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राजनीति में तुष्टीकरण के सेकुलर सौदागरों ने सिर्फ मुलमानों को ही नहीं, बल्कि पूरे देश को बार–बार ठगा है। महाराष्ट्र में मराठा–मुस्लिम आरक्षण का शिगूफा भी इसी कड़ी में नई पहल है। इसके पीछे की राजनीतिक मंशा का दोमंुहापन दो घटनाओं से सामने आ जाता है। पहली घटना है मुंबई की, जहां एक प्रेस कान्फ्रेंस में सरकार प्रस्तावित आरक्षण को त्वरित प्रभाव से लागू करने की मुद्रा में दिखती है। दूसरी घटना उक्त निर्णय को न्यायिक चुनौती देने के बाद की है जब उच्च न्यायालय को महाधिवक्ता द्वारा जानकारी दी जाती है कि कैबिनेट के निर्णय पर सरकार का कोई आदेश जारी नहीं हुआ है।
वैसे, उत्तर प्रदेश विधानसभा और फिर लोकसभा चुनाव में तुष्टीकरण की पिटी हुई गोटी खेलने वाली कांग्रेस यह जानती है कि उसका यह दांव इस बार भी पार्टी या मुसलमानों की स्थिति में परिवर्तन का कारक नहीं होने जा रहा। नारा उछालना और बात है, बात में दम होना और बात। दरअसल, मुस्लिम वोटों के सौदागर जानते हैं कि मजहबी कोटे का सिक्का उन्हें फौरी मुनाफा भले दे, संवैधानिक आधार पर, तार्किक आधार पर और तथ्यात्मक आधार पर खोटा ही साबित होगा।
संविधान के आधार और सवार्ेच्च न्यायालय के फैसलों के दर्पण में देखें तो यह व्यवस्था साफ–स्पष्ट तौर पर जातियों में बंटे समाज के वंचित वगार्ें को आगे लाने के लिए है। मुस्लिम हितों को पोसने के लिए नहीं। आंध्र प्रदेश का उच्च न्यायालय तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा मुस्लिमों को दिए गए 4.5 प्रतिशत आरक्षण को रद्द कर चुका है। वैसे भी इस बहस को आगे बढ़ाने का नैतिक अधिकार कांग्रेस नहीं रखती, क्योंकि ऐसा करते ही उसे पार्टी के पितृ–पुरुष, देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की उस सोच को झुठलाना होगा जिसके अनुसार मजहब के आधार पर आरक्षण देने की बजाय समाज के मेधावी और सक्षम लोगों को पुरस्कृत कर आगे लाया जाना चाहिए। नेहरू की सोच में सभी नागरिकों के लिए ऐसी समान न्यायपूर्ण व्यवस्था की गूंज है, जो मजहबी आरक्षण की बजाय आर्थिक आधार पर कोटा तय किए जाने के ज्यादा करीब बैठती है। सवाल यह है कि सत्ता के लिए छटपटाती कांग्रेस नेहरू को कितना सुनना चाहती है!
तार्किक आधार पर देखें तो आरक्षण की सुविधा उन 'कथित' अल्पसंख्यकों के लिए नहीं है जो आबादी के लिहाज से संभवत: अल्पसंख्यक हैं ही नहीं। अल्पसंख्यकों को आबादी के आधार पर परिभाषित करने वालों से एक सवाल प. बंगाल जैसे उन राज्यों में पूछना चाहिए जहां मुसलमान कुल आबादी का चौथाई हिस्सा होने पर भी पिछड़े दिखते हैं, तो दूसरा सवाल कश्मीर घाटी के उन हिन्दू अल्पसंख्यकों के बारे में पूछना चाहिए जिनका कुल और समृद्धि सेकुलर राजनीति के पैरोकार खा गए।
तथ्यों के आधार पर देखें तो मुसलमानों को पिछड़े तबके का तमगा पहनाना गलत ही नहीं, बल्कि उन वंचितों के साथ घोर अन्याय है, जिनकी स्थिति इस समुदाय के मुकाबले आज भी अत्यंत खराब है। कुपोषण और रक्ताल्पता से लेकर हुनरमंदी और खुद के व्यवसाय तक के पैमानों पर मुस्लिम समाज की स्थिति देश के उस बड़े वर्ग के मुकाबले बहुत मजबूत है जिसके हिस्से का पोषण छीनने की बात तुष्टीकरण की राजनीति करने वाले दल कर रहे हैं। आरक्षण की रेवड़ी बांटने से पहले होना यह चाहिए कि इसकी सिफारिश करने वाली जांच कमेटी की नीयत और प्रस्तुत तथ्यों की सत्यता को परख लिया जाए। सच्चर समिति की सिफारिशें मानने की दिशा में कोई भी कदम बढ़ाने से पहले इस बात की पुष्टि करना आवश्यक है कि कमेटी ने जांच क्या की और निष्कर्ष क्या निकाला? महाराष्ट्र में कांग्रेस के सियासीदांव को देखते हुए आज सच्चर कमेटी की
सिफारिशों का सच खंगालना जरूरी हो गया है।
वैसे, जाति–विहीन मजहब में शेख अगर आज भी जुलाहे को पास बैठाने के लिए तैयार नहीं हैं तो वास्तव में यह इस्लाम के ठेकेदारों की दिक्कत होनी चाहिए!! मगर पिटी हुई कांग्रेस वोट बैंक को रिझाने की खातिर वो पंसारी हो जाना चाहती है जिसके पास अंसारी के दर्द की भी दवा है और शेख को सियासत का मजा देते रहने का रास्ता भी। कांग्रेस की सियासत उसे मुबारक।
बहरहाल, तुष्टीकरण की राजनीति करने वाले वे लोग, जो समग्र समाज के पुष्टिकरण की बात कभी नहीं चाहते, उन्हें एक सलाह है : अपने लाडले बच्चे को दूसरे की लॉलीपॉप बहुत दिखा ली, अब उसेे गोद से नीचे उतारो, वरना वह लार टपकाना और झुंझलाना भले सीखे, चलना और बाकी बच्चों से घुलना–मिलना कभी नहीं सीख पाएगा।
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