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आनन्द मिश्र अभ¹f
मन्त्र-शक्ति के विषय में प्राय: सभी लोग जानते हैं। मन्त्र गोपनीय होता है। इसीलिए सरकार के मन्त्रियों को पद एवम् गोपनीयता की शपथ दिलायी जाती है। धर्मग्रन्थों में अनेक प्रकार के मन्त्र तथा उनको सिद्घ करने की विधियां उपलब्ध हैं। मन्त्र-दीक्षा किसी सिद्घ गुरु द्वारा पात्र व्यक्ति को ही दिये जाने का विधान है। हर ऐरे-गैरे को मन्त्र-दीक्षा का निषेध इसलिए है, कि वह उसका दुरुपयोग कर सकता है। मन्त्री को इसीलिए बहुत सोच-समझकर बनाया जाना अपेक्षित है अन्यथा वह अपनी किसी चारित्रिक या मानसिक दुर्बलता के वशीभूत होकर सरकारी भेद शत्रु या विरोधी पक्ष को बताकर राष्ट्र की अपार क्षति कर सकता है। मन्त्रों में ह्यशाबर मन्त्रह्ण भी हैं, जिनका कोई अर्थ न होते हुए भी प्रभाव नितान्त फलदायी होता है। बर्र, बिच्छू या सर्प-दंश के मन्त्रों का चमत्कारी प्रभाव देखकर अनेक भौतिकतावादी व तार्किक लोग भी दंग रह जाते हैं। प्रेमचन्द की कहानी ह्यमन्त्रह्ण एक ऐसी ही कहानी है, जो किसी सत्य घटना पर आधारित प्रतीत होती है। अध्यात्म के क्षेत्र में गायत्री मन्त्र को ह्यमहामन्त्रह्ण माना जाता है। इस महामन्त्र की सिद्घि का प्रभाव आचार्य श्रीराम शर्मा ने प्रत्यक्ष कर दिया था। महर्षि विश्वामित्र द्वारा प्रदत्त इस महामन्त्र का प्रभाव कोई भी अनुभव कर सकता है। ह्यगायत्रीह्ण सूर्य का मन्त्र है और ऋग्वेद ने सूर्य को इस भौतिक-सृष्टि का आत्मा बताया है।
भौतिक-विज्ञान में विशिष्ट प्रविधि ही मन्त्र है। रामायण, महाभारत तथा पुराण व ग्रन्थों में अभिमन्त्रित शस्त्रास्त्रों का उल्लेख यह स्पष्ट इंगित करता है कि तब के दिव्यास्त्र आज के विभिन्न प्रकार के मारक अस्त्रों जैसे रहे होंगे। क्रूज मिसाइल, गाइडेड मिसाइल, ड्रोन, परमाणु-बम, हाइड्रोजन बम, न्यूट्रान बम से लेकर तरह-तरह के अन्तरिक्ष यानों को उनकी निर्धारित कक्षा में प्रथम प्रयत्न में ही सफलतापूर्वक स्थापित कर दिखाना, चन्द्रयान, मंगलयान के सफल प्रक्षेपण आदि भौतिकी की मन्त्रशक्ति के ही प्रमाण हैं। राष्ट्र-रक्षा के निमित ही इन सभी का आविष्कार किया गया है। इनकी सुरक्षा को प्रत्येक देश अत्यन्त गोपनीय मानता है। मई, 1998 में श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग सरकार ने पोखरण में जो सफल परमाणु व हाइड्रोजन बम विस्फोट भू-गर्भ में किये थे, उनकी सफलता का रहस्य योजना की गोपनीयता भंग न होने में ही निहित था। विश्व-मंच पर एक परमाणु-शक्ति-सम्पन्न राष्ट्र के रूप में भारत का यह जाज्वल्यमान अवतरण हमारे महान् वैज्ञानिकों की ह्यमन्त्रशक्ति-साधनाह्ण का ही प्रतिफल था, जिसने विश्व भर में भारतीयों को स्फीतवक्ष होकर गर्व से सिर ऊंचा करने का गौरव प्रदान किया था। ह्यशस्त्रेण रक्षिते राष्ट्रे शास्त्रचर्चा प्रवर्त्ततेह्ण मन्त्र की यह सार्थकता थी।
परन्तु राष्ट्र-रक्षा के कुछ महामन्त्र ऐसे हैं, जिनकी ओर स्यात् ही किसी का ध्यान जाता हो। ये महामन्त्र स्वयं परमसत्ता द्वारा हमें सहज ही उपलब्ध कराये गये हैं। एक प्रकृति निर्मित, चारों ओर से प्राकृतिक रक्षा-साधन-प्राप्त विशाल भूभाग, जिसे हम ह्यभारतवर्षह्ण नाम से अनादि काल से अभिहित करते चले आ रहे हैं, इस सनातन हिन्दू राष्ट्र के विलोपन के निरन्तर चलते अभियानों में रक्षा-कवच का काम करता रहा है। हम भले ही इसकी इन सीमाओं- तीन ओर से हहराता महासागर और उत्तर की ओर से हिमाच्छादित विश्व की उच्चतम पर्वतशृंखला, गहन वन-कान्तार समन्वित, सदानीरा विशाल नद-नदियों से पूरित संसार भर में प्राप्त सभी प्रकार की जलवायु से समृद्घ की उपेक्षा कर उसके निरन्तर संकुचन से पराङ्मुख रहे हों, दुष्परिणाम भोगते रहे हों; परन्तु इसकी रक्षा के प्रति सतत संघर्षशील रहते हुए, असंख्य बलिदान देते हुए समय-समय पर उन सीमाओं को पुन:-पुन: रेखांकित करने के प्रयत्न से विरत नहीं हुए और इसी कारण ह्यभारतवर्षह्ण का यह शेष भूभाग ह्यभारतह्ण के रूप में अपना अस्तित्व बनाये रखने में यत्किचित् सफल रहा है। इसी में इसका सनातनत्व भी निहित है।
इतिहास की यह बहुत बड़ी विडम्बना है कि हम भूभाग की विशालता के महत्व को एक प्रकार से भुला बैठे। जो भाग विदेशी, विधर्मी इस्लामी आक्रमणकारियों के आधिपत्य में चला गया, उसे कालान्तर में हम उसी का मान बैठे। किसे याद है कि अफगानिस्तान कभी हमारा प्रान्त रहा है। छिन गया, तो खैबर दर्रे तक हम सिमटकर रह गये। शेष भारत ने गान्धार को पराया मान लिया। मराठों और सिखों को छोड़कर और किसी हिन्दू शासक को अपने इस विस्तृत भूखण्ड की मुक्ति का ध्यान नहीं आया। देश के विभिन्न भूभागों में मुस्लिम शासक निरन्तर हिन्दू शासकों पर आक्रामक रहे और जीतने पर उन्हें अपने अधीन करने में नहीं चूके। उदाहरण के लिए विजयनगर साम्राज्य के कृष्णदेव राय से लेकर राम राय तक ने अनेक बार बहमनी सुलतानों को परास्त किया; पर उन्हें मौत के घाट उतारकर उन-उन प्रदेशों को अपने साम्राज्य में विलीन कर वहां अपने महामण्डलेश्वर नहीं अधिष्ठित किये और अन्तत: उन बहमनी राज्यों के सुलतानों ने मिलकर विजयनगर का कैसा संहार किया, हम्पी के ध्वंसावशेष आज तक गवाही दे रहे हैं। महाराणा कुम्भा (कुम्भकर्ण) ने गुजरात के सुलतान और मालवा के सुलतान को पहले पृथक्-पृथक् हराया, फिर उनके सम्मिलित आक्रमण को पराभूत कर मालवा के घायल सुलतान को बन्दी बनाया पर उनके अधीन प्रदेशों को मुक्त कर मेवाड़ में मिलाने के बजाय किया क्या- मालवा के सुलतान को छह महीने अपने अतिथि के रूप में रख उसकी चिकित्सा कराकर उसे ससम्मान मालवा भेज दिया। विजय-स्तम्भ बनवाया; पर उन दोनों सुलतानों को ठिकाने लगाकर वहां अपना शासन स्थापित करने का स्मरण कुम्भा जैसे प्रतापी महाराणा को नहीं आया। दूसरी ओर गोलकुण्डा को ह्यहैदराबादह्ण बनाकर निजाम वहां जमा रहा। मैसूर के वाडियार वंशी राजा को गद्दी से उतारकर हैदरअली ने राज्य पर कब्जा कर लिया। एक ओर हैदरअली और उसके बेटे टीपू-सुलतान ने मलाबार तक हिन्दू-संहार की आंधी चला दी; पद्मनाभ स्वामी मन्दिर में अपने घोड़े बांधने तक की घोषणा कर दी और दूसरी ओर पेशवा की सेनाएं टीपू को हराकर उससे क्षतिपूर्त्ति वसूलकर लौट जाती रहीं, उन्हें कभी ध्यान नहीं आया कि टीपू सुलतान को मारकर वाडियार राजा को पुन: मैसूर के सिंहासन पर प्रतिष्ठित करें। यह श्रेष्ठ कार्य किया अंग्रेजों ने मैसूर राज्य को उसके वैध शासक को वापस करके। इसी प्रकार जब-जब उत्तर भारत में पेशवा की विजयिनी सेनायें दिल्ली की ओर बढ़ीं, निजाम ने दक्षिण में पेशवा पर आक्रमण करके उनकी गति रोक दी और पेशवा के अधिकारी कभी बीदर, कभी बरार और हर बार दण्ड-स्वरूप कुछ लाख रुपये लेकर उसे छोड़ देते रहे। वे भूल गये उन महाराज छत्रपति शिवाजी को, जिन्होंने आगरा जाकर, औरंगजेब को भरे दरबार में मारकर, मयूर सिंहासन पर आधिपत्य जमाकर आततायी इस्लामी मुगल सत्ता से मुक्त कर हिन्दू पदपादशाही की स्थापना का स्वप्न साकार करने की योजना की थी। उन्होंने जिस क्षेत्र को मुस्लिम शासकों से जीता, उसे अपने हिन्दू राज्य में समाहित करते गये। अटक से कटक तक भगवा फहरानेवाले किसी मराठा वीर को शाह आलम को गद्दी से उतारकर उस पर पृथ्वीराज चौहान के किसी उत्तराधिकारी को प्रतिष्ठित करने की सुधि क्यों नहीं रही? हां अन्तिम हिन्दू सम्राट् महाराजा रणजीत सिंह ने काबुल विजय का प्रयत्न अवश्य किया था और शाह शुजा से सोमनाथ मन्दिर के महमूद गजनवी द्वारा लूटकर ले जाये गये चन्दन के दरवाजे, कोहिनूर हीरा के अतिरिक्त उसकी प्रिय लैली घोड़ी को भी ह्यरूंकह्ण में लेने के पश्चात् ही जाने दिया था।
यहां पर यह भी ध्यातव्य है कि भौगोलिक विशालता किसी भी देश की अजेयता का एक प्रमुख कारण होता है। रूस का भौगोलिक विस्तार पूर्वी यूरोप से लेकर एशिया के साइबेरिया और उत्तरी अमेरिका के अलास्का तक था। यूरोप, एशिया और उत्तरी अमरीका तक विस्तृत इस देश की अजेयता का श्रेय इसकी विशालता को जाता है। नेपोलियन बोनापार्ट और हिटलर जैसे दुर्द्घर्ष विजेताओं की पराजय का मुख्य कारण उनका रूस पर आक्रमण कर बैठना था। विशालता के साथ ही जनवरी की घोर शीत ने भी रूस का साथ दिया था। इसी कारण जनवरी का वहां एक नाम ह्यजनरल जनवरीह्ण पड़ गया। यद्यपि अलास्का को रूस के जार सम्राट् ने संयुक्त राज्य अमेरिका के हाथ बेच दिया था, फिर भी आज रूस की अजयेता में उसकी विशालता का महव कम नहीं आंका जा सकता। वहीं उत्तरी-पूर्वी यूरोप के लिथुआनिया, एस्टोनिया और लैटविया जैसे लघुकाय देशों पर रूस ने जब चाहा, कब्जा कर लिया; क्योंकि उनके पास जमीन ही इतनी नहीं है कि वे कुछ दिन भी युद्घ कर सकें। एक अन्य उदाहरण चीन का है। जापान ने कोरिया और मचूरिया को जीतकर चीन पर भी विजय-अभियान चलाया। चीन के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरलिस्मो च्याङ् काई शेक को पीकिंग (बीजिंग) से भागकर पहले चुङ्किङ्, फिर नानकिङ् में राजधानी बनाकर युद्घरत रहना पड़ा था। चीन की विशालता के कारण ही जापान पूरी तरह उसे नहीं जीत पाया। भारतवर्ष का क्षेत्रफल रूस को छोड़कर पूरे यूरोप महाद्वीप से भी कुछ अधिक था। उसकी प्राकृतिक भौगोलिक सीमायें अफगानिस्तान, तिब्बत, ब्रह्मदेश, सिंगापुर, श्रीलंका, मालद्वीप, लक्षद्वीप, मिनिकाय और बलूचिस्तान के पश्चिम तक थीं। विदेशी आक्रमणों में हम जब भी हारे, अपना वह राज्य खो बैठे। इस्लाम को सिन्ध में मुंहकी खाने के बाद जाबुल और काबुल इन दो राज्यों को जीतने में दो सौ वर्ष और काबुल से दिल्ली पहुंचने में तीन सौ वर्ष अर्थात् लगभग पांच सौ वर्ष लगे; पर त्रिलोचनपाल के बाद कोई सामूहिक प्रतिरोध इतिहास में नहीं दिखाई देता। महमूद गजनवी से लेकर मोहम्मद गोरी तक के कालखण्ड में भारत के किसी हिन्दू शासक ने गजनी-विजय का प्रयत्न किया हो, नहीं मिलता। पृथ्वीराज ने मोहम्मद गोरी को 17 बार नहीं, ह्यपृथ्वीराज रासोह्ण के अनुसार 21 बार हराकर भगा दिया; पर उसकी बुद्घि में कभी यह क्यों नहीं आया कि पूरी तैयारी कर भट्टी राजपूत महाराजा गज द्वारा बसायी गयी गजनी को मुक्त कराकर उस पर भगवा फहराया जाये ?
यह तो रहीं इतिहास की कुछ बातें। अभी 66 वर्ष पहले की बात तक हम भुला बैठे हैं। पाकिस्तान, बंगलादेश, चीन, बर्मा, श्रीलंका के हाथों हम अपनी लगभग डेढ़ लाख वर्ग किमी भूमि गंवा चुके हैं। उसकी पुनर्विजय के स्वर्ण-अवसर भी हमें 1947-48, 1962, 1965, 1971 में भगवत्कृपा से उपलब्ध हुए; पर हम समझौता-वार्ताएं कर-कर उन्हें गंवाते रहे। आज भी यह क्रम रुका नहीं है। बंगलादेश से अन्त:स्थ क्षेत्रों की अदला-बदली में हम फिर लगभग 12000 वर्ग कि़मी. गंवाने को आतुर हैं। यही नहीं, नदियों का पानी भी हम लगातार दान करने में अग्रणी हैं। आखिर हम क्यों यह भूल जाते हैं, भूलते रहे हैं और फिर भूल रहे हैं कि युद्घ में गंवायी भूमि बिना युद्घ के वापस नहीं पायी जा सकती है। हम चाहते, तो 1965 में लाहौर, स्यालकोट, कराची और मुलतान पर कब्जा कर जम जाते; चिकेन नेक और हाजीपीर को न छोड़ते, 1971 में पूरा जम्मू-कश्मीर वापस लेकर ही पाक के 93,000 बन्दी सैनिक छोड़ते। करगिल-युद्घ ने भी हमें एक स्वर्ण-अवसर दिया था, पर हम चूक गये। प्रश्न उठता है क्यों? यह ह्यक्योंह्ण, पता नहीं, हमें क्यों नहीं कचोटता? हमारा ह्यदिन का चैनह्ण और ह्यरात की निंदियाह्ण क्यों नहीं उचाटता?
उपर्युक्त ह्यक्योंह्ण का उत्तर हमारे पास सदा से रहा है, आज भी है। बहुविदित ह्यवयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिता:ह्ण का जागरण-मन्त्र वेदों ने हमें दे रखा है। हम पुरोहित-गण राष्ट्र को जगायें, जगाते रहें, सतत जगाते रहें, तो ऐसे जागरुक राष्ट्र की ओर कोई आंख तरेरना तो दूर, उठाकर भी देखने की ह्यजुर्रतह्ण नहीं करेगा। हमारे ऋषि-मुनि, साधु-सन्त इस जागरण-मन्त्र को जगाते रहें, बलिदानी वीर अपने शौर्य-पराक्रम से विरत नहीं हुए, माताएं-बहनें ह्यजौहरह्ण ही नहीं करती रहीं, रणभूमि में कर्मवती, दुर्गावती, ताराबाई, अहल्याबाई, लक्ष्मीबाई बनकर शत्रुओं को नाकों चने चबवाती रहीं। इसी पराक्रमी-परम्परा में गत शताब्दी के प्रारम्भ में एक और जागरण-मन्त्र ह्यवन्दे मातरम्ह्ण स्वतन्त्रता का रणघोष बनकर देश भर में गूंजा था। वीर विनायक दामोदर सावरकर ने भी राष्ट्र-रक्षा के लिए एक बहुआयामी मन्त्र दिया था- ह्यहिन्दू का सैनिकीकरण और सेना का हिन्दूकरण।ह्ण इस राष्ट्र-रक्षा मन्त्र का प्रयोग करने का अवसर आसन्न है; पर इसकी सिद्घि के लिए हमें पहले दिल्ली-विजय करनी होगी। रणभेरी बज रही है, सुनें और समझें तथा समझ-बूझकर प्रजातन्त्र के सबसे बड़े हथियार का उपयोग करें। राष्ट्र सर्वोपरि ही नहीं, राष्ट्र-रक्षा सर्वोपरि भी है, यह न भूलें।
(लेखक राष्ट्रधर्म मासिक के सम्पादक हैं)
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