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काल-पुरुष धुन रहा शीश, निज दैनन्दिनी लिये,
कैसे लिखे समय की गाथा, कड़ुए घूंट पिये ?
भाग रहा है समर-भूमि से लड़े बिना सेनानी,
एक दशक की कहें किस तरह लज्जा भरी कहानी ?
बीत रही है निशा निराशाभरी, छिप रहे तारे,
लुटा रात भर गगन, पहरुए बिना लड़े ही हारे।
कृष्ण पक्ष का निष्प्रभ नायक अब भी होंठ सिये है,
कुछ तो बोल, साथियों के संग कितने पाप किये हैं ?
चोटी पर क्यों चढ़े, कांपते जब कमजोर चरण थे ?
कदम-कदम पर लिये चुनौती खड़े हुए जब रण थे ?
उस घोड़े पर भी चढ़ने की क्यों कर दी नादानी,
जिसकी लिये लगाम कर रही थी कोई मनमानी ?
प्रश्न मांगते थे जब उत्तर, मौन रहे तुम तब भी,
क्षमा मांग लो बहरे बाबा! बची शर्म यदि अब भी।
लूट रहे थे राष्ट्र-सम्पदा जब मन्त्री-अधिकारी,
पट्टी बांधे रहे आंख पर तुम! ये कैसी लाचारी ?
महंगाई से त्रस्त देश की जनता सिसक रही थी,
पली विदेशी भू पर कोई चिडि़या चहक रही थी।
चलती रही हमारी भू पर चीनी दादागीरी,
तब तुम ओढ़ सन्त की मुद्रा करते रहे फकीरी।
होते रहे विवस्त्र भारती जन विदेश में जब-जब,
अधर बन्द ही रहे तुम्हारे किस दबाव में तब-तब ?
कटते रहे सैनिकों के भी शिर स्वदेश-रक्षा में,
रहे मांगते रिपु से उत्तर तब भी तुम भिक्षा में।
बुन्देलों की धरा दरकती पानी मांग रही है,
यह मुमूर्ष मानवता जीवन से जब भाग रही है।
रहे बांचते अर्थशास्त्र के तब तुम नियम विदेशी,
चलते नहीं विदेशी नुस्खे, बीमारी जब देशी।
किये विना कुछ रहे खींचते तुम सत्ता की गाड़ी,
भोले बाबा बने रहे या दिखते रहे अनाड़ी।
अंकित करते रहे शून्य में रेखा तिरछी-आड़ी,
राजनीति के तुम तो निकले सबसे चतुर खिलाड़ी।
-ओम भारद्वाज
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