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बढ़ने का मसाला और मौका ना मिले तो चिंगारी पलभर में बुझ जाती है, मगर मुजफ्फरनगर में ऐसा मुमकिन नहीं था। माहौल बारूदी और सरकार छुट्टी पर, यह आग तो लगनी ही थी।बलात्कार, सामूहिक बलात्कार, तेजाबी हमले, पीडि़ताओं को मुंह बंद रखने की धमकियां और तालिबानी पंचायतों में आरोपियों की पैरोकारी…सालभर की खबरें खंगालिए, ह्यलव-जिहादह्ण और बहू-बेटियों पर शोहदों की गिद्ध दृष्टि से उबलते समाज का गुस्सा साफ हो जाएगा। ह्यबेटी-बहू सम्मान बचाओ महापंचायतह्ण कार्यक्रम के नाम से ही आयोजकों की चिंता साफ थी, लेकिन हालात बिगड़ने की छूट देने वालों ने मानो पहले ही तय कर रखा था कि दोषी कौन हैं और किन्हें बचाना है। वैसे, दंगे से पहले और दंगे के बाद भी समुदाय विशेष और उसकी हरकतों को सहलाने की समाजवादी अदा ने समाज के दिल में गुस्सा ही भरा है। मुजफ्फरनगर की आग में ऐसे सुलगते सवाल हैं, जिनकी जवाबदेही लखनऊ, देवबंद, और दिल्ली पर है।पहला सवाल लखनऊ से। कवाल पर सोती रही नाकाम और असंवेदनशील सरकार के युवा मुखिया के खाते में कुल जमा सियासी पूंजी यह है कि उन्होंने सरकार को तुष्टीकरण और प्रदेश को दंगों का पर्याय बना डाला। उनसे पूछा जाना चाहिए कि दंगों के मसले पर प्रेस से बात करते वक्त नमाजी टोपी चढ़ाकर वे जताना क्या चाहते हैं, भरमाना किसे चाहते हैं और डराना किसे चाहते हैं? वंशवादी राजनीति में उद्धारक चेहरा तलाशने वाली भोली जनता का यह भ्रम अब टूट जाना चाहिए कि परिवार की ह्यविरासतह्ण संभालने वाला कोई ह्ययुवाह्ण चेहरा बस इतनी भर जमापूंजी से सुशासन की गारंटी हो सकता है।दूसरा सवाल पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस्लामी छाप का विस्तार करने में जुटी उन ताकतों से, जो मजहबी लामबंदी के आधार पर समाज को बांट रही हैं और जिनके सबक हनक से चलकर हथियारों तक जाते हैं। दारुल उलूम देवबंद वहाबी कट्टरपंथियों और अहले हदीस पंथ के मुसलमानों का प्रिय संस्थान है। इसके संचालकों से पूछा जाना चाहिए कि सांप्रदायिक दंगों की आग को ठंडा करने में अपने असर का उन्होंने क्या इस्तेमाल किया? वैसे, कुछ वर्ष पूर्व संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में पाकिस्तान के प्रतिनिधि अब्दुल्ला हुसैन हारुन का यह कह बैठना कि आतंकवाद समाप्त करना है तो देवबंद पर शिकंजा कसना होगा, किस तरफ इशारा करता है? क्यों उसकी 'अमन की पाठशाला' से निकले ढेरों तालिबानी आज दुनिया का सिरदर्द बने हैं, और क्यों भारत के शासन, संविधान और सर्वोच्च न्यायालय को ठेंगा दिखाते फतवे यहां से जारी किए जाते हैं?तीसरा सवाल दिल्ली की मीडिया मंडी से है। 2002 को गाने और अकेले उत्तर प्रदेश के 100 से ज्यादा दंगों को भुलाने की कोशिश में लगे मीडिया का कुरूप चेहरा मुजफ्फरनगर प्रकरण के बाद जनता के सामने आ गया है। पंचायत से लौटते सदस्यों पर जगह-जगह घात लगाकर किए गए हमलों की रिपोर्टिंग में भर्त्सना का वह स्वर क्यों नहीं दिखता जो गुजरात के मामले में चरम पर था? पंचायत के लाठी, गड़ांसे देखने वालों को जब मुस्लिम बहुल क्षेत्र में गोलियों की तड़तड़ाहट से बनाया जाता उत्तेजक माहौल नहीं दिखता, कोई हथियार नहीं दिखते, तो तेज-तर्रार और निडर चैनलों की निष्पक्षता पर लोगों को शक होता है। दंगाइयों की गोली से अपना संवाददाता गंवाने वाला चैनल भी जब दोषियों को दंड दिलाने की बात पर चुप्पी ओढ़ लेता है तो रिमोट उठाकर चैनल बदल दिए जाते हैं। सच के पुरोधा बनकर 'प्राइम-टाइम शो' में अवतरित होने वाले मीडिया के मठाधीश जब राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप की अंतहीन बहस की माला जपने बैठ जाते हैं तो लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का खोखलापन उजागर हो जाता है।इन तीन सवालों के अलावा एक और बात है जिसकी खबर लेनी चाहिए, मगर ली नहीं गई। मुजफ्फरनगर की आग में कैराना का बारूद कितना है यह जांचने की कोशिश किसी ने नहीं की। स्थानीय स्तर पर सरकार थानेदार और पत्रकार सभी जानते हैं कि कैराना की ह्यमंडीह्ण में गोली, हथगोले से लेकर चीनी पिस्तौल और ए.के.-47 तक सब कुछ बिकता है। मगर… सत्ता और सुर्खियों के ह्यसेकुलरह्ण बाजार में जहां सच और दर्द सुविधा के हिसाब से बेचा जाने वाला ह्यसौदाह्ण हों वहां तुष्टीकरण के कवच और कैराना के इस बारूद को पूछने वाला कौन है?
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