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जब नेताओं पर गाज गिरती है तो सभी दलों के नेता एकजुट हो जाते हैं। इन नेताओं की ऐसी ही एकजुटता 1 अगस्त को देखने को मिली। सबने 10 जुलाई को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए उस निर्णय का विरोध किया जिसमें जेल जाने या सजा होने पर नेताओं के चुनाव लड़ने पर रोक लगाई गई थी। अब सरकार सर्वोच्च न्यायालय के उस निर्णय को निष्प्रभावी करने के लिए कानूनी संशोधन के लिए तैयार हो गई है। इन नेताओं की एकजुटता का दूसरा उदाहरण है मुख्य सूचना आयुक्त का वह फैसला जिसमें कहा गया था कि सभी राजनीतिक दलों को जन सूचना अधिकार (आरटीआई) के तहत अपनी जानकारी लोगों द्वारा मांगने पर उन्हें देनी चाहिए। इसका भी प्राय: सभी राजनीतिक दलों ने विरोध किया। नतीजा यह हुआ कि सरकार ने सभी राजनीतिक दलों को आरटीआई से बाहर रखने का निर्णय ले लिया है। सरकार ने 1 अगस्त की कैबिनेट बैठक में आरटीआई कानून में बदलाव की मंजूरी दे दी है। इस निमित्त संसद के मानसून सत्र में एक संशोधन विधेयक लाया जाएगा। इस विधेयक में राजनीतिक दलों को सार्वजनिक संस्था की परिभाषा से बाहर कर दिया गया है।
एक और उदहारण देखिए, कुछ दिन पहले ही नए मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति सदाशिवम् ने पद की शपथ ली। उनके पद संभालते ही कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने न्यायाधीशों की चयन प्रक्रिया को 'पारदर्शी' बनाने के लिए वर्तमान चयन पद्धति की जगह नई चयन पद्धति का प्रस्ताव मंत्रिमंडल में ले जाने की बात कही है।
इस प्रकरणों से स्पष्ट है कि सर्वोच्च न्यायालय और यूपीए सरकार दोनों के बीच अविश्वास की खाई और भी गहरी होती जा रही है। पिछले कुछ वर्षों में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा न्यायालयों को मर्यादित रहने का परामर्श दिया जा चुका है और न्यायाधीशों द्वारा, सरकार को संविधान सम्मत कार्यक्षेत्र में त्रिपक्षीय निर्धारण का संज्ञान लेकर आचरण करने पर कायम रहने से ही टकराव को बचाया जा सकता है, ऐसी व्यवस्था सुनिश्चित करने पर ध्यान देने की प्राथमिकता का स्मरण कराया जाता रहा है।
लेकिन भ्रष्टाचार के मामले में सरकार और न्यायालय के बीच टकराव की स्थिति कोयला घोटाले की जांच कर रही सीबीआई के प्रतिवेदन को देखने- दिखाने के मामले के बाद बढ़ती जा रही है। ऐसा लगता है दोनों पक्ष किसी भी सीमा तक जाने के लिए तैयार हैं। यह तो सर्वविदित है कि भ्रष्टाचार के अंतरराष्ट्रीय आकलन के अनुसार भारत का स्थान दूसरा है। पूर्व रेल मंत्री पवन बंसल को मुख्य आरोपी की श्रेणी से निकालकर मुख्य गवाह की भूमिका में लाने से भी गंभीर मामले कोयला घोटाला कांड की जांच करने वाले अधिकारी को हटाये जाने पर सर्वोच्च न्यायालय के रुख से टकराव बढ़ने की संभावना प्रबल होती जा रही है, क्योंकि उसने उस अधिकारी को पूर्ववत जांच करते रहने का आदेश दे दिया है। यह अधिकारी उस अवधि के आवंटन की जांच कर रहा था, जिस अवधि में स्वयं मनमोहन सिंह कोयला मंत्री भी थे।
मनमोहन सिंह को बचाने के लिए रेल और कानून मंत्रियों को हटाने से पूर्व जितने भी अन्य घोटाले हुए हैं, चाहे वह टूजी स्पेक्ट्रम आवंटन हो, राष्ट्रमंडलीय खेल आयोजन हो या फिर इटली से सैन्य सामग्री खरीदने का मामला, सभी में प्रधानमंत्री या उनके मंत्रालय की संलिप्तता के कारण ही जांच की प्रक्रिया अधर में लटकी हुई है। सरकार भ्रष्टाचार के प्रत्येक मामले को दबाने का प्रयास कर रही है और न्यायालय उसका पर्दाफाश करने पर उतारू है। इस टकराव की स्थिति के अनेक उदाहरण नित्य सामने आ रहे हैं। लेकिन यहां मेरी अभिव्यक्ति का विषय इससे इतर है।
भ्रष्टाचार के मामले में भारत को 'रजत पदक' मिल चुका है। 'स्वर्ण पदक' जीतने का लक्ष्य बना हुआ है। उसी भारत की व्यवस्था के भीतर भ्रष्टाचार के मामले में हमारे न्यायालयों पर भी अंगुली उठ रही है। मुख्य न्यायाधीश पद से अवकाश ग्रहण करने के पूर्व अल्तमस कबीर के बारे में एक समाचार पढ़ने को मिला, जो गुजरात उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश भट्टाचार्य द्वारा राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भेजे गए पत्र के संदर्भ में था। इस पत्र में उन्होंने लिखा है कि 'उच्च न्यायालय से सर्वोच्च न्यायालय में जाने के लिए वे सबसे वरिष्ठ थे, फिर भी कबीर की अध्यक्षता में गठित चयन समिति ने मेरा चयन नहीं किया क्योंकि कोलकाता उच्च न्यायालय के लिए जो चयन समिति बनी थी उसमें मैं भी था, और मैंने अल्तमस कबीर की वकील बहन के नाम का विरोध किया था।' पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति अल्तमस कबीर ने सेवाकाल के अंतिम दिन मेडिकल सेवाओं के लिए संयुक्त परीक्षा प्रणाली की पद्धति को रद्द कर संस्थाओं को ही चयन करने का जो अधिकार प्रदान कर दिया है उससे सबसे ज्यादा प्रसन्न निजी मेडिकल कालेज के संचालक हैं। देश में मेडिकल, इंजीनियरिंग और प्रबंधन संस्थान कुकुरमुत्ते से भी अधिक तेजी से फैलते जा रहे हैं। नियंत्रण के बावजूद किसी विशिष्टिता के लिए प्रवेश अथवा विषय परिवर्तन के नाम पर क्या होता है, यह किसी से छिपा नहीं है। अल्तमस कबीर द्वारा कैसे और क्यों ऐसा फैसला लिया गया? कतिपय मुख्य न्यायाधीशों के कार्यरत रहते या अवकाश प्राप्ति के बाद संपत्ति का जो ब्योरा प्रकाशित हो चुका है वह भी न्यायालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार को इंगित करता है।
मैं बहुत लोगों के बारे में तो नहीं जानता लेकिन उत्तर प्रदेश के कुछ वकीलों को बार से बेंच में ले जाने की घटनाओं से पूरी तरह भिज्ञ हूं जो सप्ताह में एकाध बार ही वकालत खाने तक जाते थे। शेष समय काला लबादा पहनकर किसी चायघर या राजनीतिज्ञ के आवास पर बिताते थे। उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के कितने ही पद रिक्त हैं, क्योंकि जिनका चयन हुआ है वह राजनीतिक नेतृत्व यानी सरकार को स्वीकार नहीं और जो नाम सरकार आगे बढ़ाना चाहती है उसे चयन समिति स्वीकार नहीं कर रही है। कई लाख मुकदमे लंबित हैं क्योंकि 'जनहित' याचिकाओं ने न्यायालय की सुनवाई की प्राथमिकता बदल दी है।
सरकार और न्यायालय के बीच अत्यंत दुखद संबंध उस समय रहा है जब कर्नाटक के वर्तमान राज्यपाल हंसराज भारद्वाज केंद्र में कानून मंत्री थे। अच्छा हो कपिल सिब्बल अपने पुराने वरिष्ठ सहयोगी से वर्तमान व्यवस्था चालू रखने या बदलाव के बारे में परामर्श ले लें। यह अत्यंत आश्चर्यजनक है कि मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्वकाल में एक के बाद एक संवैधानिक संस्थाओं की ईमानदारी पर सरकार द्वारा संदेह व्यक्त किया जा रहा है। ऐसा लगता है कि संवैधानिक संस्थाओं और सरकार के बीच युद्ध चल रहा हो। एक भी संवैधानिक संस्था ऐसी नहीं है जिससे सरकार टकराव की स्थिति में न हो। इसलिए सरकार ऐसे व्यक्तियों को इन संस्थाओं का प्रमुख बनाने जा रही है जिन पर चयन समिति में सहमति न हो। ऐसी एक नियुक्ति को सर्वोच्च न्यायालय निरस्त कर चुका है। इटली से हेलीकाप्टर खरीदने में मुख्य भूमिका निभाने वाले रक्षा सचिव को लेखा महापरीक्षक के पद पर सरकार ने नियुक्त कर दिया है। यही नहीं हमारी तीन गुप्तचर जांच एजेंसियों आईबी, सीबीआई, एनआईए में आपस में एक दूसरे के प्रति अविश्वसनीयता पैदा करने में उलझाकर उनके कार्य को ठप कर दिया गया है। वे परस्पर दोषारोपण में उलझ गई हैं। आदर्श लोकतांत्रिक व्यवस्था में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के लिए अलग-अलग दायित्व निर्धारित है। विधायिका नियम बनाती है, कार्यपालिका अर्थात नौकरशाही उसे लागू करने के दायित्व का निर्वाह करती है और न्यायपालिका उसके संविधान सम्मत होने या न होने की समीक्षा करती है। लेकिन हाल के इन प्रसंगों से साफ पता चलता है कि विधायिका और न्यायपालिका में टकराव बढ़ता जा रहा है, जो भारतीय लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है। राजनाथ सिंह 'सूर्य'
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