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सम्पादकीय: (1) प्रकृति में परमेश्वर की तलाश

by
Aug 3, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 03 Aug 2013 14:41:54

हर–हर–बम–बम का समवेत् स्वर हिन्दी पट्टी में श्रावण मास की पहचान है। दिल्ली से देवघर तक, राजमार्गों से गली–चौपालों तक एक भगवा लकीर सी खिंची है। महादेव को रिझाने निकली कांवड़ियों की टोलियों ने सावन की फुहारों को उत्सवी रंग दे दिया है। मगर सावन की यह सारी कहानी क्या सिर्फ एक लोटा गंगाजल तक सीमित है? नहीं, इस लुटिया भर जल में समाज का पहाड़–सा हौसला और सदियों की समझ समाई है।

हिन्दू समाज की उत्सवधर्मी परंपरा, प्रकृति को परमेश्वर का ही रूप मान पूजने–सहेजने की है। 'ग्लोबल वार्मिंग' और तबाही की कड़ियां जोड़ते–समझाते नवज्ञानी जब ऐसी परंपराओं को रूढ़ियों और समाज की बेड़ियों की तरह देखते हैं तो तरस आता है।

पुरातन हिंदू संस्कृति के अपने अद्भुत वैज्ञानिक–सामाजिक समीकरण हैं जो युगांतरकारी बदलावों में भी इस सभ्यता को जीवित रखते आए हैं। कांवड़ यात्रा के संदर्भ में इसे यूं समझा जा सकता है–

यह श्रावणी आयोजन समाज को दुष्कर लक्ष्य हासिल करने की चुनौती और इसके लिए टोलियों में संगठित होने का मंत्र देता है। संसाधनों के बिना, समाज की सात्विक शक्ति के भरोसे, एक किशोर को पर्वत सा संकल्प उठाने की शक्ति से भर देता है। यह वह आयोजन है जो पानी बचाने और नदियों को इस स्तर तक पावन बनाए रखने का प्रतीकात्मक स्मरण कराता है कि उसका जल प्रभु को भी प्रसन्न कर दे।

आशु यानी शीघ्र, तोष यानी प्रसन्नता…सो, सहज–शीघ्र खुश होने वाले भगवान आशुतोष का यह संदेश हम इस सावन में जितना अच्छे से समझेंगे प्रकृति के जरिए परमेश्वर की कृपा उसी अनुपात में हमें शीघ्र प्राप्त होगी।

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