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सीरिया और इराक के बीच चल रहा युद्ध आने वाले दिनों में और भी भीषण हो सकता है। इस संघर्ष को दुनिया का तीसरा महायुद्ध तो नहीं कहा जा सकता है, लेकिन इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि आने वाले दिनों में मुस्लिम जगत में आरपार की लड़ाई शुरू होने वाली है। दिलचस्प बात यह है कि यह युद्ध शिया और सुन्नी के बीच न होकर, सुन्नियों में ही खिलाफत की स्पर्धा के लिए लड़ा जा रहा है। एक ओर अल-कायदा का पुराना सरगना अल जवाहिरी है, तो दूसरी ओर आई.एस.आई.एस. का अबू बकर अल बगदादी है। यद्यपि ईरान के नेतृत्व में दुनियाभर के शिया भी संगठित हो रहे हैं। वे भी इमामत की बांग पुकार रहे हैं। लेकिन जब तक ईरान को नहीं छेड़ा जाएगा तब तक शिया-सुन्नी संघर्ष नहीं होगा। इसलिए सुन्नी जगत के दो पहलवानों के मैदान में आ जाने के बाद यह तय हो गया है कि अब सुन्नियों के बीच ही संघर्ष होगा। जो गुट जीत जाएगा वह ईरान की ओर बढ़ेगा। इस समय तो सुन्नियों के ही दो दिग्गज मैदान में हैं। वे खिलाफत की स्थापना करके समस्त सुन्नी देशों के सर्वेसर्वा यानी खलीफा बन जाना चाहते हैं। सुन्नियों के एकमेव नेता बनने की लालसा किसी समय अल-कायदा के संस्थापक ओसामा बिन लादेन की थी। लेकिन अमरीका के हाथों उसका कत्ल हो जाने के बाद उसका उत्तराधिकारी अल जवाहिरी अब सक्रिय हो गया है। जवाहिरी नहीं चाहेगा कि उसका बनाया हुआ स्थान कोई और हड़प ले। उसके सामने प्रतिद्वंदी के रूप में अबू बकर अल बगदादी है। पिछले दिनों बगदादी ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि ईरान और सीरिया में सुन्नियों पर शिया आतंकवादी जिस प्रकार हमला कर रहे हैं उसका उत्तर हम फिलहाल नहीं देने वाले हैं। इस समय तो हमारा लक्ष्य केवल छुटभैयों से निपटना है। उसका इशारा अल-कायदा के नेता की ओर था। उधर अल-कायदा के सूत्रों का कहना है कि जवाहिरी, बगदादी को मान्यता न देकर स्वयं खलीफा बनना चाहता है। इसलिए बगदादियों से निपटना अल-कायदा का पहला काम है।
बगदादी ने दुनिया के समस्त सुन्नियों से अपील की है कि वे मुझे अपना नेता स्वीकार कर खिलाफत का मार्ग प्रशस्त करें। इसलिए मुस्लिम जगत में सवाल पूछा जा रहा है कि मध्य-पूर्व में चल रही लड़ाई का अंतिम विजेता कौन बनेगा? दोनों ही खेमे अपने-अपने ढंग से तैयारियों में लगे हुए हैं।
द्वितीय महायुद्ध के बाद दो सवाल मुख्य रूप से पूछे जाते थे। उनमें एक था कि तीसरा महायुद्ध कब और किसके बीच होगा? दूसरा सवाल था दो महाशक्ति अमरीका और रूस में विजेता कौन बनेगा? लेकिन समय कुछ इस प्रकार से बदला कि ये दोनों सवाल अप्रासांगिक बन गए। दोनों बड़ी शक्तियों में रूस स्वयं ही पीछे हट गया। इसलिए अमरीका बिना लड़े ही बेताज बादशाह हो गया। लेकिन मुस्लिम राष्ट्रों में जब से आतंकवाद बड़ा हथियार बन गया है तब से इस प्रश्न के संदर्भ में फिर से लोग अपने-अपने ढंग से तर्क भी देते हैं और अटकलें भी लगाते हैं। अब न तो दो देशों के बीच और न ही दो मजहबों के बीच, बल्कि एक ही मजहब के दो पंथों के बीच महायुद्ध की ज्वाला भड़कती हुई दिखाई पड़ रही है। एक समय था कि बगदादी अल-कायदा के साथ था। लेकिन जब उसमें नेता बनने की महत्वाकांक्षा प्रबल हुई तो अपने पुराने संगठन को त्याग कर नया संगठन बना लिया। वह जिसकी प्रतीक्षा में था वह वातावरण और मुद्दा उसे सीरिया की लड़ाई में मिल गया। इसलिए आनन-फानन में उसने अपने को खलीफा घोषित कर दिया। उसका कहना है कि दुनिया के अनेक सुन्नी देश और वे शिया देश, जहां सुन्नी बड़ी संख्या में हैं, उन्होंने मेरे हाथ पर बेअत यानी खलीफा स्वीकार करने की घोषणा कर दी है।
अल-कायदा के सामने अब दो बड़े सवाल हैं। या तो दुनिया में 11/9 जैसी कोई घटना घटे या फिर सीरिया में आई.एस.आई.एस. के साथ टकराव मोल ले। अल जवाहिरी को विश्वास है कि जीत उसकी ही होगी। बगदादी के लिए सुविधा की बात यह है कि उसने सीरिया में अपना कद मजबूत करके अपनी ताकत का लोहा मनवा लिया है। दूसरी बात यह है कि अल-कायदा पर जवाहिरी की पकड़ कितनी मजबूत है यह सवाल खड़ा कर दिया? यदि वह सही नेता होता तो बगदादी बगावत ही क्यों करता? आज तक अल-कायदा कहीं भी अपनी हुकूमत कायम नहीं कर सका है, जबकि बगदादी ने सीरिया में अपना झंडा बुलंद कर दिया है। इतना ही नहीं बगदादी ने सीरिया के सबसे बड़े तेल कुंए अल उमर पर कब्जा कर लिया है। इससे पहले इस कुंए पर अन्सार नामक आतंकवादी संगठन का कब्जा था। अल-कायदा भले ही ओसामा की जागीर हो, लेकिन उसके बाद उसका कोई भी नेता अपना प्रभाव नहीं दिखा सका है, लेकिन उसके निकटवर्ती सूत्रों का कहना है कि अल-कायदा एक बड़ा हमला अवश्य करेगा, क्योंकि उसके अस्तित्व का सवाल खड़ा हो गया है।
बगदादी शियाओं का कट्टर दुश्मन है। बगदादी जब अल-कायदा से अलग हुआ तो उसने सीरिया पर हमला किया। फिर इराक के अनेक हिस्सों पर भी उसने कब्जा किया। 2003 में जब इराक में युद्ध प्रारंभ हुआ तो उस समय तक वहां अल-कायदा का कोई नाम भी नहीं लेता था। जवाहिरी ने इराक में जिसे अपना उत्तराधिकारी बनाया था उसने जवाहिरी के कहने से शियाओं के साथ सख्ती नहीं की। इसका परिणाम यह हुआ कि अल-कायदा इराक से हमेशा के लिए समाप्त हो गया। शियाओं के साथ नरमी बरतने के कारण वे सुन्नी कबाइली, जो आज तक अल-कायदा के साथ थे, नाराज हो गए। बगदादी ने इन लोगों से सम्पर्क किया और समय का लाभ उठा कर सभी को शिया विरोधी बना दिया। इसलिए शियाओं की ताकत वहां पर समाप्त हो गई। इससे सुन्नी खुश होकर बगदादी के मुरीद बन गए। उधर जवाहिरी ने बगदादी को केवल इराक तक सीमित रहने के लिए कहा तो उसने आदेश मानने से इनकार कर दिया। बगदादी ज्यों ही ताकतवर हुआ सबसे पहले उसने अन्सार समूह में जो लोग अल-कायदा समर्थक थे उन्हें जवाहिरी से अलग कर दिया। फिर 1700 इराकी फौजियों को उसने मारा और इराक के कई स्थानों पर कब्जा कर लिया। इस प्रकार बगदादी अपने नेता जवाहिरी से बहुत आगे निकल गया है। अब उसके सामने दो बड़े लक्ष्य हैं। एक तो अल-कायदा को धूल चटाना और दूसरा इराक एवं सीरिया में सुन्नियों की सरकार कायम करना। इस प्रकार शिया बहुल इराक में अब सुन्नी आतंकवादी दनदनाते हैं। उनका कहना है कि जब तक इराक और सीरिया को परास्त नहीं किया जाएगा इस्लामी खिलाफत कायम नहीं हो सकती। यानी सुन्नी खिलाफत कायम करके वे हमेशा के लिए शियाओं को यहां से बाहर निकाल देना चाहते हैं। इधर तालिबान का मानना है कि बगदादी की नीतियां और उसकी अपनी अकेले की खिलाफत गृहयुद्ध की स्थिति पैदा कर देगी। इससे जिहाद कमजोर पड़ जाएगा। यहां यह बताना अनिवार्य है कि आई.एस.आई.एस. ने जिहाद की दुनिया में अल-कायदा समर्थक संगठन की हैसियत से कदम रखा था। लेकिन बाद में उसने अपने इस घर को ही नकार दिया। अब बगदादी का कहना है कि समस्त जिहादियों की एक कौंसिल बननी चाहिए। तालिबान को अल-कायदा का मित्र माना जाता है। इसी कारण से पाकिस्तान और अफगानिस्तान के तालिबान ने बगदादी का दामन नहीं पकड़ा है। तालिबान किसी भी स्थिति में अल-कायदा का साथ नहीं छोड़ना चाहता है। इसलिए उसने बगदादी को अपना खलीफा स्वीकार नहीं किया है। बगदादी के साथी अब यह आरोप लगाने से भी नहीं चूक रहे हैं कि इराक सरकार ने 350 सुन्नियों को मौत के घाट उतार दिया है। नुरूल मलिकी को बदनाम करके वे उनके हाथों से सत्ता छीन लेना चाहते हैं। मलिकी से इराक के शिया नेता आयतुल्लाह अलससितानी भी नाराज हैं। लेकिन ऐसी नाजुक स्थिति में नेतृत्व बदलना ठीक नहीं होगा इस पर वे सहमत भी हैं। यदि वर्तमान इराक सरकार उत्तरी इराक को छोड़कर भागती है, तो कुर्दिस्तान में दाइश के आक्रमणों का सामना कुर्दों को ही करना पड़ेगा। चिंता की बात तो यह है कि कुर्दो में भी बड़ी तादाद में जो सुन्नी हैं वे मलिकी का विरोध कर रहे हैं। दुनिया की महाशक्तियां इस खेल को देख रही हैं। समय आने पर कौन किसके साथ जाता है यह कहना कठिन है। लेकिन बगदादी की ताकत में वृद्धि होने पर शियाओं के हाथों से इराक की सत्ता निकल सकती है। शिया बहुल इराक में सद्दाम हुसैन ने कई वर्षों तक हुकूमत की है। इसलिए इस शिया बहुल देश पर सुन्नियों की सत्ता कायम हो जाए तो आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए। कुल मिलाकर आतंकवाद और शिया-सुन्नी झगड़ों से यह पूरा क्षेत्र खतरे में है। विश्व की बड़ी ताकतें तो इस बात की प्रतीक्षा में हैं कि एक बार फिर से किसी प्रकार तेल की दौलत उनके कब्जे में आ जाए। शिया-सुन्नी युद्ध बड़े पैमाने पर हो या छोटे स्तर पर, लेकिन भविष्य की दीवार पर यह इबारत लिखी जा चुकी है। तेल की यह लड़ाई कहीं दुनिया को किसी बड़े युद्ध में न धकेल दे।
– मुजफ्फर हुसैन
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