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इन सजे मुखौटों से मेरा संबंध नहीं,
अनगढ़ आकृतियों से कोई अनुबंध नहीं।
जो जुडे़ नहीं क्षणभर
उजलाई सतरों से,
तृष्णाएं ढरती हैं
पपड़ाए अधरों से,
कुंठा के कैदी हैं, मन से निबंर्ध नहीं।
अनगढ़ आकृतियों से मेरा संबंध नहीं ।।
कडुवेपन को पीते
भरमों से जीते हैं,
पहले भी रीते थे
अब ज्यादा रीते हैं।
दु:ख से पहचान नहीं,सुख का आनंद नहीं।
इन सजे मुखौटों से मेरा संबंध नहीं।।
इतने संतुष्ट हुए
अपने से ऊबे हैं
चुल्लू में तैर रहे
बातों में डूबे हैं ।
जीवन तो मिला मगर मन की वह गंध नहीं।
इन सजे मुखौटों से मेरा संबंध नहीं।।
– डॉ.तारादत्त 'निर्विरोध'
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