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शब्द जब मुखौटे बन जाएं, परिभाषाएं जब पूर्वनिर्धारित मंतव्य से प्रेरित हों, न्यायशीलता जब सिर्फ दिखाने वाला गुण हो और सबसे बड़ी बात, ऐसे कुचक्र जब सत्ताशीर्ष से चलें तो समाज की गति या प्रगति नहीं, दुर्गति होनी तय है। मुजफ्फरनगर प्रकरण सिर्फ दंगा नहीं बल्कि एक दर्पण है। सेकुलर यानी पंथनिरपेक्ष होने का ढोंग रचने वाले लखनऊ से दिल्ली तक के कई सत्तालोलुप चेहरे इस दर्पण में एक-साथ समाज के सामने हैं। समाज के साथ विश्वासघात किसने किया, अब यह बात खुल चुकी है। दंगों की आग किसने भड़काई, ह्यऊपर सेह्ण किसने फोन पर किसके कान में क्या कहा यह पूरे देश ने सुन लिया है। हालांकि, चैनल ने जो तथ्य दिखाए मीडिया का एक बड़ा हिस्सा उस साक्ष्यों से कतराकर निकलता दिखा। बाकी चैनलों की रिपोर्टिंग और अगले दिन के ज्यादातर अखबारों में एक दहकते सत्य पर राख डालने का ही काम हुआ। सेकुलर टोपी ओढ़, वोटों की रोटियां सेकने के लिए तुष्टिकरण का तंदूर किस तरह गर्म किया जाता है और सत्य-सरोकारों की बात करने वाली पत्रकारिता किस तरह बहक-बदल जाती है यह इसका भी नमूना है। परंतु इसी मीडिया ने दंगों के विरोधाभासी चित्रण का दूसरा सिरा जाने-अनजाने जनता दरबार में बहस के लिए थमा दिया। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की दंगापीडि़तों से मुलाकात के जो ज्यादातर चित्र प्रकाशित हुए उनमें सिर्फ मुसलमानों के ही चेहरे दिख रहे थे। जाहिर है, दिल्ली में बैठी कांग्रेस की रुचि भी असल में दंगा पीडि़तों से मिलने की नहीं बल्कि चुन-चुनकर घाव सहलाने और सेकुलर सिक्का चलाते हुए अल्पसंख्यक वोट भुनाने की चाल थी। जबकि चैनल का स्टिंग और जौली नहर के पर घात लगाकर किए हमलों के तथ्य बता रहे थे कि बहुसंख्यक समुदाय को निशाना बनाने के दाव सोच-समझकर चले गए थे।प्रिंट मीडिया में सोनिया गांधी और डॉ. मनमोहन सिंह के यह चित्र कांग्रेस के उस पैंतरे का खुलासा हैं जिसके सहारे वह ह्यसेकुलर सीमेंटह्ण से वंशवाद और अकथनीय भ्रष्टाचार की सडांध मारती व्यवस्था को चलाती आई है। दूसरी ओर, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के डंक ने समाजवादी पार्टी को झन्ना दिया है। हिंसक अल्पसंख्यकवाद को पोसने की उस राजनीति से अब पर्दा उठ गया है जिसकी परिणति गंगनहर के खून से भर जाने में हुई।मगर, मुजफ्फरनगर के कई ऐसे सवाल हैं जो ना टीवी के कैमरों में दिखे ना अखबारी खबरों में और यह ऐसे सवाल हैं जिन्हें सुलझाए बगैर समाज का गुस्सा, दंगों का दावानल बुझ नहीं सकता। किरठल गांव में एक अल्पसंख्यक के घर से एके 47 के कारतूस मिलने के बाद आगे की जांच और कार्रवाई का क्या हुआ? पंचायत से लौटते में शिकार बने लोगों के शरीर से एके 47 की गोलियां निकलना किस ओर इशारा करता है? टीवी पत्रकार राजेश वर्मा को गोली मारने वाले कौन थे और चैनल अपने ही कर्मचारी की हत्या की फुटेज पर चुप क्यों हैं, इन बातों का जवाब खुद मीडिया को देना है। मस्जिदों की मीनारों से सेना पर गोलियां चलने, शामली में किसी चिकित्सक की एंबुलेंस वैन से भारी मात्रा में हथियार बरामद होने और यहीं एक घर से हथियारबंद बांग्लादेशियों की धरपकड़ की ऐसी अनेक खबरें सोशल मीडिया पर छाई हुई हैं जिनकी सत्यता प्रमाणित करना सरकार और पत्रकार दोनों का ही धर्म है। इस पूरे प्रकरण में दोषियों को पुचकारने उनके चेहरे छिपाने और कट्टरवाद को पोसने के जिस जहरीले खेल की झलक मिली उससे फौरन पर्दा उठाना जरूरी है। यदि यह काम समय रहते नहीं हुआ तो समाज की घुटन बड़े वैमनस्यपूर्ण विस्फोट को जन्म दे सकती है ।बहरहाल, जीवविज्ञान की कुछ परिभाषाएं और उपचार मुजफ्फरनगर का समाज विज्ञान समझने और सुलझाने में कारगर साबित हो सकती हैं। जीव वैज्ञानिक शरीर को अनंत कोशिकाओं से बनी ऐसी अनूठी रचना मानते हैं जहां यदि हर जैविक इकाई अपने हिस्से का तय काम करती रहे तो शरीर ठीक रहता है परंतु यदि कोई कोशिका सिर्फ खुद को मजबूत करने और अपने ही जैसी कोशिकाओं का निर्माण करने और उन्हें बढ़ाने, कठोर करने का काम शुरू कर दे तो परिणति ट्यूमर और कैंसर जैसी विकृतियों के रूप में सामने आती है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश मेंं यही हुआ। दंगे की लपटों में कट्टरवाद के कैंसर की ऐसी ही कोशिकाएं हैं, तुष्टिकरण की छद्म सेकुलर झाड़-फूंक ने इस ट्यूमर को खतरनाक हद तक बढ़ाया है। स्टिंग ऑपरेशन का संकेत साफ है सरकार को नीयत साफ रखते हुए बीमारी का इलाज करना होगा वरना बात हद से बाहर जा सकती है।
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