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.आभापुंज कहे जाने वाले चेहरों का रंग उड़ा हुआ है। श्रद्धा की मूर्ति खंडित हो चुकी है। वंश परंपरा को पूजने वालों का प्रार्थना स्थल फिर सवालों के घेरे में है।
दस जनपथ की ओर उंगलियां पहली बार नहीं उठी हैं। सरकार में संवेदनशील पदों पर सेवाएं दे चुके नौकरशाह, प्रधानमंत्री कार्यालय के भरोसेमंद रहे पूर्व अधिकारी, और तो और कारोबार की आड़ में काला धंधा करने वाले हवाला कारोबारी तक गड़बडि़यों के सारे सूत्र-संकेत एक पते पर जाकर खत्म होते हैं।
डॉ. मनमोहन सिंह के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू और पूर्व कोयला सचिव पी.सी. पारेख ने अपनी पुस्तकों में सरकार की गड़बडि़यों को लेकर पर्दे के पीछे सत्ता के परोक्ष अपहरण और गड़बड़झाले की जो कहानी बताई थी उसमें अब अपराध के प्रत्यक्ष सबूत भी नजर आने लगे हैं।
मांस निर्यातक मोइन कुरैशी के ठिकानों पर जांच एजेंसियों की छापेमारी ने हवाला के काले कारोबार में लगे 10 जनपथ के राजमंद उन सफेदपोश लोगों को एक बार फिर चर्चा में ला दिया है जिनके नाम हसन अली प्रकरण में पहली बार गूंजे थे। देश के सबसे बड़े कालेधन और टैक्स चोरी प्रकरण में पहली बार यह तस्वीर देख देश सन्न रह गया था। गड़बड़ घोटालों की रकमों में शून्यों की ऐसी कतार कि आंकड़ों में लिखें तो पढ़े-लिखों के भी दिमाग चकरा जाएं।
कालेधन पर तब ओढ़ी सरकारी चुप्पी स्विस खातों की सफाई तक टूटी नहीं थी। अब कोयला घोटाले में फंसी सरकार की अंतर्कथाएं बताते पारेख की हिम्मत और ह्यसत्ता त्यागीह्ण सोनिया का सत्तालोलुप चेहरा दिखाती बारू की किताब क्या बकवास बताकर खारिज कर दी जाएंगी! क्या सनसनीखेज खुलासों वाली कुरैशी की फोन रिकार्डिंग भी देश के सामने आने से पहले ही ह्यसाफह्ण हो जाएगी!
बारू ने पूरे देश को बता दिया है कि पर्दे के पीछे प्रधानमंत्री की क्या हैसियत थी और किस तरह 10 जनपथ की शह पर भ्रष्ट मंत्रियों के हौसले बढ़े हुए थे।
पारेख के अनुसार, जब उन्होंने प्रधानमंत्री को बताया कि किस तरह सांसद अफसरों का अपमान कर रहे हैं तो जवाब मिला, ह्यमैं भी इसी समस्या से जूझ रहा हूं, तो क्या इस्तीफा दे दूं?ह्ण प्रधानमंत्री जी, कागज के ये पन्ने इतिहास का हिस्सा बन गए हैं और यह वह अध्याय है जहां तमाम खंडन के बावजूद संप्रग के पैरोकारों की फौज पर बारू और पारेख जैसों के लिखे को ज्यादा वरीयता दी जाएगी। रीढ़-विहीन होने और ह्यगांधी खानदानह्णसे दबने के आरोप, बांहें चढ़ाते,अध्यादेश फाड़ते राहुल गांधी की उन मुद्राओं के दर्पण में भी देखे जाएंगे जहां उन्होंने आप और आपके पूरे कैबिनेट को उसका स्थान बता दिया था.. .पारेख को झूठा कहने से क्या होगा, इस्तीफा तो आपने तब भी नहीं दिया?
पारेख जब कहते हैं कि निदेशकों और सीईओ की नियुक्ति के लिए पैसा मांगा जाता था तो उनकी बात यूं ही खारिज नहीं की जा सकती। पूर्व रेलमंत्री पवन बंसल के त्यागपत्र का कारण बना भंडाफोड़ भी क्या कुछ ऐसी ही कहानी नहीं कह रहा था?
बहरहाल, फारुख अब्दुल्ला का यह कहना कि दोनो पुस्तकों के बाजार में आने का समय यह इशारा करता है कि यह संप्रग को नुकसान पहुंचाने और कम समय में पैसा कमाने के लिहाज से उतारी गई हैं, अपने आप में एक बड़ी बहस का विषय है।
क्या समय देखकर वार करना गलत बात है? क्या राजनीति और अन्य धाराएं इस नियम का अपवाद हैं? यदि नहीं तो लेखक व प्रकाशक द्वारा सही समय के चयन को गलत क्यों ठहराया जाना चाहिए? वैसे, यदि आंकड़ों की बात की जाए तो नकारात्मक विकास दर के दौरान भी जहां राजनीतिज्ञों के कारोबार सौ से पांच सौ फीसदी की रफ्तार से बढ़ते हों वहां राजनीतिक भ्रष्टाचार की पर्तें उघाड़ने वाला तथ्यात्मक लेखन कम समय में पैसा कमाने का जरिया नहीं, बल्कि क्रांति का साहस कहा जाना चाहिए।
पर्दे के पीछे से लोकतंत्र को कठपुतली नाच बना देने वालों को बख्शा नहीं जा सकता। कुरैशी और हसन अलियों के हमजोलियों को, कुर्सी पर चढ़कर राजकीय कोषागार में सेंध लगाते लोगों को बख्शा नहीं जा सकता। ऐसे लोगों को बार-बार शासन की बागडोर क्यों चाहिए?
कश्मीरी भाषा में शेख नूरुद्दीन की उक्ति है-
जिसके दांत ना हों वह अखरोट लेकर क्या करेगा!
जो अपाहिज हो वह तीर-कमान लेकर क्या करेगा!
जिस व्यवस्था को पारदर्शिता और पवित्रता का पर्याय होना चाहिए उसे भ्रष्टाचार की सड़ांध मारता कूड़ादान बना छोड़ने वालों से देश जानना चाहता है कि एक बार फिर से शासन लेकर वे क्या करेंगे?
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