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धर्ममित्र गुप्ता (85) उन सैंकड़ों बजुगार्ें में से एक हैं जो लगातार 67 साल तक एक के बाद एक मायूसी झेलने के बाद आज भी उम्मीद लगाए बैठे हैं कि कोई चमत्कार होगा और उनका बिछुड़ा हुआ वतन उन्हें एक बार फिर से अपने आगोश में उसी तरह भर लेगा जैसे कोई मां अपने बिछुड़े हुए बच्चे को अपने सीने से चिपका लेती है। धर्ममित्र जी के जीवन की कहानी का एक रोमांच भरा पहलू यह है कि वह अपने जीवन में तीन बार अपने ही देश में शरणार्थी बनने पर मजबूर हो चुके हैं। लेकिन उन जैसे हजारों हमवतनों की तरह उनके अपने राज्य जम्मू कश्मीर की सियासत ने उनके साथ ऐसा खेल खेला है जिसकी भारत जैसे आजाद देश में कल्पना भी नहीं की जा सकती। उनसे और उनकी आगे वाली तीन पीढि़यों से न केवल अपने राज्य में लौटकर आम नागरिकों की तरह रहने का अधिकार छीना जा चुका है बल्कि राज्य और केंद्र की सरकारें उनके माथे पर 'शरणार्थी' का लेबल लगाने का एहसान करने को भी तैयार नहीं हैं।
अखबार न पढ़ सकने और टीवी पर होने वाली बहसों को समझ पाने की कठिनाइयों के बावजूद दिल्ली के पश्चिम विहार के अपने फ्लैट से वह अपने वतन जम्मू कश्मीर में होने वाले चुनावों पर पूरा ध्यान दिए हुए हैं। अपने राज्य की सरकार की बेपरवाही और अंतहीन उपेक्षा से उपजी गहरी हताशा के बावजूद उनके मन में यह उम्मीद अंकुरित होने लगी है कि शायद इस बार वहां की राजनीति में ऐसा परिवर्तन आए जो अपने वतन से दर ब दर किए गए उन जैसे लाखों कश्मीरियों की जिंदगी को बदल देगा।
अगले कुछ दिनों में जम्मू कश्मीर की जनता अपने राज्य की विधानसभा की 111 सीटों में से 87 सीटों के लिए वोट डालने जा रही है। इनमें से 47 विधायक कश्मीर घाटी से चुने जाएंगे, 37 जम्मू क्षेत्र से और 4 लद्दाख से। बाकी 24 सीटें हर बार की तरह इस बार भी खाली छोड़ दी जाएंगी क्योंकि ये पाकिस्तान के गैरकानूनी कब्जे में फंसे उस इलाके की सीटें हैं जिन्हें भारत 'पाक अधिकृत कश्मीर' (पीओके) कहता है और पाकिस्तान 'आज़ाद कश्मीर' कहता है। इसी इलाके में धर्ममित्र जी का पुश्तैनी शहर मीरपुर भी है, और मुजफ्फराबाद, भिंबर, कोटली और देव बटाला जैसे इलाकों के अलावा गिलगित और बाल्टिस्तान भी हैं जो अविभाजित जम्मू-कश्मीर का हिस्सा थे। 1987 में राज्य के संविधान में बीसवां संशोधन करते हुए जब इन 24 खाली सीटों का प्रावधान रखा गया था तब देश को आश्वासन दिया गया था कि जब पीओके को पाकिस्तानी कब्जे से मुक्त कराया जाएगा तब विधानसभा की इन सीटों को भरा जाएगा। लेकिन देश की जनता को ऐसे आश्वासन देने वाले भाग्य विधाताओं ने इन इलाकों से आए भारतीय नागरिकों के मूलभूत अधिकारों पर ध्यान देने की जहमत भी नहीं उठाई।
धर्ममित्र जी और उनके साथी शरणार्थियों के मन में आज भी 25 नवंबर की उस रात की दहशत जिंदा है जब पाकिस्तानी सेना ने अपने सहयोगी कबायलियों के साथ मिलकर मीरपुर पर हमला किया था और इन लोगों को अपने घर से भागकर जम्मू में शरण लेनी पड़ी थी। नवंबर के आखिरी हफ्ते में पाकिस्तानी सेना के इस हमले ने मुजफ्फराबाद से लेकर मीरपुर और कोटली तक के इलाके में 50 हजार से ज्यादा हिंदुओं और सिखों की जान ले ली थी। इस हत्याकांड को भारत विभाजन के दौर में हुए सबसे भयंकर हादसों में गिना जाता है।
मुझे यह देखकर बहुत दुख होता है कि लोकतंत्र, मानवाधिकारों और अल्पसंख्कों के हितों का दम भरने वाली भारतीय सरकारों, राजनेताओं और बुद्घिजीवियों ने कभी यह बात समझने की कोशिश नहीं की कि जम्मू कश्मीर से भगाए गये 'पीओके' शरणार्थी समाज के मानवाधिकार छीने गए हैं। यह समाज कश्मीर विवाद के मामले में भारत की सबसे मूल्यवान पूंजी है। इस समाज पर हुए पाकिस्तानी अत्याचारों को दुनिया के सामने रखकर भारत सरकार पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीरी हिस्से पर अपना पक्ष मजबूत कर सकती है और जम्मू-कश्मीर विधानसभा में इस समाज के पुश्तैनी इलाके के नाम पर खाली रखी जाने वाली 24 सीटों पर इसके प्रतिनिधियों को बिठाकर राज्य पर कुंडली मार कर बैठे कश्मीर घाटी के अनैतिक और अलोकतांत्रिक प्रभुत्व पर नकेल लगाई जा सकती है। —धर्ममित्र गुप्ता |
विभाजन का सबसे भयंकर हत्याकांड
लेकिन इस कांड का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह था कि पाकिस्तान का यह हमला अक्तूबर 1947 में जम्मू-कश्मीर रियासत के भारत में विलय के एक महीने बाद हुआ। और शर्मनाक बात यह रही कि विलय के बाद पूरा महीना बीतने के बावजूद रियासत के 'प्रधानमंत्री' शेख अब्दुल्ला और देश के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने भारत के इस हिस्से पर नियंत्रण जमाने के लिए न तो वहां पुलिस भेजी और न सेना। 25 नवंबर की रात जब पाकिस्तानी सेना और कबायलियों ने मीरपुर पर हमला किया उस समय वहां आसपास के कस्बों और गांवों से आए 42 हजार हिंदू और सिख जमा थे जो निहत्थे थे और अपने ही बूते पर भारतीय झंडा बुलंद किए हुए थे। हमले के बाद इनमें से केवल 18 हजार लोग जीवित भारतीय नियंत्रण वाले इलाके में पहुंच पाए थे। धर्ममित्र जी और उनका परिवार जीवित बचे इन 'भाग्यशाली' लोगों में से था।
धर्ममित्र जी के जीवन का यह दूसरा देशनिकाला था। उनका और उनके परिवार का पहला देशनिकाला 1931 में हुआ जब वह एक साल के थे। तब पंजन में रहने वाले उनके पिता लाला मुकंद लाल महाजन 'पंजनीवाले' के घर, दवाखाने और दुकान को शेख अब्दुल्ला की मुस्लिम कांफ्रेंस के बलवाइयों ने लूटकर जला डाला था। बलवाई तो लालाजी और परिवार को भी जलाने को तैयार थे लेकिन उनके सौभाग्य से उनके प्रभावशाली मुस्लिम मित्र और हकीमी के उस्ताद हाफिज जी यात्रा करते हुए अचानक वहां आ पहुंचे। उन्होंने इस परिवार को बचाकर उन्हें निकटवर्ती हिंदू प्रभाव वाले शहर मीरपुर पहुंचाया। शेख अब्दुल्ला के इस्लामी शागिर्दों के लिए इस बात के कोई मायने नहीं थे कि लाला मुकंद लाल उस इलाके के इकलौते हकीम थे और वहां के लोकप्रिय किस्सागो थे। उनके लिए यह बात भी बेमानी थी कि लाला जी कुरान शरीफ के मशहूर उपदेशक थे जिनसे आसान मीरपुरी भाषा में कुरान के उपदेश सुनने के लिए दूर-दूर तक मुस्लिम गांवों में होड़ लगी रहती थी।
शेख अब्दुल्ला का असली चेहरा
उनके परिवार पर किया गया यह हमला रियासत के महाराजा हरिसिंह के खिलाफ युवा शेख अब्दुला के उस आंदोलन का हिस्सा था जिसके तहत उन्होंने रियासत के ग्रामीण इलाकों को 'काफिरों' से मुक्त कराने का अभियान चलाया था। शेख की शह पर चलाए गए इस भयंकर नरसंहार को इलाके से जुड़े परिवारों में आज भी 'अठासी ना शोरश' ('अठ्ठासी का कत्लेआम') के नाम से याद किया जाता है। सन् 1931 ई. को हिंदू विक्रमी संवत् के अनुसार '1988' गिना जाता है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से किसी कारण भगाए गए युवा शेख ने इस 'शोरश' का आयोजन राज्य में अपनी राजनीतिक जगह बनाने के लिए किया था। रियासत के हिंदू राजा के खिलाफ शेख ने यह अभियान ऐसे समय पर चलाया जब बाकी भारत अंग्रेज़ों से मुक्ति के लिए आज़ादी का आंदोलन चला रहा था। महाराजा हरिसिंह की लंदन गोलमेज कांफ्रेंस के दौरान अंग्रेज़ सरकार विरोधी भूमिका के लिए अंग्रेजी शासन उनसे पहले से ही चिढ़ा हुआ था। शेख के इस 'शोरश' ने उन्हें न केवल दूसरे स्थानीय मुस्लिम नेताओं के मुकाबले ऊंची जगह खड़ा कर दिया बल्कि उन्हें अंग्रेजी शासन का कृपापात्र बनाने में भी बहुत बड़ी भूमिका निभाई।
तीसरा देशनिकाला
लेकिन धर्ममित्र जी और उनके परिवार का तीसरा 'देशनिकाला' इस सबके मुकाबले कहीं ज्यादा दुखद और बदकिस्मती भरा रहा। पाकिस्तानी कब्जे वाले इलाकों से आए हिंदुओं और सिखों की विशाल संख्या से परेशान शेख और उनकी सरकार ने राज्य में ऐसे हालात पैदा कर दिए कि ये शरणार्थी राज्य छोड़ने पर मजबूर हो जाएं। मीरपुर पर हमले से दो दिन पहले पाकिस्तानी सेना ने मुजफ्फराबाद पर हमला किया था जिसमें मीरपुर से भी ज्यादा भयंकर कत्लेआम किया गया। मुजफ्फराबाद की जनता के लिए सबसे नजदीकी और सुरक्षित भारतीय शहर श्रीनगर था। लेकिन शेख के नेतृत्व वाले प्रशासन ने उन्हें श्रीनगर या कश्मीर घाटी में रुकने की इजाजत नहीं दी। शेख की दलील थी कि इनके वहां टिकने से घाटी की 'कश्मीरियत' कमजोर हो जाएगी। लिहाजा शेख सरकार ने मुजफ्फराबाद के शरणार्थियों को जबरन आगे जम्मू की ओर धकेल दिया।
आज राज्य में 67 साल के घटनाक्रम को अगर मुड़कर देखा जाए तो समझ में आता है कि राज्य में 'शेर-ए-कश्मीर' के नाम से मशहूर शेख अब्दुल्ला का एक-एक फैसला असल में दिल की गहराई तक बसी इस्लामी धर्मांधता और निजी राजनीतिक स्वाथार्ें से उपजा हुआ था। अक्तूबर 1947 में जम्मू-कश्मीर रियासत के भारत में विलय के तुरंत बाद पंडित नेहरू ने जिस तरह से महाराजा हरिसिंह को राज्य से निर्वासित होने पर मजबूर किया और शेख अब्दुल्ला को वहां का 'प्रधानमंत्री' नियुक्त करके उनकी राजनीतिक 'योग्यता' में आस्था व्यक्त की, उसके नतीजों को देखते हुए आज कहा जा सकता है कि शेख ने पंडित नेहरू के विश्वास को गहरा धोखा दिया।
शेख का असली खेल
शेख के प्रशासन ने जिस तरह राज्य की पुलिस और भारतीय सेना को मुजफ्फराबाद, मीरपुर और गिलगित-बाल्टिस्तान जाने से रोके रखा उसे देखते हुए आज समझ में आता है कि इन इलाकों को राज्य में बनाए रखने में उनकी कोई रुचि नहीं थी। विभाजन से पहले हुए चुनाव में आज वाले 'पीओके' इलाके से उनकी पार्टी के सभी उम्मीदवार हार गए थे। लिहाजा शेख को डर था कि अगर ये इलाके रियासत में बने रहे तो नए राज्य में उनकी राजनीतिक हस्ती बहुत बौनी होकर रह जाएगी। ऐसे में पंडित नेहरू के मन में शेख के प्रति इस अंधविश्वास की असली कीमत 'पीओके' की जनता और देश को चुकानी पड़ी। तीन महीने पहले देश में विभाजन की आग के बुझ चुकने के बावजूद नवंबर के आखिरी हफ्ते में पाकिस्तानी हमले में कई लाख हिंदू और सिख परिवार उजड़ गए, पचास हजार से ज्यादा लोगों की हत्या हो गई और पीओके तथा गिलगित-बाल्टिस्तान हमेशा के लिए पाकिस्तान के कब्जे में चले गए।
उधर जम्मू इलाके में भी ये शरणार्थी हमेशा के लिए न जम जाएं, इसे सुनिश्चित करने के लिए शेख सरकार ने न तो वहां खुद पूरी राहत भेजने की व्यवस्था की और न केंद्र सरकार से आने वाली सहायता पूरी तरह वहां पहुंचने दी। जम्मू इलाके में शरणार्थियों की इस बेतहाशा बाढ़ में जम्मू इलाके के हालात इतने खराब हो गए कि अधिकांश शरणार्थियों को मजबूर होकर पंजाब का रुख करना पड़ा। शांति व्यवस्था के नाम पर शेख के सरकारी तंत्र ने भी हजारों शरणार्थियों को ट्रकों में लाद कर लखनपुर की पंजाब-जम्मू सीमा के पार भेज दिया। रोजी रोटी और आसरे के लिए पंजाब और उत्तर प्रदेश के शहरों-कस्बों में धक्के ख़्ााने के बाद धर्ममित्र जी आखिरकार दिल्ली में आकर बस गए। शरणार्थियों में रहकर शरणार्थी शिविर के लिए चलाए गए एक संस्थान में उन्होंने ओवरसियर की ट्रेनिंग पायी और बाद में रेलवे की नौकरी से सेवानिवृत्त होने के बाद अब वह और उनकी पत्नी यह उम्मीद पाले हुए हैं कि किसी दिन उनके पोते-परपोतों को जम्मू कश्मीर की नागरिकता का अधिकार मिल पाएगा। भारत के दूर-दूर के शहरों और कस्बों में जा बसे उन जैसे लोगों की संख्या इस समय दस लाख से ज्यादा है।
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दोहरे मानदंड
ऐसी उम्मीदें उनके पिता लाला मुकंद लाल को भी 1984 में उनकी आखिरी सांस तक बनी रहीं। और तो और भारत की केंद्र सरकार भी पिछले 67 साल से 'पीओके' के इन परिवारों को राज्य से गए 'शरणार्थी' के तौर पर मान्यता देने को तैयार नहीं है। नतीजा यह है कि इतने साल बीतने के बाद भी इस समाज को 'पीओके' में छूट गई उनकी सम्पत्ति का वह मुआवजा भी नहीं दिया जो विभाजन के समय पश्चिमी पंजाब और पूर्वी बंगाल से आए भारतीय शरणार्थियों को दिया गया था। यहां तक कि जब पाकिस्तानी कब्जे वाले मीरपुर में मंगला बांध बनाते समय विश्वबैंक ने बांध की डूब में आए घरों और खेतों के लिए मीरपुरी शरणार्थियों को मुआवजा देने का प्रस्ताव रखा तब भारत सरकार ने इस समाज को यह राहत लेने से रोक दिया था। केंद्र सरकार की दलील थी कि अगर उसने इन लोगों को 'शरणार्थी' की मान्यता दे दी तो 'पीओके' पर भारत सरकार का दावा खत्म हो जाएगा।
उधर जम्मू कश्मीर सरकार भी 'पीओके' समाज को इस आधार पर 'शरणार्थी' मानने और उन्हें शरणार्थियों के अधिकार देने से लगातार मना करती आ रही है कि भारत सरकार के नक्शों में भी 'पीओके' को भारत का 'अभिन्न अंग' दिखाया जाता है इसलिए अपने ही घर के एक हिस्से से आकर दूसरे हिस्से में बसने वाले लोगों को भला 'शरणार्थी' कैसे मान लिया जाए? लेकिन इसी राज्य सरकार ने 1987 में राज्य के संविधान में 20वां संशोधन पारित किया जिसमें 1947 से मई 1954 के बीच भारतीय जम्मू कश्मीर से पाकिस्तान जाकर बस गए राज्य के नागरिकों को वापस आकर 'स्थायी नागरिकता' लेने का निमंत्रण और अधिकार दे दिए गए।
नकली 'बहुमत' का खतरनाक खेल
ऐसे और कई कानून भी हैं जो जम्मू कश्मीर विधानसभा ने पास किए लेकिन जिन्हें लोकतांत्रिक पैमाने पर सभ्य दुनिया में कहीं भी न तो वाजिब ठहराया जा सकता है न मानवीय। उदाहरण के लिए जम्मू कश्मीर विधानसभा ने एक और कानून पारित करके अपने यहां की महिलाओं पर गैर कश्मीरी पुरुषों के साथ शादी करने पर पाबंदी लगा दी।
अगर राज्य की नागरिक कोई महिला ऐसा करती है तो उसे राज्य सरकार की नौकरी, उच्च शिक्षा में दाखिले और यहां तक कि अपने पिता के परिवार की संपत्ति में हिस्से से भी बेदखल कर दिया जाएगा। परोक्ष रूप से इस कानून से राज्य के बाहर जाकर बसे 'पीओके' परिवारों की अधिकांश महिलाओं के संभावित नागरिक अधिकार पहले से ही खत्म हो जाएंगे। दुर्भाग्य से इस कानून को ऐसे राज्य की सरकार ने पारित किया जिसकी सरपरस्ती में बरसों से पाकिस्तानी आतंकवादियों को राज्य में लाकर बसाने, उनकी स्थानीय युवतियों से शादी कराने और उन्हें स्कूलों और मदरसों में नौकरियां देने का क्रम बेरोकटोक चलता आ रहा है।
यह मात्र संयोग नहीं है कि रियासत के जिन शरणार्थियों से उनकी पहचान और मूलभूत अधिकार छीने रखने के प्रयास पिछले 67 साल से श्रीनगर और केंद्र सरकार के स्तर पर चलते आ रहे हैं वे सब हिंदू और सिख हैं। यह भी मात्र संयोग नहीं है कि जिन लोगों को पाकिस्तान से बुलाकरं प्रश्रय देने, कानून पारित करके रियासत की नागरिकता देने और उनकी पुश्तैनी संपत्तियों पर कब्जा सौंपने को घाटी की सरकार उतावली है वे सभी मुसलमान हैं। इस तरह का खुल्लमखुल्ला और बेशर्मी भरा पक्षपात अगर भारत के इकलौते मुस्लिम बहुल राज्य में होता है तो यकीनन यह पूरे भारत में बसे मुस्लिम समाज की प्रामाणिकता पर चोट करता है और दिल्ली में बैठी सैकुलरवादी बिरादरी की ईमानदारी पर सवाल खड़े करता है।
'खाली' सीटों का षड्यंत्र
धर्ममित्र जी के 'पीओके' समाज का दर्द यह है कि राज्य की सरकार इस तरह के भारत विरोधी और लोकतंत्र विरोधी कानून केवल इसलिए मनमर्जी से पारित कर पाती है क्योंकि इस समाज के हिस्से की 24 विधानसभा सीटों को खाली रखकर विधानसभा क्षेत्रों में कश्मीर घाटी के लिए स्थायी रूप से एक नकली और षड्यंत्रकारी बहुमत पैदा किया जा चुका है। यहां यह जानना महत्वपूर्ण होगा कि कश्मीर घाटी का पूरे राज्य के भूगोल में केवल 9 प्रतिशत हिस्सा है लेकिन विधानसभा क्षेत्रों में उसका प्रतिनिधित्व 53 प्रतिशत है। कोढ़ पर खाज यह है कि जिस इलाके के नाम पर ये सीटें खाली रखी जा रही हैं वहां से आए शरणार्थियों को राज्य की विधानसभा में तो क्या, वहां की पंचायतों, नगर निकायों और सहकारी संस्थाओं के चुनावों में भाग लेने का भी अधिकार नहीं है। केवल इतना ही नहीं राज्य में धारा 370 के कारण इस समाज के युवाओं को जम्मू कश्मीर की शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश लेने, वहां नौकरी पाने और अपना व्यापार करने के भी अधिकार नहीं दिए गए। कारण यह कि इन शरणार्थियों और उनके परिवार के सदस्यों को जम्मू कश्मीर 'राज्य विषय' की मान्यता देने को तैयार नहीं है।
नयी उम्मीदें
लेकिन इस सबका यह अर्थ नहीं है कि भारत भर में फैले इस शरणार्थी समाज ने अपनी सांस्कृतिक पहचान खो दी है। मीरपुर, मुजफ्फराबाद, कोटली और भिम्बर आदि से आए समाजों की छोटी-छोटी बिरादरियां देश भर में सक्रिय हैं। समय-समय पर अपने अधिकारों की आवाज़ उठाने के साथ-साथ ये बिरादरियां हर साल नवंबर और वैसाखी के मौके पर 1947 में अपने समाज के शहीदों के लिए प्रार्थना सभाएं आयोजित करती हैं।
पिछले कुछ साल से ये बिरादरियां मिलजुलकर अपना एक साझा मंच तैयार करने में जुटी हैं। इस समाज में यह मांग अब जोर पकड़ रही है कि केंद्र सरकार जम्मू और भारत भर में बसे 'पीओके ' परिवारों का एक राष्ट्रीय रजिस्टर तैयार करे। ऐसे राष्ट्रीय दस्तावेज़ से जहां इस समाज और उनके मूल राज्य के बीच रिश्तों को एक आधिकारिक रूप देने का आधार तैयार होगा वहीं 'पीओके' पर भारत सरकार की अंतर्राष्ट्रीय और कानूनी स्थिति भी मजबूत होगी। इस बार के चुनावों में बदली हुई बयार को देखते हुए धर्ममित्र जी और उनके समाज के मन में नई आशाएं जग रही हैं। उन्हें आशा है कि जम्मू कश्मीर की राजनीति और शासन व्यवस्था में एक ऐसा परिवर्तन होने जा रहा है जो इस राज्य में लोकतंत्र को ईमानदारी से बहाल करेगा और उनकी बाद वाली पीढि़यों को वह न्याय और अधिकार देगा जो उनकी पीढ़ी से 67 साल पहले छीन लिए गए थे।
धर्ममित्र जी के पोते-परपोते उनसे प्यार तो करते हैं लेकिन दिल्ली में उनके घर से 600 किमी दूर बसी उनकी सपनों की दुनिया के बारे में उनके पास ऐसा कोई अनुभव और यादें नहीं हैं जो उन्हें अपने परदादा के इस नए उत्साह और उम्मीदों के साथ जुड़ने में मदद करे। और मेरी पीढ़ी का धर्मसंकट यह है कि मुझे एक ऐसे हालात से तालमेल बिठाना है जिसमें मेरे एक ओर तो अपने पिता धर्ममित्र के सपनों की दुनिया है और दूसरी ओर मेरे बच्चों और पोतों की संशय भरी उदासीनता है जिसमें उनकी रियासती पहचान कभी की खो चुकी है। – विजय क्रान्ति
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