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सेकुलर कांग्रेस ने झुठलाया इतिहास
स्वतंत्र शब्द मूलत: स्व+तंत्र से मिलकर बना है। ह्यस्वह्ण का अर्थ व्यक्ति का हित या व्यक्ति की स्वतंत्रता ही नहीं है और ह्यतंत्रह्ण का अर्थ राजनीति, शासन के स्वरूप अथवा राज्य परिवर्तन ही नहीं है। स्वतंत्रता या स्वराज्य ऐसी विशुद्ध भावना का प्रतीक है जो देशभक्ति, आदर्शवाद, आध्यात्मिकता व भारतीयता के ताने-बाने से बुना हो। यह शब्द गत 150-200 वर्षों में भारतीय आत्मा का उद्बोधक रहा है। इस एक शब्द ने ब्रिटिश साम्राज्य की चूलें हिला दी थीं। इस पवित्र भावना ने अनेक विचारकों, समाज सुधारकों, राष्ट्रभक्तों तथा क्रांतिकारियों को दिशा दी थी। सामान्यत: उनका मूल प्रेरक भारत का गौरवमय अतीत, प्राचीन साहित्य, दर्शन, इतिहास, विज्ञान तथा मानव जीवन मूल्यों की पुनर्स्थापना रहा है। वस्तुत: ह्यस्वह्ण का बोध वैदिक ह्यस्वाहाह्ण से है जो अपने हितों को त्याग कर समाज एवं राष्ट्र चिन्तन को प्रेरित करे। यह शब्द भारत के कायाकल्प का आह्वान रहा। भारतीय जीवन के विभिन्न पक्षों का दिशाबोधक रहा। जिसमें अपने तंत्र का बोध हो उसे स्वतंत्र कहा। जिसमें पराया तंत्र हो, पराया पंथ हो, पराया धर्म हो, वह स्वतंत्रता या स्वराज्य का बोधक नहीं हो सकता। इसकी मूल ध्वनि सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक रही जो भारतीयता से ओतप्रोत रही। यह तंत्र औद्योगिक क्रांति तथा भौतिकता की भित्ति पर न खड़ा था।
भारतीय स्वतंत्रता के मार्गदर्शक
भारत की स्वतंत्रता के अनेक मंत्रदृष्टा हुए। महारानी विक्टोरिया के भारत में ब्रिटिश राज्य की स्थापना के साथ स्वामी दयानन्द (1824-1883) इसके प्रथम दृष्टा थे। लोकमान्य तिलक ने उन्हें स्वराज्य का पहला सन्देशवाहक माना है। उन्होंने नारा दिया, भारत भारतीयों का। उनकी स्वतंत्र चेतना का एकमात्र आधार संस्कृत का अध्ययन और वैदिक साहित्य का चिंतन था। वे न कभी विदेश गये थे और न विदेशी ज्ञान से प्रभावित ही थे।
इन्हीं भावों को स्वभाषा के स्वाभिमान के रूप में प्रकट किया था भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने। ये वे दिन थे जब सर सैयद अहमद खां हिन्दी का ह्यअहमकों तथा गधों की भाषाह्ण कहकर मजाक उड़ा रहे थे। इसके उत्तर में भारतेन्दु ने हिन्दी का गौरव स्थापित करते हुए लिखा-ह्यनिज भाषा उन्नति अहे, सब उन्नति का मूल।ह्ण इस प्रश्न को लेकर लाला लाजपतराय ने सर सैयद से विस्तृत पत्र व्यवहार किया था।
बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने, जो नवनिर्मित कोलकाता विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण होने वाले प्रथम दो छात्रों में से थे, अपने प्रसिद्ध उपन्यास ह्यआनन्दमठह्ण में वन्देमातरम को भारत की अखण्डता, समग्रता, व्यापकता तथा आध्यात्मिकता के मंत्र के रूप में चरितार्थ किया था, जो बाद में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का जयघोष बन गया था।
भारतीय राष्ट्रीयता के महान प्रवक्ता स्वामी विवेकानन्द (1863-1902) ने भारतीय राष्ट्रीय आत्मा धर्म को बतलाया। उनका कहना था कि भारत का मेरुदण्ड राजनीति नहीं, सैन्य शक्ति नहीं, व्यावसायिक आधिपत्य नहीं और न ही यांत्रिक शक्ति है बल्कि धर्म ही सर्वरूप है। (देखें, विवेकानंद साहित्य, भाग पांच, कोलकाता 1989 पृ. 35) उन्होंने धर्म के आधार पर भारत राष्ट्र को खड़ा करने को भारत का वैशिष्ट्य माना। उन्होंने भारत को एक आध्यात्मिक व धार्मिक राष्ट्र बताया तथा उसे विश्व का सर्वाधिक नैतिकता परायण राष्ट्र कहा। उन्होंने सौ वर्षों की पराधीनता का कारण आत्मविस्मृति तथा पश्चिम का अंधानुकरण बताया। उन्होंने भारत को केवल मिट्टी, पत्थर या भोगभूमि न मानकर पुण्यभूमि, तपोभूमि तथा साधना भूमि कहा था।
उन्होंने अपने आपको हिन्दू कहलाने में गर्व का अनुभव करते हुए कहा था, जो व्यक्ति अपने पूर्वजों के प्रति लज्जा का अनुभव करने लगे, तो समझो कि उसका अन्त आ गया है। (देखें, स्वामी विवेकानन्द, कोलम्बो से अल्मोड़ा, मद्रास 1904, पृ. 329)
महाकवि रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने महर्षि अरविन्द (1872-1950) को स्वदेश की आत्मा कहा। महर्षि अरविन्द ने स्वराज्य की स्थापना के लिए देशभक्ति की नर्सरी लगाने तथा राष्ट्रीय संस्कृति के सुदृढ़ मंच की बात कही। उनका राष्ट्रीयता का चिन्तन मार्च 1894 में मुम्बई से प्रकाशित ह्यइन्द्रप्रकाशह्ण में एक लेखमाला ह्यन्यू लैम्प फार ओल्डह्ण में दिखा। उन्होंने 7 अगस्त 1893 में अपने पहले के लेख में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वाचाल समर्थकों को लताड़ते हुए कहा कि ह्यसच बोलने से कतराते हैं और अपने स्वामियों को बहुत नाराज करने से डरते हैं।ह्ण एक दूसरे लेख में उन्होंने कांग्रेस को विध्वंसकारी कहा तथा कहा कि वे जिन नेताओं पर विश्वास करती है वे नेता होने वाले उचित प्रकार के मनुष्य नहीं हैं? संक्षेप में इस समय हम ऐसे अन्धे हैं जिन्हें अगर अन्धे नहीं तो काने राह दिखला रहे हैं। (देखें, एमपी पण्डित, श्री अरविन्द, नई दिल्ली 1985, पृ. 40)
महर्षि अरविन्द ने राष्ट्रीय जीवन में वेदांत और धर्म के प्रभाव को अत्यन्त महत्वपूर्ण माना है। वे आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत का सबसे बड़ा दोष यह मानते हैं कि इसने राजनीति को क्रूरतापूर्वक धर्म से अलग कर दिया है (देखें, डा. शिव कुमार मित्तल, श्री अरविन्दोज इन्टीग्रल एप्रोच टू पालिटिकल थॉट, नई दिल्ली 1981, पृ.4)
1947 में देश की स्वतंत्रता को महर्षि अरविन्द ने स्वीकार न किया था। उन्होंने कहा था, भारत स्वाधीन हो गया है पर उसने एकता प्राप्त नहीं की, उसने पाई है केवल टूटी-फूटी स्वतंत्रता। उन्होंने इस स्वतंत्रता को एक कामचलाऊ अस्थायी उपाय से अधिक न मानने को कहा।
जहां स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द तथा महर्षि अरविन्द ने भारतीय स्वतंत्रता को सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि दी, वहीं लोकमान्य तिलक व महात्मा गांधी ने भी उसे राष्ट्रीय तथा राजनीतिक स्वाधीनता की ओर तीव्र गति से मोड़ा। स्वामी श्रद्धानन्द ने तिलक को भारत की स्वाधीनता के लिए लड़ने वाले सिपाहियों का सेनापति कहा। साम्राज्यवादी ब्रिटिश इतिहासकार एवं लन्दन टाइम्स के पत्रकार वेलेन्टाइन चिरोली ने तिलक को भारतीय असंतोष का जनक कहा। (देखें, वी. चिरोल, इण्डियन अनरैस्ट, लन्दन 1910 पृ. 63-41 इण्डियन ओल्ड एण्ड न्यू लन्दन, 1921, पृ. 113) लोकमान्य तिलक पहले व्यक्ति थे जिन्होंने उद्घोष किया था- ह्यस्वराज्य हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है।ह्ण उनकी मूल प्रेरणा गीता थी। स्वराज्य की प्रेरणा जगाने में वे अद्वितीय थे। संत निहाल सिंह ने कहा था, ह्ययदि तिलक न होते तो भारत अब भी पेट के बल सरक रहा होता, सिर धूल में दबा होता और उसके हाथ में दर्खास्त होती। तिलक ने भारत की पीठ को बलिष्ठ बनाया।ह्ण
महात्मा गांधी ह्यस्वराज्यह्ण मार्ग के सबसे बड़े पथिक थे। उन्होंने 1909 में ही स्वराज्य के सन्दर्भ में अपने विचार प्रकट किये थे। बाद में ह्ययंग इंडियाह्ण, ह्यहरिजनह्ण तथा अनेक भाषणों में अपने विचार प्रकट किए। स्वराज्य के बारे में उनकी परिकल्पना बड़ी विस्तृत तथा सर्वग्राही थी। उनका कथन था कि, सच्चा स्वराज्य तो वह है जिसकी अनुभूति प्रत्येक पुरुष-स्त्री को हो। उनका कथन था कि स्वराज्य तभी काम कर सकता है जब बड़ी संख्या में नैतिक और राष्ट्रीय लोग अपने निजी लाभ और दूसरे समस्त सरोकारों से बढ़कर राष्ट्र की भलाई को सर्वोपरि समझें। उन्होंने 1931 में पंडित नेहरू को आश्चर्य में डाल दिया था जब उन्होंने कहा था, ह्यआजादी के बाद… कांग्रेस का कोई भी सदस्य सरकार में कोई पद पाना चाहे तो उसे कांग्रेस छोड़नी होगी।ह्ण गांधीजी ने अपनी हत्या से तीन दिन पूर्व कांग्रेस को चेतावनी देते हुए पुन: कहा, यदि वह सत्ता की उठापटक में उलझ गई तो एक दिन पायेगी कि उसका अस्तित्व ही नहीं रहा है। अत: उन्होंने कांग्रेस को समाप्त कर लोक सेवक मण्डल की स्थापना का सुझाव दिया था।
राजनीतिक स्वाधीनता के साथ इसके सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक पक्ष को जाग्रत रखा देश के अनेक क्रांतिकारियों, शहीदों तथा सैनिकों ने। वे देश के बाहर तथा अंदर स्वराज्य के लिए घोर परिश्रम करते रहे। चन्द्रशेखर, भगतसिंह, बिस्मिल, सावरकर, सुभाष बोस तथा डा. हेडगेवार जैसे महापुरुष अपने तपस्वी जीवन से भारतीय राष्ट्रीयता तथा आध्यात्मिकता का बोध कराते रहे। जहां एक ओर ह्यक्या हुआ गर मिट गये अपने वतन के वास्ते, बुलबुलें कुरबान होती हैं चमन के वास्तेह्ण जैसे गीत युवकों में एक नव चेतना भर रहे थे वहीं ह्यतुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगाह्ण जैसे उद्घोष भारतीय देशभक्त सैनिकों में नवजीवन तथा प्रेरणा का संचार करते रहे।
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