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कार रखने और उसे चलाने में पूरी तरह सक्षम होने के बावजूद दिल्ली की सड़कों पर कार चलाने का न साहस होता हैऔर न इच्छा। उससे तो कहीं अधिक सुविधाजनक है घर से थोड़ी दूर पैदल चलकर ऑटोरिक्शा पकड़ कर मेट्रो स्टेशन तक पहुंचना और उसके बाद मेट्रो के भीड़ भरे डिब्बों में हर झटके के साथ पास खड़े लोगों पर गिरते भहराते सफर करना। कभी-कभी तो भीड़ की इतनी सघन पैकिंग होती है कि न तो हिलने डुलने की जगह होती है न ही साथ वालों के ऊपर गिरने का खतरा। बस रह-रह कर लालच भरी निगाहें उन युवाओं पर उठती हैं, जो आराम से वृद्घों ,विकलांगों, महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों पर बैठे होते हैं। कान में मोबाइल के तार घुसेड़ कर, संगीत सुनते हुए, आंखें बंद करके सोने का बहाना करते हुए इन लोगों से सीट छोड़ देने का आग्रह बिरले ही वरिष्ठ नागरिक करते हैं। एकाध बार किसी दबंग महिला को आग्रह करते हुए जरूर देखा है, पर वास्तव में वरिष्ठ महिलायें अपनी तरफ से दूसरों के हस्तक्षेप की प्रतीक्षा में चुपचाप टुकुर-टुकुर देखती रहती हैं। अंत में दो चार और लोग जब बड़बड़ाने लगते हैं, तब चेहरे पर चोरी करते हुए पकड़े जाने वाला भाव लेकर इन बेचारों को उठना ही पड़ता है। उस दिन भी यही कुछ देखने को मिला। पर हमेशा से कुछ फरक था। हाथ में एक भारी सा बैग लटकाए हुए एक महिला तपाक से बोलीं 'आने दो नरेंद्र भाई को, इन सबको ठीक कर देंगे।' मेरे मन ने कहा था 'आमीन'।
ऑटो से मेट्रो स्टेशन आते हुए जब बाईं तरफ से अंधाधुंध रफ्तार से ओवरटेक करते हुए एक बस ने मेरे ऑटोरिक्शा को लगभग सड़क के डिवाईडर में घुसा दिया था तो ऑटोचालक के मुंह से यही शब्द सुने थे मोदी आयेगा तो इन सब चीजों को दुरुस्त कर देगा। 'उसके बाद मेरे ऑटो ने चौराहे की लाल बत्ती की अनदेखी करके सड़क पार करते एक आदमी को कुचलने में थोड़ी सी ही कसर छोड़ी थी। उस बेचारे ने चिल्लाकर कहा था 'ज्यादा दिन ये सब नहीं चलेगा, मोदी आ रहे हैं, तुम सब —-लोगों को पकड़कर बंद कर देंगेह्ण। दोनों बार मेरे अन्दर से आवाज आई थी 'एवमस्तु।' मेट्रो स्टेशन पहुंचकर ऑटोवाले ने मीटर से डयोढ़ा किराया मांगा और एतराज करने पर कहा था सर जी, क्या करें, पुलिस को अनाप-शनाप खर्चा देना पड़ता है। रोज बढ़ती महंगाई का हिसाब नहीं। अब अच्छे दिन आने वाले हैं। महंगाई भी घटेगी, सी.एन.जी. भी सस्ती होगी। फिर हम मीटर के हिसाब से ही किराया लेंगे। 'मैंने चुप होकर जितना उसने मांगा दिया और मन ही मन में फिर कहा 'एवमस्तु'।
मैंने इन्ही सब पचड़ों से घबराकर अपनी दुनिया एक बहुत छोटे से वृत्त में समेट ली है। एम्स अर्थात अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में एक मित्र के बेटे की विशेषज्ञ डॉक्टर की हैसियत से नियुक्ति का फायदा उठाकर अपनी एक दीर्घकालीन स्वास्थ्य समस्या का निदान ढूंढने वहां चला तो गया पर वहां की गहमा-गहमी देखकर होश उड़ गए। मित्र के बेटे द्वारा दिए गए निर्देशानुसार मोबाइल लगाया तो उसने मुझे तुरंत अपने कक्ष में बुलाया। बोला ह्यपर्ची बनवाने की चिंता छोडि़ये। 'पर उसके कक्ष के बाहर प्रतीक्षारत पचासों लोगों की लम्बी कतार देखकर मैं घबरा गया। हिम्मत नहीं पड़ रही थी उन सबके आगे छलांग लगाकर सीधे डॉक्टर के कक्ष में घुस जाने की। सुबह से एक खिड़की से दूसरी खिड़की तक टकराते फिरने के बाद आखिर में डॉक्टर के कक्ष के बाहर इतनी लम्बी कतार लगी देखकर उनमें से अधिकांश का धैर्य जवाब दे चुका था। वे स्वयं और उनके साथ आये उनके सगे संबंधी बार-बार अपनी घड़ी पर नजरें डालते हुए देश को, सरकार को, एम्स को और लगातार बढ़ती आबादी को कोसने में लगे हुए थे। तभी मेरे मोबाइल की घंटी बजी। डॉक्टर पूछ रहा था मैं कहां रह गया? मैंने लम्बी कतार की बात की तो उसने कहा 'अरे आप चिंता न करिए, अन्दर आइये, मैं हूं न!' मैंने वैसा ही किया। लाइन में घंटों से लगे एक बूढ़े ने कराहते हुए कहा 'क्या अंधेर मचा हुआ है। आने दो मोदी को, सब ठीक कर देगा।ह्ण मैं चुपचाप नजरें झुका कर डॉक्टर के कमरे में दाखिल हो गया। मेरा मन गूंगा हो गया था- न 'आमीन' बोला न 'एवमस्तु' कह पाया।
-अरुणेन्द्र नाथ वर्मा
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