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अपनी बात : गुणसूत्र में दुर्गुण

by
May 3, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 03 May 2014 14:47:01

.एलेन पीज की पुस्तक  'बॉडी लेंग्वेज' कमाल की किताब है। कोई एक भंगिमा कैसे सामने वाले का पूरा व्यक्तित्व खोलकर रख देती है यह बताने वाला अध्यायवार तार्किक विश्लेषण वास्तव में पढ़ने लायक है। हालांकि राजनीतिक दल कोई व्यक्ति नहीं और घटनाक्रम कोई शारीरिक भंगिमा नहीं, परंतु व्यक्तियों के समुच्चय, एक साझा सोच और इकाई के तौर पर लिए जाने वाले फैसले विश्लेषण का एक झरोखा तो खोलते ही हैं! सो, 'बॉडी लेंग्वेज' की ही तर्ज पर हाल में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की एक भंगिमा ने उसकी सोच और समाज विभाजक राजनीतिक चरित्र का पूरा ताना-बाना खोलकर रख दिया। चुनाव के बीच, पूरक घोषणापत्र के तौर पर मुस्लिम आरक्षण का झुनझुना बजाना बताता है कि समाज को बांटे बगैर मजबूत शासन देने की बात यहां कोई सोच ही नहीं सकता, हिन्दू-मुस्लिम दरार के बिना यहां बात पूरी नहीं हो सकती। इस एक घटना ने बता दिया कि कांग्रेस के कर्णधारों के मन में इस देश के लिए क्या भाव है!
वैसे तो विभाजन की राजनीति से बुरी बात कोई हो नहीं सकती लेकिन यह दुर्गुण कांग्रेस के गुणसूत्र में है। समाज को बांटकर राज करने की जो रीत अंग्रेजों ने रखी थी कालांतर में कांग्रेस उसी समाज विभाजक राजनीति की लीक पर चलती रही है।
समाज की आकांक्षाओं को पूरा करना, यह कांग्रेस का ध्येय कभी रहा ही नहीं।1885 में एक विदेशी द्वारा विदेशी शासन को विदेशी अपेक्षाओं के अनुकूल रखने के लिए स्थापित तंत्र को भारतीय आकांक्षाओं के मंत्र के तौर पर प्रचारित किया गया और ब्रिटिश राज के लिए ह्यसेफ्टी वॉल्वह्ण के तौर पर इस्तेमाल होने वाले भौंपू में ह्यस्वराज्यह्ण की मांग हमेशा दब गई। बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, विपिन चंद्र पाल की ललकार में भारतीय हित के तीव्र स्वर थे, किन्तु देश को प्रथम रखने वाली सोच हमेशा इस मंच से बुहार दी गई। सिर्फ ये तीन नाम ही नहीं, बल्कि तमाम अच्छी बातें भुला देना शायद अब इस पार्टी की परिपाटी बन चुकी है। मुस्लिम आरक्षण का हल्ला मचाने वाली कांग्रेस देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्र की वह बात भूल गई जिसमें उन्होंने कहा था कि नागरिकों के लिए राजकीय सहायता का पैमाना उनकी आर्थिक स्थिति होनी चाहिए ना कि वर्ग भेद। इसी क्रम में जून, 1961 में मुख्यमंत्रियों से कही गई नेहरू की वह बात भी भुला दी गई जिसके अनुसार यदि राज्य जाति और मजहब के नाम पर आरक्षण करने लगे तो मेधावी और सक्षम लोग हाशिए पर चले जाएंगे और देश दोयम या तीसरे दर्जे पर होगा।
सरकारी सेवाओं में मजहब के आधार पर आरक्षण का प्रावधान (18 दिसंबर, 2009) करते हुए पार्टी मजहबी आधार पर आरक्षण को नकारती संविधान की मूल भावना, संविधान सभा में बाबा साहेब अंबेडकर की टिप्पणियां, सरदार वल्लभभाई पटेल के तर्क सब कुछ भूल गई। समाज को भूल गई, याद रहा सिर्फ राज!
एक देश, एक समाज, एक से पुरखे, एक संस्कृति। ये सारी अच्छी बातें सांप्रदायिकता की राजनीति करने वालों की उस कथित सेकुलर धारा के गले नहीं उतरती जिसकी अगुआई कांग्रेस करती है। इकट्ठा एकजुट समाज इस देश को वैश्विक शक्ति बना सकता है इसमें कोई संदेह नहीं, किन्तु भारतीय समाज की सामूहिक शक्ति के जग जाने का जो भय देश के दुश्मनों को होना चाहिए वह सेकुलर राजनीति की बिसात पर पसरा दिखता है। समाज को बांट दो, द्वेष के बीज डाल दो, वैयक्तिक लाभ चाहने वालों को आगेकर 'मजहबी मुनाफे' के ऐसे टुकड़े फेंको कि लोग अपने हित से आगे कभी एक होकर सोच ही न सकें कि देश का भला सामूहिकता में है! दरअसल, तुष्टीकरण के राजनीतिक पैंतरों ने देश की बहुसंख्य आबादी में ही रोष नहीं भरा, बल्कि राजनीतिज्ञों द्वारा वोट बैंक के तौर पर पुचकारे जाने वाले समूहों को भी शेष समाज से अलग-थलग कर दिया। अलग होने का यह भाव उनकी प्रगति में ऐसा अवरोधक बना जहां उनके नेता, नीति और नियति सब कुछ शेष समाज से अलग ही होता गया। समाज के एक वर्ग को सहलाते हुए पूरे समाज से काटने का यह सारा घृणित खेल उस सेकुलर राजनीति के नाम पर हुआ जिसका झंडा कांग्रेस ने उठाया हुआ था।
राज करना और शासन संभालना, दो अलग-अलग बातें हैं। पहली में राजतंत्र की बू है, शोषण की इच्छा है, दंभ भरी गुर्राहट है। दूसरी में लोकतंत्र की सुगंध है, सेवा का भाव है, राष्ट्र उन्नयन का सामूहिक आह्वान है। दशकों तक भारत पर राज चलाने वालों को समझना होगा कि सूचना क्रांति के युग में जब पूरी दुनिया एक हो रही हो किसी समाज को बांटे नहीं रखा जा सकता।

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