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49 प्रतिशत अल्पमत और 51 प्रतिशत बहुमत

by
May 10, 2014, 12:00 am IST
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दिंनाक: 10 May 2014 14:49:28

मुजफ्फर हुसैन

चोर और सिपाही की परिभाषा कानून की पुस्तक में चाहे जो हो लेकिन बच्चों के खेल में जो पकड़ा नहीं जा सके वह सिपाही होता है और जो पकड़ लिया जाए वह चोर कहलाता है। हमारा लोकतंत्र भी कुछ ऐसा ही है जिस किसी को 51 प्रतिशत वोट मिल जाए वह विजयी कहलाता है और 49 प्रतिशत प्राप्त करने वाला हारा हुआ घोषित कर दिया जाता है। यानी एक प्रतिशत ही दोनों के बीच की भेद रेखा है। चुनाव की हार-जीत भले ही एक वोट से हो वह सत्ताधीश बन जाता है और एक प्रतिशत वाले को विरोध में बैठना पड़ता है। किसी अन्य मामले में इतनी निकटता से होने वाली हार-जीत भले ही किसी के लिए चिंता का सवाल हो या न हो लेकिन शासक बनकर सत्ता के सूत्र हाथों में आ जाना एक आश्चर्यजनक घटना मानी जाती है। हमारे संविधान में यह व्यवस्था केवल चुनाव के मामले में ही नहीं है, बल्कि एक का अंतर किसी को अल्पसंख्यक भी बनाने की ताकत रखता है और जिसकी जनसंख्या एक प्रतिशत अधिक हो जाती है वह बहुसंख्यक बन जाता है। राजनीति के क्षेत्र में एक कम और अधिक वरदान भी है और अभिशाप भी। इसी प्रकार हमारे संविधान में जो एक प्रतिशत कम है वह अधिक अधिकार सम्पन्न हो जाता है। इसलिए यह एक की संख्या बड़ी जादुई और दिलचस्प है। राष्ट्रसंघ के मानव अधिकार में जिसकी संख्या पांच प्रतिशत से कम होगी वही अल्पसंख्यक होने का दावा कर सकता है। इससे एक प्रतिशत भी अधिक हुआ तो गिनती बहुसंख्यकों में होगी। हमारे यहां अल्पसंख्यक होना सोने का अंडा देने वाली मुर्गी है। लेकिन चुनाव की दुनिया में यह संख्या वरदान और अभिशाप दोनों ही है। एक से नम्बर अधिक है तब वह सफल प्रतिनिधि माना जाएगा और सरकारी बेंच पर जाकर बैठेगा, लेकिन जो एक से कम होगा उसकी गिनती विरोधी दल के रूप में होगी। यह ऐसा जादुई आंकड़ा है जो अधिक हो जाए तो किस्मत बदल दे और दूसरे के लिए अभिशाप बन जाए। लेकिन सवाल यह है कि ऐसा अल्पमत और बहुमत कितना टिकाऊ और नैतिकता के आधार पर जायज कहलाएगा? भारत में इसलिए आज भी एक वोट की तलवार हर दम लटकती रहती है। यह स्थिर और बेतुकी पद्धति ही भारत में लेकतंत्र को मजबूत नहीं होने देती। इसलिए समय-समय पर कुछ आवश्यक बिल पास करने के लिए मतों की संख्या बढ़ा देने के सम्बंध में परिवर्तन भी हुए हैं। इससे सरकार में स्थिरता आ जाती है और बड़ी संख्या में लोगों को लाभान्वित करने के अवसर बढ़ जाते हैं। इसलिए मत के आधार पर किसी देश की सरकार और उसकी अनिश्चित और वैज्ञानिक पद्धति के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। सरकार के गठन के लिए सांसदों और विधायकों की मात्र संख्या ही देखना अनिवार्य नहीं है बल्कि सत्तारूढ़ पार्टी बनने के लिए जब तक एक संतोषप्रद मत प्राप्त करने वाला दल नहीं होता है तब तक उसे सत्ता मिलनी चाहिए या नहीं इस पर विचार करना आवश्यक है। मिली-जुली सरकार में भी जो पार्टियां शामिल होना चाहती हैं उनके लिए भी इस कसौटी पर खरा उतरने की आवश्यक शर्त होनी चाहिए। क्योंकि 49 के विरुद्ध 51 प्रतिशत होना अनेक पार्टियों के सहयोग से यह सम्भव हो सकता है। इसलिए उक्त गठबंधन के लिए उन्हीं पार्टियों को राष्ट्रपति सरकार बनाने की आज्ञा प्रदान करें जिस एक विशिष्ट प्रतिशत का संविधान में उल्लेख किया गया है। आज तो मात्र साधारण बहुमत ही एकमात्र कसौटी है। परिपक्व एवं जिम्मेदार सरकार के लिए देश के संविधान में अथवा जो हमारी चुनाव प्रक्रिया में स्वीकार किया गया हो। जब तक यह बंधनकारी नहीं होगा देश में हमेशा ही अल्पमत की सरकार का गठन होता रहेगा। 1952 में प्रथम संसद के चुनाव के पश्चात आज तक मत के हिसाब से बहुमत की सरकार नहीं रही। बाद में जो कानून बने वे ऐसी ही सरकारों ने बनाए। यदि उक्त कानून बन जाए तो चुनाव के समय छोटे-छोटे दलों से मिलकर बनी सरकारों का खतरा टल सकता है। यदि मजबूरी में इन सभी पार्टियों का कुल प्रतिशत भी 51 हो जाता है तो वह स्वीकार करने योग्य हो सकता है। नहीं तो 11 छोटे दल मिलकर कुल 51 प्रतिशत होने का दावा पूर्ण करें तो भी उन सबका अलग-अलग प्रतिशत तो पांच ही होगा। इस प्रकार इतने कम प्रतिशत वाली पार्टियों से बनी सरकार तो एक बड़ा मखौल बन जाएगा। चुनाव आयोग को लोकतंत्र की परिपक्वता के लिए इस प्रकार की कोई व्यवस्था करना अनिवार्य है। पिछले आम चुनाव में कांग्रेस और भाजपा दोनों को मिलाकर 47 प्रतिशत वोट मिले थे। अन्य दलों को 53 प्रतिशत। अब यदि यह दोनों एक साथ आ जाते तो भी सरकार बना सकते थे तब निश्चित ही 53 के आंकड़े का तो कोई महत्व ही नहीं रह जाता। यदि ईमानदारी से इसका विश्लेषण करें तो दसों बड़ी पार्टियां भी यदि 53 का आंकड़ा पार नहीं करती हैं तो फिर इसे लोकतंत्र की परिभाषा किस प्रकार दी जा सकती है? भारत के तीन प्रथम आम चुनाव के आंकड़े दर्शाते हैं कि भाजपा एवं राज्यस्तरीय प्रांतीय पार्टियों का उदय नहीं हुआ था। किन्तु 6 दशक के भीतर देश में छोटे स्थानीय और राज्य स्तर के राजनीतिक दलों की बाढ़ आ गई। कांग्रेस को पराजित करने के लिए इस प्रकार की व्यवस्था कांग्रेस पार्टी के लिए उल्टा वरदान बन गई। तब कुछ पार्टियों को साथ लेकर जब मिलीजुली सरकारें बनने लगीं तो जनतांत्रिक नैतिकता का दीवाला निकल गया। अपने साथी दलों को हर प्रकार के सुख देकर उन्होंने सत्ता में आने का मार्ग ढूंढ़ लिया। कुछ समय के बाद भारतीय जनता पार्टी ने भी कांग्रेस का अनुसरण करना प्रारंभ कर दिया। इसलिए ताकतवर दलों को पराजित करने के लिए कमजोर लोग एक मंच पर अपना निजी स्वार्थ पूरा करने और सत्ता का सुख भोगने के लिए एक साथ आ गए। 1952 के प्रथम आम चुनाव में कांग्रेस 498 में से 364 पर विजयी हुई थी। उसके बाद ऐसा समय कभी किसी चुनाव में नहीं आया। वास्तव में यही लोकतंत्र का खरा नमूना था। 1977 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा की गई असंवैधानिक गतिविधियों के कारण आपातकाल का डंडा चल जाने से मजबूर होकर अनेक छोटे दलों की आपस में मिलकर जनता पार्टी बनी तब पहली बार कांग्रेस के हाथों से सत्ता निकल गई और जनता पार्टी सरकार का राजतिलक हो गया। इस परिणाम से विरोधी दलों को छोटे दल बनाकर कांग्रेस को पराजित करने का मार्ग मिल गया। इसके बाद जिस तरह से आयाराम गयाराम का बाजार गर्म हो गया उसने कांग्रेस को कहीं का नहीं रखा। अब भले ही उसकी सरकार बनती हो लेकिन वह अन्य छोटे दलों के साथ मिलकर बनती है। इसलिए बड़ी पार्टी के रूप में कांग्रेस की एकछत्र ताकत टूट गई। वहां भी अब छोटी पार्टियों का जमावड़ा हो गया। लेकिन इंदिरा जी की हत्या के बाद जो सहानुभूति कांग्रेस को मिली उसके कारण उसका पुनर्मूल्यांकन हो गया। राजीव गांधी को इतना बड़ा जनमत प्राप्त हुआ कि सारे पिछले रिकार्ड टूट गए। कांग्रेस को 404 सीटें मिलीं जबकि भारतीय जनता पार्टी को केवल दो नसीब हुईंं। वामपंथियों को 34 सीटें मिल गईं। इससे स्पष्ट हो गया कि देश में वामपंथी आगे बढ़ रहे हैं। उनके शब्दों में कहा जाने लगा कि हमने दक्षिणपंथियों को सत्ता से बाहर का दरवाजा दिखला दिया है। कांग्रेसी इस जीत को पचा नहीं पाए जिस कारण उनकी 1984 की जीत ज्वार में से बहुत शीघ्र भाटा बन गई। 1999 में जब लोकसभा के चुनाव हुए तो कांग्रेस को नरसिंह राव के नेतृत्व में 114 सीटों पर सफलता मिली जबकि अटल जी के नेतृत्व में भाजपा 182 पर पहुंच गई। मुम्बई के बांद्रा में भारतीय जनता पार्टी द्वारा दिया गया, यह नारा सफल हो गया-अगली बारी-अटल बिहारी, अटल बिहारी। यही वह बिन्दु था जब कांग्रेस की नीतियों की पराजय हो गई और हिन्दुत्व का बोलबाला शुरू हुआ। यद्यपि वामपंथियों की संख्या 42 हो गई, लेकिन सभी को लगने लगा कि अब कांग्रेस का पर्याय केवल और केवल हिन्दुत्व है। यह पहला अवसर था कि भाजपा को मुसलमान और दलित वोट भी इस चुनाव में मिले। सबको यह विश्वास हो गया कि भाजपा एक सशक्त दल बनकर उभरेगी और जो देश में नई राजनीतिक सोच के तहत एक खालीपन आया है वह भर जाएगा। अटल जी के व्यक्तित्व ने इस दिशा में बहुत बड़ा काम किया। इसलिए भारत में विरोधी दलों की सच्ची और अच्छी सरकार पर से आम जनता का विश्वास उठता चला गया।
इसका लाभ यह हुआ कि कांग्रेस, मुस्लिम लीग और अन्य तथाकथित प्रगतिशील कहलाने वालों ने कांग्रेस के नेतृत्व में चुनाव लड़ा। 2004 के आम चुनाव में कांग्रेस को 145 सीटें मिल गईं। इसलिए कांग्रेस की सरकार बन गई। डा. मनमोहन स्िंाह इसके प्रधानमंत्री बने। इस चुनाव में भाजपा को ३८ सीटें मिली थीं। उस समय वामपंथियों को अपने जीवन में सर्वाधिक 59 सीटें प्राप्त हुई थीं। 2009 के आम चुनाव में कांग्रेस को 206, भाजपा को 116, वामदलों को २४ सीटों पर सफलता मिली थी जबकि क्षेत्रीय दल 164 पर पहुंच गए। देश के दो प्रथम आम चुनाव में क्षेत्रीय दल नहीं थे। वामपंथी 164 स्थानों पर सफल हुए। जहां तक दलों के प्रभाव का सवाल है उसकी ताकत 1962 के बाद बढ़ती दिखलाई पड़ी। तब उनको केवल 10 सीटों पर सफलता मिली थी। जबकि 2009 में उनकी ताकत 164 पर पहुंच गई। इंदिरा जी की मौत एवं उससे उपजी सहानूभूति की लहर के चलते 1948 के आम चुनाव में कांग्रेस को अब तक की सबसे बड़ी सफलता मिली जिसमें उनकी संख्या 404 पर पहुंच गईं।
1999 में वाजपेयी जी की छवि और कड़ी मेहनत के कारण 182 सीटों पर भाजपा की विजय हुई थी। इस चुनाव में कांग्रेस केवल 114 सीटों पर सफल हुई। अब 2014 का लोकसभा चुनाव सामने है। देखना है कौन अपने बलबूते सरकार बनाता है। या फिर गठबंधन सरकार से ही जनता को काम चलाना पड़ेगा।

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