरकरार है। यदि कृषि क्षेत्र को समुचित प्रोत्साहन मिले तो किसान बंजर खेतों से भी आयातित पेट्रोलियम का विकल्प उपलब्ध करा सकता है। जब ब्राजील में कारें एथेनॉल से चल सकती हैं तो भारत में क्यों नहीं?
उपेक्षा व भेदभाव
सब प्रकार के सरकारी वायदों और दावों के बावजूद कृषि क्ष्रेत्र किस प्रकार उपेक्षा और भेदभाव का शिकार है, यह बात कुछ उदाहरणों से समझी जा सकती है।
-जहां कृषि क्षेत्र की सफलता के चलते हम पर एशियाई मंदी और वैश्विक मंदी का कोई असर नहीं पड़ा वहीं एक मानसून के गड़बड़ाने की आशंका से हम घबरा जाते हैं। इसका मुख्य कारण है कि आज भी भारत में दो तिहाई खेती बादलों के भरोसे है। सिंचाई के प्रति उपेक्षा का भाव इसी तथ्य से पता चलता है कि दिल्ली महानगर की अनेक समस्याओं में से एक परिवहन समस्या के समाधान के लिए अब तक मेट्रो रेल पर लगभग एक लाख करोड़ रुपये खर्च किये जा चुके हैं जबकि पूरे देश के लिए महत्वपूर्ण सिंचाई व्यवस्था के लिए त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम के तहत 1996-97 से दिसम्बर 2013 तक केवल 64,228 करोड़ रुपये की राशि केन्द्र सरकार द्वारा प्रमुख/मध्यम/गौण सिंचाई परियोजनाओं के लिए ऋण/सहायता अनुदान के रूप में जारी की गई।
– गेहूं का जो समर्थन मूल्य 1982 में 180 रुपये था वह 2012-13 तक 1350 रुपये प्रति क्विंटल किया गया, अर्थात 7़5 गुना वृद्धि। इसके विपरीत सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों के कर्मचारियों की प्रति व्यक्ति औसत वार्षिक परिलब्धि 1981-82 में जहां 18029 रुपये थी वहीं 2012-13 तक ये बढ़ कर 8,28,612 रुपये हो गई थी, अर्थात वृद्धि लगभग 45 गुना। इस पर भी महंगाई-भत्ते की नियमित आश्वस्त भरपाई। क्या महंगाई की मार केवल सरकारी कर्मचारियों पर पड़ती है और किसान इससे अछूता रहता है? महंगाई तो दोनों के लिए बराबर होती है, तो फिर किसान से भेदभाव क्यों?
– किसान ने देश की जरूरत को समझते हुए खाद्यान्न उत्पादन में भारत को आत्मनिर्भर बना दिया परन्तु शासन और प्रशासन, नौकरशाही, इस अनाज के सुरक्षित भंडारण के लिए आज तक गोदामों की व्यवस्था नहीं कर पाई, जिसकी वजह से अनाज खुले में सड़ने के लिए मजबूर है। इस बर्बादी के लिए आज तक क्या किसी को जिम्मेदार ठहराया गया? नहीं, तो क्यों नहीं?
– जिस पंजाब के किसान ने पूरे देश का पेट भरा, उसी किसान का बेटा आज अपना पेट भरने के लिए, शर्मनाक व अपमानजनक परिस्थितियों में, खाड़ी के देशों में मजदूरी करने जाने को क्यों मजबूर है?
-पिछले कुछ वर्षों में किसान की सहायता के नाम पर उसे कर्ज के नीचे दबा दिया गया। आंध्र प्रदेश, हरियाणा और पंजाब जैसे राज्यों में किसान कार्डों की संख्या किसान परिवारों के 125 से 150 प्रतिशत तक हो गई, जबकि नियमानुसार एक परिवार के पास केवल एक ही कार्ड होना चाहिये।
किसान व खेती की समस्याएं
– एकाधिकारवादी बहुराष्ट्रीय बीज कम्पनियां भारत पर जीएम फसल तकनीक थोपना चाहती हैं जिससे वे भारतीय कृषि को अपना पिछलग्गू बना कर मनचाहा मुनाफा कमा सकें।

– अमरीका के नेतृत्व में पश्चिमी देश और विश्व व्यापार संगठन भारतीय किसान और खेती को पंगु बनाना चाहते हैं। पश्चिमी देश पहले जहां सेना के बल पर विभिन्न देशों को अपना गुलाम बनाते थे आज वे वही कार्य व्यापार के नाम पर करना चाहते हैं। इसीलिए वे ऐसी शर्तें निर्धारित करते हैं जो उनके अनुकूल हों। उनके लिए खेती एक व्यापार मात्र है परन्तु भारत के लिए यह जीवन शैली और पूरे देश की अर्थ व्यवस्था का केन्द्र है। यही नहीं देश की सीमा पर लड़ने वाला जवान भी गांव से ही आता है, किसी नौकरशाह, उद्योगपति या राजनेता के परिवार से नहीं। अमरीका उस किसान और गांव को तोड़ना चाहता है जिसने हरित क्रांतिं के माध्यम से देश को अमरीका के आगे घुटने टेकने को मजबूर होने से बचाया और वह जवान भी उसे आंखों नहीं सुहाता जिसने 1965 में अपनी जान पर खेल कर उसके विश्व प्रसिद्ध पेटन टैंक की कब्र खोद दी थी।
– दिन पर दिन बढ़ती महंगाई के कारण खेती की लागत भी बढ़ रही है परन्तु किसान को अपनी फसल का लाभकारी मूल्य नहीं मिलता, जिस कारण वह कर्ज के जाल में फंसा रहता है।
– कांटे्रक्ट फार्मिंग के खतरों पर ध्यान देने की जरूरत है। गन्ने की खेती कांट्रेक्ट फार्मिंग ही है परन्तु चीनी मिलें सवार्ेच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद गन्ना किसानों को समय पर भुगतान नहीं करतीं।
– विडम्बना है कि कृषि स्नातक आज खेती नहीं करना चाहता, क्यों?
– वैश्वीकरण के दौर में किसान और गांव की महत्वाकांक्षाएं और समस्याएं भी बढ़ी हैं, जिनका समाधान आवश्यक है।
– मनरेगा ने भ्रष्टाचार को पंचायत स्तर तक पहुंचा दिया। इस व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन की जरूरत है जिससे इससे स्थाई महत्व के काम कराए जा सकें।
समाधान
– खेती, किसान और गांव की समस्याओं का समन्वित रूप से समाधान करने की जरूरत। केवल पैदावार बढ़ाने की बात करने से किसान की हालत नहीं सुधरेगी, उसे अपनी उपज स्वतंत्रतापूर्वक बेचने की सुविधा हो। लाभकारी मूल्य मिले। कृषि उपज के भंडारण व प्रसंस्करण की सुविधा हो। किसान की विभिन्न समस्याओं का त्वरित समाधान हो। गांवों में शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवहन की पर्याप्त व्यवस्था हो। शहरों के लिए 200 करोड़ रुपये प्रति किलो मीटर खर्च कर मेट्रो रेल खड़ी करने और गांव में आवागमन की उपेक्षा न्यायोचित नहीं है।
– गांव को गांव वाला और वनवासी को सदा जंगली बनाये रखने और उन्हें दीन-हीन मानने की वर्गवादी मानसिकता को खत्म करने की आवश्यकता है।
– जीएम फसलों की नई तकनीक को बहुत ही ठोक-बजा कर उपयोग करने पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिये। हरित क्रांति के दौर में शुरू हुई रासायनिक खेती के खतरे आज सामने आ रहे हैं। इस रासायनिक खेती को तो रोका जा सकता है परन्तु दूसरी हरित क्रंाति के नाम पर जल्दबाजी में जीएम फसलों को अनुमति देना एक ऐसे खतरे को आमंत्रित करना है जिससे पीछे मुड़ना असम्भव है। कई देशों ने जीएम फसलों के खतरों को देखते हुए ही इन पर रोक लगाई है। इससे कृषि निर्यात प्रभावित हो सकता है।
– निर्यात योग्य फसलों को चिहिन्त कर उनको प्रोत्साहन दिया जाये। इस दृष्टि से औषधीय फसलों की खेती को प्रोत्साहित करने की जरूरत।
– खेती में होमियोपैथी के उपयोग पर सफलतापूर्वक काफी अधिक काम हो चुका है, परन्तु कुछ शक्तिशाली लॉबियों के कारण अब तक इसकी उपेक्षा हुई है। कृषि में होमियोपैथी के उपयोग की सम्भावनाओं पर सुनियोजित तरह से काम होना चाहिये।
– जब हॉलैंड फूलों की खेती से और इस्रायल रेगिस्तान में खेती से अपनी पहचान बना सकते हैं तो भारत क्यों नहीं ऐसा कर सकता?
– खेती, बागवानी, पशुपालन, कृषि वानिकी और कृषि आधारित ग्रामीण उद्योग एक-दूसरे के पूरक हैं अत: इन्हें एक संयुक्त इकाई के रूप में देखा जाये।
– खेती को लेकर मीडिया की भूमिका बहुत नकारात्मक है। इसमें सुधार की जरूरत है।
– खेती पर हो रहे अनुसंधान में अंग्रेजी हावी है जो स्थानीय जरूरत से कोसों दूर है। कृषि विश्वविद्यालयों में स्थानीय भाषा का प्रयोग होना चाहिये जिससे स्थानीय किसान उससे जुड़ सके।
– कृषि उपज मंडी समितियां भ्रष्टाचार के अड्डे बन गई हैं। इनमें किसान की भूमिका बढ़ाई जाये और किसान बाजार खोले जायें, जिससे किसान उपभोक्ता को सीधे अपनी उपज बेच सके।
– किसान और गांव की समस्याओं का समाधान स्थानीय जरूरतों के अनुसार ही किया जाए।
– उद्योग और शहर को खेती पर न थोपें बल्कि वे उसके सहायक बनें।
– खेती और गांव के प्रति नौकरशाही की जिम्मेदारी निर्धारित की जाये।
– किसान भारत की ताकत है। उसकी क्षमता में विश्वास करें। उसको भरोसे में लें और उसका भरोसा कदापि न तोड़ें, जिससे वह खुद को ठगा हुआ महसूस न करे। 

– लेखक वरिष्ठ कृषि विशेषज्ञ हैं)

इसे भी पढ़े : चुनौतियां व् समाधान

हरित क्रांति की शुरुआत
नॉरमन बोरलॉग हरित क्रांति के प्रवर्तक माने जाते हैं लेकिन भारत में हरित क्रांति लाने का श्रेय सी सुब्रमण्यम को जाता है। एम.एस. स्वामिनाथन एक जाने माने वनस्पति विज्ञानी थे और उन्होंने भारत में हरित क्रांति लाने में सी. सुब्रमण्यम के साथ अहम भूमिका निभाई थी।
– साठ के दशक में गूंजा था भारत में हरित क्रांति का नारा
– उससे पहले तक अमरीका से अनाज आयात करना पड़ता था भारत को
– 1967 से 1978 तक चले इस अभियान ने भारत को भुखमरी से निजात दिलाने के साथ खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाया।
– 1965 से 70 के बीच हरित क्रांति ने पंजाब में बड़े अच्छे परिणाम दिखाए। 1969 में गेहूं का उत्पादन 1965 की तुलना में करीब 50 प्रतिशत बढ़ा।
– 1965 में भारत के कृषि मंत्री सी. सुब्रमण्यम ने गेंहू की नई किस्म के 18 हजार टन बीज आयात करने के साथ कृषि क्षेत्र में जरूरी सुधार लागू किए और कृषि विज्ञान केद्रों के माध्यम से किसानों को जानकारी उपलब्ध करवाई। उन्होंने सिंचाई के लिए नहरें बनवाईं, किसानों को फसल के उचित दामों की गारंटी दी और अनाज को सुरक्षित रखने के लिए गोदाम बनवाए।    -डॉ़ रवीन्द्र अग्रवाल

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