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आपातकाल में जेल गए पत्रकार-ं केवल रतन मलकानी,कुलदीप नैयर,दीनानाथ मिश्र,वीरेन्द्र कपूर व विक्रमराव प्रमुख। 50 पत्रकारों की गई नौकरी।
100 से अधिक बड़े नेताओं की गिरफ्तारी हुई थी,जिनमें जयप्रकाश नारायण, विजयाराजे सिंधिया, राजनारायण, मुरारजी देसाई, चरण सिंह कृपलानी,अटल विहारी वाजपेयी,एल.के. आडवाणी,सत्येन्द्र नारायण सिन्हा, जार्ज फर्नांडीस,मधु लिमये,ज्योतिर्मय बसु,समर गुहा एवं चन्द्रशेखर प्रमुख थे।
आज भले ही मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार ने मीसाबंदी सम्मान निधि का प्रावधान कर अन्य राज्य सरकारों के लिए अनुकरणीय प्रयास किया हो, लेकिन आपातकाल की त्रासद यादें आज भी दिल में रह रहकर शुल चुभाती रहती हैं। दमन, अपमान और प्रताड़ना की यादें भुलाये नहीं भूलतीं। अनुशासन के नाम पर कांग्रेस ने स्वराज्य और लोकतंत्र का गला घोंटा था। ऐसे में देश भर में आजादी, स्वराज्य और लोकतंत्र के पहरुये आगे आये। उन्होंने लोकतंत्र की पहरेदारी की, अपना सबकुछ दांव पर लगा कर।
मध्यप्रदेश में आपातकाल का विरोध करने वाले बड़े-बड़े नाम हैं। राजमाता विजयाराजे सिंधिया से लेकर वर्तमान राज्यसभा सदस्य कप्तान सिंह सोलंकी तक। मध्यप्रदेश में लोकतंत्र रक्षकों की फेहरिस्त लंबी है। इसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता और प्रचारक तो हैं ही, समाजवादी भी बड़ी संख्या में हैं। 26 जून, 1975 से 29 मार्च, 1977 तक प्रदेश में प्रताड़ना, दमन, अपमान और गिरफ्तारी के साथ ही संघर्ष, प्रतिरोध, आंदोलन और जन-जागरण का लंबा दौर चला। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा।
संघ के स्वयंसेवक, कार्यकर्ता और प्रचारक गिरफ्तार किये गए। पुलिस ने गिरफ्तार करने में उम्र का भी ख्याल नहीं रखा। ऐसे ही संघ के एक कार्यकर्ता संतोष शर्मा की उम्र तब सिर्फ 14 वर्ष थी, जब वे बंदी बनाए गए। प्रदेश के वर्र्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तब महज 16 साल के थे। शर्मा तब 9वीं कक्षा के छात्र थे। वे बताते हैं- मध्यप्रदेश में यह पहली घटना थी जब एक ही स्कूल, एक ही कक्षा के तीन साथियों को पुलिस ने गिरफ्तार किया। हमारी गिरफ्तारी धारा 151 के तहत की गई। 10 दिन बाद हमें रिहा कर दिया गया। लेकिन कांग्रेस का षड्यंत्र गहरा था। जेल से बाहर आने के पहले, गेट पर ही भारतीय सुरक्षा अधिनियम (डी.आई.आर.)के तहत हमें फिर गिरफ्तार कर लिया गया। संतोष शर्मा बताते हैं- पुलिस गिरफ्तार कर सिर्फ जेल में डालती थी, जेल जाने से पहले थाने में बर्बर अत्याचार किया जाता था।
आपातकाल के पुलिसिया जुल्म और जेल की प्रताड़ना को याद कर संतोष शर्मा का हंसमुख चेहरा तनाव से भर जाता है। आपातकाल की दास्तां सुनाते हुए वे बताते हैं, '20 जनवरी, 1976 को सुरेश गुप्ता, अशोक गर्ग, शंभू सोनकिया, चन्द्रभान यादव और रमेश सिंह के साथ भोपाल के चौक इलाके में आपातकाल के खिलाफ नारे लगाते हुए पर्चे बांट रहे थे, तभी पुलिस ने हमें गिरफ्तार कर लिया। जनवरी में कड़ाके की ठंड होती है। पुलिस ने सर्दी के कपड़े उतरवा कर थाने के लॉकअप में बंद कर दिया। ठंड भगाने के लिए हम लोग रातभर दंड-बैठक, सूर्य नमस्कार और अन्य व्यायाम करते रहे ताकि शरीर में कुछ गर्मी आ सके।
दूसरे दिन प्रात: आठ बजे थाना प्रभारी ने अन्य पुलिसकर्मियों के साथ सुरेश गुप्ता, अशोक गर्ग और शंभू सोनकिया को खूब डंडे मारे। मुझे कम उम्र और दुबला-पतला देखकर भी उनको रहम नहीं आया। थाने के टीआई ने कहा-बड़ा क्रांतिकारी बनता है। हमारे ऊपर भी डंडे बरसाये। हालांकि हम सभी राजनीतिक बंदी थे, कम उम्र के थे, फिर भी हमें हथकड़ी लगाई गई। हम राजनीतिक, सामाजिक और कानूनी तौर पर दमन के शिकार हुए।'
उल्लेखनीय है कि आपातकाल में अगर किसी एक संगठन का सबसे अधिक दमन हुआ तो वह था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। आपातकाल के दौरान गिरफ्तार और प्रताडि़त होने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्घता ही काफी थी। चुन-चुनकर संघ के कार्यकर्ता पकड़े गए। संतोष शर्मा जैसे कई और स्वयंसेवक थे जिनकी पढ़ाई छूट गई।
जेल से बाहर आने के बाद भी स्कूल ने पुन: लेने से मना कर दिया। ऐसे लोग सामाजिक उपेक्षा के भी शिकार हुए। आपातकाल के दौरान शुरू हुआ संघर्ष उसके बहुत समय बाद तक चलता रहा। संतोष शर्मा 1987 में शासकीय सेवा के लिए चयनित हुए। लेकिन पुलिस सत्यापन में 'शासकीय सेवा के योग्य नहीं' लिखा गया। उच्च न्यायालय में लंबी लड़ाई के बाद श्री शर्मा को न्याय मिला।
नवम्बर, 1988 में संतोष शर्मा को शासकीय सेवा की योग्यता का प्रमाण मिला। वे आपातकाल के असर से आज भी प्रभावित हैं। वे शासकीय सेवा में तो हैं, लेकिन अपने समकक्षों से 14 माह पीछे। संतोष शर्मा को पुरानी यादें तनाव तो देती हैं, लेकिन मीसाबंदियों के प्रति भाजपा शासन की नीतियों और रवैये से उन्हें संतोष भी है। वे छिंदवाड़ा के पोपली परिवार का उल्लेख करना कभी नहीं भूलते जिनके परिवार के आठ सदस्य गिरफ्तार हुए थे। घर की बड़ी बेटी लता पोपली ने जैसे-तैसे घर संभाला। परिवार के मीसाबंदियों में से आज कई इस दुनिया में नहीं हैं। जो हैं उन्हें भाजपा शासन मीसाबंदी सम्मान निधि दे रही है। लेकिन आपातकाल के दौरान देखे भय, आतंक, अपमान और प्रताड़ना की यादें अब भी उनकी आंखों में ताजा हैं। हर साल 26 जून को मीसाबंदी दिवस का आयोजन हो रहा है। इस मीसाबंदी के दिन वे अपनी यादें एक-दूसरे के साथ बांटते हैं। कांग्रेस को यह पता था कि संघ ने लोकतंत्र की रक्षा का व्रत लिया है। हजारों-लाखों संघ के व्रती दूर-दराज तक फैल गये थे। गांव-गांव और नगर-नगर तक संघ के स्वयंसेवकों ने आंदोलन का बीड़ा उठा रखा था। संघ ने आंदोलन को बहुस्तरीय और बहुआयामी रूप दे रखा था। यही कारण था कि जितने लोग प्रत्यक्ष रूप से आंदोलन कर रहे थे, उतने ही गुप्त रूप से अपने काम को अंजाम दे रहे थे।
प्रस्तुति : अनिल सौमित्र
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