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गूगल में मुख्य कारोबारी अधिकारी के रूप कार्यरत निकेश अरोड़ा उन भारतीयों में से एक हैं,जिन्होंने अपनी प्रतिभा और हुनर से दुनिया में एक अलग स्थान बना लिया है। निकेश ने गूगल के कारोबार को बढ़ाने के लिए दिन-रात एक कर दिया है। इसी का परिणाम है कि आज गूगल की पहचान और पहुंच पूरे विश्व में है। इसका सुफल आज निकेश को मिल रहा है। गूगल के प्रबंधन ने निर्णय लिया है कि वित्तीय वर्ष 2013-14 में बेहतरीन कार्य करने के लिए निकेश अरोड़ा को 35 लाख डॉलर का बोनस दिया जाएगा। गूगल ने यह जानकारी अमरीकी प्रतिभूति और विनिमय आयोग को दी है। वाराणसी से भारतीय प्रबंधन संस्थान से स्नातक करने वाले निकेश अरोड़ा कई वर्षों से गूगल में कार्यरत हैं। वित्तीय वर्ष 2012-13 में उन्हें 28 लाख डॉलर का बोनस दिया गया था। एक रोचक तथ्य यह भी है कि गूगल के मुख्य कार्यकारी अधिकारी लैरी पेज और सह संस्थापक सर्गेइ ब्रिन ने बोनस नहीं लेने का फैसला किया है। यह भी एक सत्य है कि ये दोनों साल में सिर्फ एक-एक डॉलर वेतन लेते हैं।
देवयानी पर अमरीकी न्यायालय नरम
अमरीका में तैनात भारतीय राजनयिक देवयानी खोबरागड़े को एक अमरीकी न्यायालय ने बड़ी राहत दी है। उल्लेखनीय है कि अमरीका में देवयानी खोबरागडे़ पर वीजा धोखाधड़ी और अपनी नौकरानी को कम वेतन देने का मामला चल रहा है। न्यायालय ने देवयानी खोबरागड़े के विरुद्ध नकली वीजा से जुड़े सभी आरोप खारिज कर दिए हैं। अपने 14 पृष्ठों के आदेश में मैनहटन के न्यायालय ने कहा कि जिस समय देवयानी पर वीजा धोखाधड़ी और अपनी नौकरानी के वेतन को लेकर अभियोग तय किया गया था, उस समय उन्हें राजनयिक संरक्षण प्राप्त था। न्यायालय के इस निर्णय पर देवयानी के वकील ने खुशी व्यक्त की है। इस मामले पर देवयानी खोबरागडे़ ने भी प्रसन्नता व्यक्त की है और कहा है कि कानून का पालन हुआ है। हालांकि देवयानी के वकील ने यह भी कहा है कि तकनीकी दृष्टि से यह मामला खत्म नहीं हुआ है और फिर से यह मामला शुरू हो सकता है। यदि ऐसा हुआ तो वह गैर-जरूरी होगा। उल्लेखनीय है कि इसी मामले पर देवयानी को न्यूयार्क में 12 दिसंबर, 2013 को गिरफ्तार किया गया था। इस कारण भारत और अमरीका के बीच तनातनी भी हो गई थी। भारत ने दिल्ली में तैनात कई अमरीकी अधिकारियों की सुविधाएं वापस ले ली थीं। अब उम्मीद यही की जानी चाहिए कि देवयानी को न्यायालय से न्याय मिलेगा और इस मामले का पटाक्षेप हो जाएगा।
झुकने लगी है दुनिया सिखों के सामने
आज दुनिया के अनेक देशों में सिख रहते हैं और ये सिख जहां भी रहते हैं वहां अपनी प्रतिभा का परिचय देकर वहां के लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचते हैं। चाहे दुनिया के किसी भी कोने में सिख रह रहे हैं वे अपनी धार्मिक मान्यताओं को भी बहुत ही अच्छी तरह सहेजते हैं। किसी देश का कानून यदि सिखों को अपने पास धार्मिक चिह्नों को रखने से रोकता है तो ये लोग उसके लिए भी संघर्ष करते हैं। अमरीका, कनाडा, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया आदि देशों में सिख काफी समय से यह मांग कर रहे हैं कि उन्हें सरकारी दफ्तरों में काम करते समय भी धार्मिक चिह्नों को रखने की इजाजत दी जाए। उनकी इसी मांग का परिणाम है कि अभी कुछ दिन पहले ही सिखों को कनाडा ने दफ्तरों में कार्य करते समय भी पगड़ी पहनने की अनुमति दी है। अब अमरीका में भी सिखों की इस मांग पर लचीला रुख दिखने लगा है। पिछले दिनों 105 अमरीकी सांसदों ने अमरीका के रक्षा मंत्री चक हेगल को एक पत्र लिखकर कहा है कि प्रथम विश्व युद्ध के बाद से ही सिख अमरीकी सेना का अभिन्न अंग रहे हैं। सिख सैनिकों की उपलब्धि और उनकी क्षमताओं को देखते हुए उन्हें अपने मत का पालन करने की अनुमति दी जानी चाहिए। अमरीकी कांग्रेस के सदस्य और डेमोक्रेटिक कॉकस के उपाध्यक्ष जोसेफ क्राउले और हाउस डिफेंस एप्रोप्रिएशंस सब कमेटी के अध्यक्ष रोडनी फ्रेलिंगहुईसेन की अगुवाई वाली अमरीकी प्रतिनिधि सभा के सांसदों ने ह्यअमरीकन आर्म्ड फोर्सेज यूनिफर्म एक्टह्ण में बदलाव करने की मांग भी की है। यह मांग उन्होंने इसलिए की है, ताकि अमरीकी सिख सैनिक अपने पंथ का पालन करते हुए सेना में काम कर सकें और उसके प्रति अपने कर्तव्यों का पालन कर सकें। उल्लेखनीय है कि कुछ वर्ष पहले पाकिस्तानी सेना में पहली बार एक सिख युवक की भर्ती की गई थी। उस युवक को अपने धार्मिक चिह्नों को धारण करने की छूट दी गई थी। उसके बाद लगभग दो वर्ष पहले ब्रिटेन में 25 वर्षीय सिख सैनिक जतिन्दरपाल सिंह भुल्लर को महारानी एलिजाबेथ की सुरक्षा में तैनात किया गया था। ब्रिटेन के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ था जब किसी सिख सैनिक को पारम्परिक टोपी की जगह पगड़ी के साथ महारानी की सुरक्षा करने की छूट दी गई थी। 2009 में दो सिख सैनिकों ने पहली बार ब्रिटिश सेना के मार्च मे हिस्सा लिया था।
ल्ल प्रस्तुति : अरुण कुमार सिंह
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