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हिन्दी साधना में रत किसी हिन्दी सेवी का विदा हो जाना हिन्दी जगत को पीड़ा पहुंचाता ही है। ऐसी ही पीड़ा कथाकार अमरकान्त के जाने से हो रही है। उनका असली नाम श्रीराम वर्मा था। अमरकान्त गत 16 फरवरी को अपनी कलम को विराम देते हुए, अपनी ऐहिक लीला पूरी कर हमारे बीच से चले गए। 1 जुलाई, 1925 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के ग्राम भगमलपुर (नगरा) में जन्मे अमरकान्त ने समाज का, विशेष रूप से ग्रामीण समाज, निम्न मध्यवर्ग की समस्याओं, उसकी आकांक्षाओं, उसके अंतर्विरोधों और, यदि कहना चाहें, तो उसकी शक्तियों का भी काफी नज़दीक से सूक्ष्म निरीक्षण किया था। अमरकान्त की सर्वाधिक प्रसिद्ध और लोकप्रिय कहानियों में से एक ह्यदोपहर का भोजनह्ण केवल एक मध्यवर्गीय परिवार, जिसका मुखिया बेरोज़गार है, की दयनीयता और बेचारगी की कहानी नहीं है,अपितु स्त्री विमर्श के इस दौर में, जहां केवल नारी की आर्थिक स्वायत्तता और निर्णय लेने की स्वतन्त्रता को ही नारी सशक्तीकरण की कसौटी मान लिया जाता है, ऐसे में ह्यदोपहर का भोजनह्ण कहानी और भी प्रासंगिक हो उठती है। यह कहानी नारी की वास्तविक शक्ति को उद्घाटित करती है, जहां वह परिवार के सभी सदस्यों के बीच एक सूत्र रूप में रहते हुए पूरे परिवार को संभाले रहती है। परिवार के सदस्यों के बीच एक-दूसरे के लिए सद्भाव पैदा करने का जो कार्य सिद्धेश्वरी बड़े ही सहज रूप में करती चलती है, उसे पकड़कर आज के समाज की कई समस्याओं से निपटने का काम हम उसी सहजता के साथ करने की प्रेरणा ले सकते हैं।
मूलत: कहानीकार के रूप में प्रसिद्धि व लोकप्रियता अर्जित करने वाले अमरकान्त ने 'इन्हीं हथियारों से'(2003), 'ग्राम सेविका' (2008), 'बीच की दीवार' (1981) जैसे प्रमुख व उल्लेखनीय उपन्यासों सहित कुल ग्यारह उपन्यासों की भी रचना की। इनके अलावा अपने रचना संसार को व्यापकता प्रदान करते हुए उन्होंने स्तरीय बाल साहित्य की भी रचना की जिसमें 'वानर सेना' , 'सच्चा दोस्त' , 'बाबू का फैसला' , 'दो हिम्मती बच्चे' विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
अमरकान्त का नाम आते ही उनकी कहानियां 'दोपहर का भोजन', 'डिप्टी कलक्टरी', 'जिन्दगी और जोंक', 'बहादुर' तथा 'हत्यारे' का स्मरण सहज ही हो आना स्वाभाविक है। उनकी अन्य उल्लेखनीय कहानियों में 'इन्टरव्यू' , 'केले, पैसे और मूंगफली' , 'नौकर' , 'म्यान की दो तलवारें' , 'लड़की की शादी' , 'आबरू' , 'बढ़ते पौधे' , 'मुक्ति' , 'मौत का नगर' विशेष रूप से उल्लेखनीय कहानियां हैं, जो मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग के बहुआयामी स्वरूप को पूरी निर्ममता के साथ हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं। 'जिन्दगी और जांेक' अदम्य जिजीविषा की कहानी है, जिसका अंत पाठक को झकझोर कर रख देता है।
अमरकान्त ने अपने समकालीन कथाकारों की अपेक्षा बाद में कहानी लिखना प्रारंभ किया। वैसे तो 1949 में उनकी 'बाबू' शीर्षक कहानी आगरा से निकलने वाले पत्र 'सैनिकह्ण में प्रकाशित हो चुकी थी, किंतु स्वयं अमरकांत ह्यएक सजग सचेत लेखक के साहित्यिक प्रयासह्ण के रूप में अपनी कथा-यात्रा का प्रारंभ अपनी ह्यइन्टरव्यूह्ण कहानी से मानते हैं, जो 1953 में ह्यकल्पनाह्ण में प्रकाशित हुई थी। यह वही समय था जब हिन्दी कहानी एक नई दहलीज पर खड़ी थी। राष्ट्रीय आंदोलन के साथ जुड़ते हुए उन्होंने आम जनता की कठिनाइयों और उसकी संघर्षपूर्ण स्थितियों को समझा। आज़ादी के बाद के सामान्यजन की पीड़ा ने उनके संवेदनशील मन को किस तरह से झकझोर दिया और उन्हें लेखन कार्य की ओर प्रवृत्त किया, इसे उन्हीें के शब्दों में अच्छे से समझा जा सकता है – 'मैं कहानियां लिखने लगा और मीटिंगों में सुनाने लगा। यह मेरे जीवन कर उद्देश्य बन गया। मेरे लिए यही एकमात्र रास्ता बचा था, जिस पर चलकर मैं अपने देश के लोगों के सुख-दुख में शामिल हो सकता था। उनके संघषोंर् में उनका साथ दे सकता था।़.़.़.़.़लेखन के माध्यम से साधारण लोगों से जुड़ने का अर्थ मनुष्यता से जुड़ना है, मनुष्यता से प्यार करना है और उन सभी बातों का विरोेध करना है, जो मनुष्य को मनुष्य से अलग करती हैं, उनको मनुष्यता से गिराती हैं।' कहा जा सकता है कि अमरकान्त एक मानवतावादी साहित्यकार थे।
रामधारी सिंह दिनकर ने अपने महाकाव्य कुरूक्षेत्र में लिखा है – 'जिसने श्रमजल दिया उसे/ पीछे मत रह जाने दो। /विजित प्रकृति से सबसे पहले / उसको सुख पाने दो।' अमरकांत जीवन भर अपने साहित्य के माध्यम से उसी सुख की खोज करते रहे और लोगों को वही सुख प्राप्त हो सके, इसी विचार को केन्द्र में रखते हुए साहित्य साधना करते रहे। -जितेन्द्र वीर
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