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जहां तथागत बुद्घ से लेकर भगवान महावीर तक सब ने अपने विहार बनाए थे उसी पावन भूमि को बिहार कहा जाने लगा। फिर जैसे-जैसे दिन बीते, बिहार बीहड़ बनता चला गया। पर अब लगता है बिहार में रामराज्य आने वाला है। आखिर उसे रामराज्य ही कहेंगे न जहां शेर बकरी एक घाट पर पानी पीने का मन बना लें। शेर और बकरी, दोनों की सोच है कि जंगलराज बनाये रखने के लिए मानव नामक प्राणी को वहां से दूर ही रखना होगा। कल तक जो जानी दुश्मन थे वे अचानक एक दूसरे की गोदी में चढ़ कर बैठने को उतारू हैं। जंगल में फिर से एक बार स्वयंवर की बेला आने वाली है। इस कठिन समय में वनवासियों का विश्वास जीतने के लिए इस बार शेर और बकरी की अद्भुत जोड़ी आने वाली है।
बिहार के जंगल में लालू जी दशकों से शेर की तरह गरजते रहे। जब तक वे गरजे निरीह बकरी की तरह मिमिया-मिमिया कर नितीश कुमार जी उनके जंगलराज की शिकायते करते रहे, यद्यपि समानताएं भी दोनों में बहुत हैं। दोनों ने जातिवाद को राजनीतिक ताकत का मूल स्रोत बनाया। फिर अतिवंचित वर्ग के भी टुकड़े-टुकड़े करके वंचित, महावंचित और परमवचिंत आदि की बारीकियों को उजागर करने में दोनों प्राणपन से जुट गए। हिन्दू समाज को टुकड़ों-टुकड़ों में बांट करके उनमे अपनी जागीरदारी स्थापित करने के साथ-साथ मुसलमानों के ऊपर भी दोनों की ही गिद्ध दृष्टि बराबर बनी रही। स्वयं को उनका सबसे बड़ा हितैषी घोषित करके दोनों लगातार वाकयुद्घ में भिड़े रहे।
वाकयुद्घ के मल्लयुद्घ में बदल जाने की चिंता सारे देश को रहती थी। लेकिन विनम्र बकरी के स्वर और मुद्रा में बोलने वाले नितीश जी के भाग्य से शेर की तरह दहाड़ने वाला मवेशियों का चारा खाते हुए पकड़ा गया। जब दूसरों की फसल में मुंह मारने वाले छुट्टा मवेशियों तक को कांजीहाउस में बंद कर दिया जाता है तो सरकारी खजानों का चारा चर जाने का अपराध साबित हो जाने के बाद जेल के द्वार लालू जी के लिए भी खुलने ही थे। ये दूसरी बात है कि सरकारी अतिथिगृहों को कारागार का नाम देकर उन्हें वहां भी इन्द्रसभा जैसी सुविधाएं मिलती रहीं। फिर बिहार से लालू जी का जंगलराज अचानक लुप्त हो गया। इधर नितीश जी का भाग्योदय हुआ। भाजपा का हाथ पकड़कर उन्होंने भी वैतरणी पार कर ली और बिहार की गद्दी पर शान से आरूढ़ हो गए।
गैस भरा गुब्बारा जैसे-जैसे धरती का दामन छोड़कर आकाश में ऊंचा उठता है, वैसे-वैसे वह आत्मरति के नशे में डूबता जाता है। अपनी ऊंचाइयों पर आत्ममुग्ध होकर अन्दर भरी हुई गैस को अपनी निजी शक्ति समझ कर वह गैस को बाहर रिस जाने देता है। अफसोस कि गैस के बिना आकाश में उन्मुक्त उड़ान मात्र सपना ही साबित होती है। रिसी हुई गैस वाले गुब्बारे की तरह धराशायी हो जाने के बाद नितीश जी अब नया हमसफर ढूंढ रहे हैं ताकि बिहार जातिगत समीकरणों से कभी निजात न पा सके, भले बिहार में पुन: जंगलराज स्थापित हो जाए। बागडोर किसी तरह से अपने हाथ में रखनी है, तो जंगलराज को समाप्त कर देने वाले उस छप्पन इंची सीने वाले पराक्रमी मानव को तो किसी तरह से जंगल से दूर ही रखना होगा।
चारा खा जाने वाले उनके अवतार के युग में ही लालू जी को चाटुकारों ने विश्वास दिला दिया था कि जब तक समोसे में आलू रहेगा तब तक उनका जातिवादी, परिवारवादी और निजस्वार्थवादी बढेंगा राज चलता रहेगा। उन दिनों जंगल के शेर की शह पर लकड़बग्घे मासूम बच्चों के अपहरण की फिरौती वसूलते थे। पटना की सड़कों को किसी चंद्रमुखी के मुख जैसी चिकनी कर देने के वादे किये जाते थे, पर सारे प्रदेश की सड़कों पर चन्द्रमा की सतह के जैसे विकराल गड्ढों के रहते वाहन की कौन कहे, पैदल चलना भी दुश्वार था। सूखकर मटमैले भूरे रंगों में खो गए बीहड़ को इन्द्रधनुषी रंगों में रंगने के लिए जो कलाकार थे, उनकी कला पूरे प्रदेश में रंगदारी के नाम से विख्यात थी। व्यवस्था संभालने के इन नए प्रयोगों के साथ ही विदूषक की तरह श्रोताओं को हंसाने की ख्याति मिल जाने पर लालू जी को सुदूर देशों से प्रबंधन के ऊपर भाषण देने के लिए बुलाया जाने लगा। यह दीगर बात है कि श्रोताओं के बीच वास्तविक लोकप्रियता उनके स्टैंड अप कॉमेडियन वाले किरदार की ही
आधुनिक भरत मिलाप थी।
जिनकी भर्त्सना करते वे थकते नहीं थे, उन्ही लालू का दामन थामकर नितीश जी ने अपने राजनैतिक सलाहकार को पवन की चाल से राज्यसभा में पहुंचाने का पावन कार्य संपन्न कर लिया। पर इस आधुनिक भरत-मिलाप में सिंहासन पर भरत आरूढ़ होंगे या श्रीराम की खड़ाऊं, जो राबड़ी के आधुनिक अवतार में है? (रामजी स्वयं तो अभी भी न्यायव्यवस्था रूपी शत्रुसेना के साथ युद्घ करने में व्यस्त रहेंगे।) सर्कस में ट्रैपीज अर्थात ऊंचे झूले पर झूलने वाले कलाकारों का खेल ही नहीं, पूरा जीवन ही, इस विश्वास पर टिका होता है कि दो विपरीत दिशाओं से झूले पर पेंग बढ़ाते हुए जब वे पास पहुंचेंगे तो एक दूजे के हाथ थाम लेंगे। जिस सर्कस में अंत में केवल एक कलाकार की नौकरी बनी रहेगी वहां दोनों कलाकारों में परस्पर इतना विश्वास रह सकेगा क्या?
अरुणेन्द्र नाथ वर्मा
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