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चुनाव पूर्व घोषणाओं पर प्रतिबंध लगे

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Feb 22, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 22 Feb 2014 15:35:29

-लक्ष्मीप्रसाद जायसवाल-

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 6 फरवरी, 2014 को दिये गये अपने निर्णय में सरकारी वादा खिलाफी को अनैतिक माना गया है। केरल सरकार के विरुद्घ दायर कम्पनियों की याचिका पर सुनवाई करते हुए माननीय न्यायालय की खंडपीठ ने राजनीतिक दलों को सचेत किया है कि चुनावी घोषणा पत्र में वादा करते समय यह ध्यान में रखा जाए कि वह पूरा करने योग्य है भी की नहीं तथा पूरा करने की क्षमता का यर्थाथ आकलन व सम्भावनाओं पर विचार करके वायदे किए जाएं। यह चिंता का विषय भी है कि न्यायालय को विधायिका तथा कार्यपालिका का कार्य संपन्न करना पड़ रहा है। यद्यपि भविष्य के लिए यह शुभ संकेत नहीं है परंतु वर्तमान में आशा केवल न्यायालय से ही है।
यह निर्णय अत्यंत स्वागत योग्य है। चुनावी घोषणा पत्र में मतदाताओं को सब्जबाग दिखा कर मत बटोरने का अनैतिक प्रयास होता है। घोषणा पत्र में लोक-लुभावन वायदों को शामिल करने तथा चुनाव पश्चात उन घोषणाओं को ठंडे बस्ते में डाल देना, यह सीधे-सीधे धोखाधड़ी और बेइमानी की श्रेणी में आता है। जो भी राजनीतिक दल इन हथकंडो के सहारे चुनाव जीतकर सरकार बनाते हैं उन्हें उचित समय सीमा के भीतर घोषणा पत्र में किए गये वायदों, नीतियों तथा कार्यक्रमों को लागू न करने पर उस दल के खिलाफ धोखाधड़ी, बेईमानी के तहत अभियोग लगना चाहिए। वास्तव में इस प्रकार की धोखाधड़ी को राजनीतिक भ्रष्टाचार की श्रेणी में रखा जाना चाहिए और इसके लिए सजा का प्रावधान तय किया जाना चाहिए तथा सरकार बर्खास्त करने तक का प्रावधान होना चाहिए। चुनाव आयोग ने भी इस सम्बन्ध में सभी दलों को पत्र लिखा है यानी कि चुनाव आयोग भी इस विषय पर चिन्तन कर रहा है।
देश को स्वतंत्र हुए 65 वर्ष हो गये। इतने वर्षों में जनता को बुनियादी सुविधाएं जैसे पानी, बिजली,सड़क, रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और रोजगार की गारंटी नही मिल पाई है, जबकि हर चुनाव में सभी राजनीतिक दल इनकी घोषणा करते हैं और आश्वासन भी देते हैं। यदि घोषणाओं पर अमल करने की वाध्यता होती तो 65 वर्षों बाद किसी भी घर में अंधेरा नहीं होता और पानी के लिए तरसना नहीं पड़ता। आंकड़ों पर नजर डालें तो वर्ष 2010-12 में केवल 2़2 प्रतिशत रोजगार में वृद्घि हुई। 100 दिनों में महंगाई कम करने के वायदे पर चुनी गई केन्द्र की मनमोहन सरकार निर्लज्जता पूर्वक कहती है कि वह कोई जादू की छड़ी नहीं लिए हुए है, जिसके सहारे महंगाई को कम किया जाए। ऐसे न जाने कितने वायदे कांग्रेस नेतृत्व वाली संप्रग सरकार ने वर्ष 2004 और 2009 के बीच में किए थे, जिसकी समीक्षा करने का वक्त आ गया है । सर्वोच्च न्यायालय से भी बड़ी जन अदालत में सभी घोषणाओं की समीक्षा तो होनी ही चाहिए। अभी-अभी दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की नेतृत्ववाली आम आदमी पार्टी ने ऐसे ही लोक-लुभावन और कभी पूरे न होने वाले वायदों के सहारे सत्ता पा ली। अपने चुनावी घोषणा पत्र को लागू करने और दिल्ली की जनता से किए गये वायदों को पूरा करने के बजाए वह सड़कों पर धरना दे रही है। सरकार व मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी क्या है, कर्तव्य क्या है, संवैधानिक मर्यदाएं क्या हैं, इसको भूलकर वह अराजकता की स्थिति निर्माण करने में लगी है। इस सरकार की जवाब देही कौन तय करेगा?
घोषणापत्र में वायदे करने और सरकार बनाने के पश्चात विस्मरण कर देना यह एक स्थिति है। इससे भिन्न स्थिति यह भी है कि चुनाव जीतने के पश्चात अनैतिक तथा अनावश्यक चुनावी घोषणाओं को पूरा करने के प्रयास के परिणामस्वरूप समाज में कटुता एवं द्वेष भावना उत्पन्न होती है। सरकारी तंत्र पर अनावश्यक वित्तीय बोझ पड़ता है, जिसकी भरपाई आवश्यक खर्चों में कटौती या जनहित के कार्यों को रोक कर करना पड़ता है। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश की सरकार छात्रों को लैपटॉप बांट रही है। अपने वोट की फसल उगाने के लिए उसको सरकारी कोष को लुटाने में कोई गुरेज नही होता। विद्यालयों में शौचालय नहीं हैं, पीने के लिए पानी नहीं है, शिक्षक नहीं हैं, भवन जर्जर हो रहे हैं, बच्चे कुपोषण का शिकार हो रहे हैं, परंतु लैपटॉप अवश्य बांटना चाहिए क्योंकि यह वोट की फसल उगाने में खाद का काम करती है। केन्द्र में कांग्रेस की तथाकथित पंथनिरपेक्ष सरकार ने मुस्लिमों के लिए 2498 पृथक बैंक की शाखा खोलीं जिसके तहत उन्हें 143396 करोड़ रुपए का ऋण तथा 587088 मुस्लिम महिलाओं को 3984 करोड़ रु. ऋण दिया है। मुस्लिम छात्रों को 6 प्रतिशत ब्याज दर पर शिक्षा ऋण दिया है तथा 1290000 मुस्लिम छात्रों को छात्रवृत्ति दी है लेकिन यहां प्रश्न इस बात का है कि हिन्दू समाज के निर्धन वर्ग ने क्या पाप किया है कि उसे यह सुविधा नहीं मिलती है? ऐसे ही नीतियों के कारण सामाजिक सौहार्द विगड़ता है।
दूसरी स्थिति है, जिन दलों के चुनाव की दौड़ में कहीं कोई स्थान नही होता है, वे अधिक दिवास्वप्न मतदाताओं को दिखाते हैं क्योकि वे जानते हैं कि चुनाव में जीतना तो है नहीं तो वचन में दरिद्रता क्यों दिखाना? एक दल को देखकर दूसरा दल उससे आगे बढ़कर और ज्यादा वायदें करता है।
हाल ही मैं समाचार पत्र में पढ़ रहा था कि उत्तराखंड सरकार के नये मुख्यमंत्री ने मात्र एक सप्ताह में 760 विकास कार्यों का शिलान्यास व लोकार्पण कर दिया है, जिन पर1810 करोड़ रु. का अनुमानित व्यय होने वाला है। ध्यान देने योग्य बात है कि चुनावपूर्व केवल लोकार्पण, शिलान्यास तथा नाम पट्टिका मात्र लगाने पर ही सरकार का करोड़ों रुपया खर्च हो जाता है, जो जनता के पैसे की खुली लूट है। इस पर प्रतिबंध कैसे लगे यह विचारणीय प्रश्न है। कई बार तो देखने में आता है कि सरकार चलाने वाले राजनीतिक दल 10-20 वर्ष आगे तक की घोषणाएं भी कर डालते हैं। यह जरूरी है कि ऐसे हवाई घोषणाओं पर प्रतिबंध लगाने वाले कानून बनें, घोषणा करने वाले की जवाबदेही तय हो । लोकपाल के तर्ज पर कोई नियामक एजेंसी निर्धारित की जाए, जो राजनीतिक दलों द्वारा की जाने वाली चुनाव पूर्व घोषणाओं की समीक्षा करे और उसकी वैधता का निर्धारण भी तथा उस दल की सरकार बनने पर उसके कार्यकाल में घोषणाओं का कितना क्रियान्वयन हुआ उसका लेखा-जोखा भी तैयार करे तथा जो भी राजनीतिक दल इनको पूरा न करे उसके लिए दण्ड का भी प्रावधान तय होने चाहिए।

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