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1. फिर झलकी नादानी
भले ही उपनाम की वजह से कुनबा कांग्रेस उनके लिए बिछ-बिछ जाती हो मगर पार्टी के 'युवराज' खुद अपनी ही पार्टी की भद्द पिटाने में माहिर हैं। पहले गांधी हत्या में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरफ उंगली उठाने और फिर 'हिटलर' का ताना खुद उनकी दादी की आपातकालीन तानाशाही पर जा लगने के बाद अब इसमें शायद ही किसी को शक हो कि राहुल गांधी की समझ का स्तर सामान्य समाज से भी कम ठहरता है।
सामान्य अध्ययनशील पाठकों की इस बाबत ई-मेल पर मिली तीखी प्रतिक्रियाएं बताती हैं कि लोग घृणित सोच और घटिया समझ को फौरन ही दुरुस्त कर देना चाहते हैं। सो, इस अंक की आवरण कथा के आलेख समाज के कुछ ऐसे ही सुधी सामान्य जनों की कलम से। वैसे, देश की सबसे पुरानी राष्ट्रीय पार्टी के खेवनहार से इतनी तो उम्मीद की ही जानी चाहिए कि वे कुछ पढ़ते-लिखते हों लेकिन यहां मामला सिफर लगता है। राजनीति के ऐसे 'शून्य' पार्टी को किस गर्त में ले जाएंगे इसकी चिंता आम मतदाताओं को नहीं पार्टी के उन रणनीतिकारों को करनी चाहिए जो कुनबा पूजन की भेड़ चाल चलते-चलते उस कगार पर आ पहुंचे हैं जहां विचारवान राजनीति का अवसान होता है।
सेकुलर लबादा ओढ़ भीड़ को गुमराह करने की राजनीति आज कांग्रेस को संभवत: उस भूलभुलैया में ले गई है जहां से निकलने का रास्ता वंश की बंसी बजाने से खुलता नहीं और संकरा होता जाता है। भगवान भला करे, अब यह तो पार्टी को खुद ही सोचना होगा कि जिसे नेमत मान बैठै कहीं वही मुसीबत तो नहीं।
2. सीधी बात, सच्चे लोग
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ क्या करता है यह जाने बगैर कुछ लोगों की बेचैनी यह बताने को लेकर ज्यादा रहती है कि शायद वहां यह कहा-करा जा रहा है। यह संभवत कुछ ऐसी मूर्खता है जहां पुस्तक के रंग और वजन के आधार पर कुछ ह्यसमझदारह्ण लोग उसकी समीक्षा करने लगें कि देखिए, हम बताए देते हैं पन्नों पर क्या लिखा है और उसका क्या मतलब होना चाहिए।
बेंगलूरू में 7-8 और 9 मार्च को आयोजित संघ की प्रतिनिधि सभा बैठक के समापन सत्र में सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने जो कुछ कहा उसका स्वर और शब्द स्पष्ट थे। संपूर्ण कथन के सार में वही शाश्वत भाव था जो कि संघ की पहचान है-ह्यराष्ट्र सर्वोपरिह्ण। ह्यहम राजनीति में नहीं हैं, हमें लक्ष्य के लिए काम करना है।ह्ण यह बात स्वयंसेवकों को सहज समझ में आती है। मगर इस वाक्य की वैचारिक गहराइयों का मोती, संघसृष्टि को संदेह से देखने वाली सतही सोच के भी हाथ लग जाए ऐसा जरूरी नहीं।
व्यक्ति की बजाय राष्ट्र और मानवता का चिंतन यही संघ कार्य का सूत्र वाक्य है और इसी ध्येय के लिए समर्पित-संकल्पित जनचेतना का निर्माण संघ 1925 से कर रहा है।
सांस्कृतिक चेतना के सूत्र में गुंथे राष्ट्र निर्माण की साधना निरंतर चलने वाली है। लोकतंत्र के महापर्व में मतदान इस यात्रा का छोटा पड़ाव भी है और अल्पकालिक कर्तव्य भी। इस कर्तव्य को पूरा कर लोग फिर से अपने काम में लग जाएंगे, यह कितनी सरल सी बात है। लेकिन सच्चे लोगों की सीधी सी बात संभवत: सबकी समझ में नहीं आती।
सो, साफ सी बात दिल्ली तक आते-आते फांस बताई जाने लगी तो इसमें क्या हैरानी! वैसे, राष्ट्रीय महत्व की हर बात को सिर्फ राजधानी के सत्ता गलियारों से जोड़कर देखने वाले चुनावी राजनीति के आगे सोच भी क्या सकते हैं?
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राष्ट्रीय प्रतिनिधि सभा में सरसंघचालक श्री मोहन राव भागवत को व्यक्ति विशेष के विरुद्ध प्रचारित और परिभाषित करने वाले टीकाकार यदि राजनीति के परे राष्ट्र का व्याप नहीं समझ पाते तो यह सत्ता की नजदीकी से उपजा निकट दृष्टि दोष ही है। राष्ट्र जीवन के विविध क्षेत्रों में निष्काम भाव से आहुतियां देते लोगों का काम जिन्हें नहीं दिखता उन्हें यह बात भला कैसे समझ आए कि राष्ट्र का मतलब सिर्फ राजनीति नहीं है। राजनीति का मतलब सिर्फ सत्ता नहीं है और राजकाज का ढंग बदलने की बात उस सोच में परिवर्तन से जुड़ी है जो किसी देश की दिशा तय करती है। अधिकतम मतदान सुनिश्चित करने का आह्वान, समाज जागरण की हर आहट, मतदान जरूर करने की हर खटखटाहट उन्हें डराती है जिनके लिए राजनीति समाज को बांटते हुए सत्ता की मलाई चखने का धंधा है। भारत को खोखला करते रहे भ्रष्टाचारी बौखलाहट में जनता को भ्रमित करना चाहते हैं, लेकिन देशहित के लिए जाग्रत लोग उस अभियान पर हैं जो लोकतंत्र की रक्षा के लिए जरूरी है, इस देश के लिए जरूरी है।
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