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आजादी के बाद खेलों की बदरंग स्थिति
सौकरोड़ से ज्यादा आबादी वाले इस देश में आमतौर पर खेल अब भी बुरे हाल में ही हैं। खेल के जो महकमे बनाये गये वे भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता की भेंट चढ़ चुके हैं। खेलों की तरक्की के लिए बनाया गया भारतीय खेल प्राधिकरण सफेद हाथी में तब्दील हो चुका है। खेल संघ खेलों की तरक्की से ज्यादा आपसी लड़ाई और अकुशल तौर-तरीकों के परिचायक ज्यादा रहे हैं। पिछले तीस सालों से केंद्रीय सरकार ने अलग से खेल का एक मंत्री बनाने की परम्परा शुरू की लेकिन उपलब्धि के नाम पर उसका कामकाज भी ऐसा नहीं कि जिक्र किया जा सके।
भारतीय खेलों की मौजूदा बदहाली पर बात करने से पहले ज्यादा जरूरी है कि ये जानें कि आजादी के पहले या बाद के शुरुआती बरसों में हमारा रूतबा कितना था।
हॉकी ताज गया, लाज गई
हॉकी में हम बेताज बादशाह थे। ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम के जाने का मतलब ही था कि स्वर्ण पदक जीतकर लौटना। पहली बार भारतीय हॉकी टीम ने 1927 के एम्सटर्डम ओलंपिक में हिस्सा लिया। उसके साथ ही हमारा स्वर्णिम सफर भी शुरू हो गया। इसके बाद 1947 तक हमने चार स्वर्ण पदक जीते। फिर 1952 और 1956 में दो स्वर्ण पदक और जीते। इसके बाद हालांकि भारत ने दो सोने के तमगे हॉकी में जरूर हासिल किये लेकिन इस खेल की चमक फीकी पड़नी शुरू हो चुकी थी। 1970 ओलंपिक में हमने आखिरी बार किसी तरह हॉकी का गोल्ड तो जीता, लेकिन तब जबकि दुनिया की प्रमुख टीमें उसमें शिरकत करने नहीं आईं थीं। जरा सोचिये पिछले तीस सालों से हम किसी भी पदक के आस-पास नहीं फटक पाये हैं। हॉकी का स्तर और सुविधाओं में इस कदर गिरावट आई है कि हमारी जगह दुनिया की पहली आठ टीमों में भी नहीं बन पा रही। हॉकी के एक पूर्व खिलाड़ी कहते हैं कि सरकार की बेरूखी भी इस हाल के लिए कम जिम्मेदार नहीं है। इसके अलावा हॉकी संघ की अदूरदर्शी नीतियों और नकारेपन ने भी इसका बेड़ा गर्क करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। भारतीय हॉकी के पूर्व कप्तान एमपी सिंह ने पिछले दिनों स्वीकार किया कि अब हॉकी को बेहतर करने का दावा भयभीत ज्यादा करता है। लगता है कि हमारे पास न तो योजना है और न ही टैलेंटपूल।
हॉकी के एक और पुराने दिग्गज परगट सिंह ने कुछ दिनों पहले कहा था कि हॉकी के साथ बिना सोचे-समझे जितने प्रयोग हो रहे हैं, उससे इस खेल का हाल और खराब ही होता जा रहा है।
एक जमाना था कि जबकि हर छोटे शहर और कस्बे तक में मैदानों पर बच्चे हॉकी खेलते दिख जाया करते थे। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि हमारे पास तीन चार दशक पहले तक भी इस राष्ट्रीय खेल का ढांचा और जमीनी स्तर था, जो दुर्भाग्य से अब खत्म हो चुका है। भारतीय शैली की हॉकी अलग ही तरह की हॉकी थी। 5-3-2-1 की संरचना से खेली जाने वाली शैली में हमारे खिलाड़ी बेहतरीन ड्रिबलिंग और तीखे पासों से विरोधी टीमों को पास फटकने भी नहीं देते थे। अब हम यूरोपीय शैली की नकल करते हैं और कहीं के नहीं रहे। कांग्रेस सरकार के खेल मंत्रियों से पूछा जाना चाहिए हॉकी के इस बुरे हाल के बाद भी क्या सरकार की ओर से कभी इस खेल को बेहतर करने की पहल की गई? क्या हॉकी को उबारने का कोई ब्लू प्रिंट तैयार हुआ? यही नहीं अब तो देश में हॉकी के जो गिने-चुने एस्ट्रोटर्फ लगाये गये हैं, वो खुद खराब हालत में हैं।
फुटबाल एशिया तक में डब्बा गोल
अब जरा फुटबाल की ओर नजर दौड़ा लेते हैं। क्या आपको मालूम है कि इंग्लैण्ड में मोहन बागान क्लब को इंग्लैंड के फुटबाल क्लबों की बराबरी का माना जाता था। 1911 में मोहन बागान ने ईस्ट यर्कशायर क्लब को हराकर आईएफए शील्ड प्रतियोगिता जीती थी। यही नहीं उस दौर में बागान ने ब्रिटेन की कई धुरंधर टीमों को हराया था। इंग्लैंड के अखबारों तक ने बागान के उन ग्यारह खिलाडि़यों की जमकर तारीफ की थी, जो पूरी तरह देसी थे। बागान ने उस दौरान विदेशी टीमों को हराते हुए अपने घर में कई प्रतियोगिताएं जीती थीं। 1952 में भारत की फुटबाल टीम एशियाई फुटबाल चौंपियन थी। अब फुटबाल में हम एशिया में भी कहीं नहीं हैं।
उम्मीद थी कि देश को आजादी मिलने के बाद भारत एशिया में तो खेल की बड़ी ताकत बनेगा ही। अफसोस कि नेहरू सरकार और उसके बाद की कांग्रेस शासित सरकारों की अव्यावहारिक नीतियों के चलते हम बढ़त गंवाते चले गये। गौरतलब है पहली बार एशियाई खेलों का सिलसिला भारत में शुरू हुआ। तब जापान के बाद भारत के एथलीटों का दबदबा जमकर जाहिर हुआ। स्वर्ण पदकों के साथ भारत दूसरे नंबर पर था। सब उस समय मानते थे कि भारत ने अगर अपने खेल क्षेत्रों का सुनियोजित विकास किया तो एशिया में उसे रोकने वाला कोई नहीं है। दुर्भाग्य देखिये कि नेहरू को ये तो लगता था कि हम खेलों की बड़ी ताकत बन सकते हैं लेकिन उसके लिए बुनियादी तौर पर सुविधाएं देने का काम न तो उन्होंने किया और न ही अन्य सरकारों ने। खेलों को लोग हिकारत से देखने लगे। हमारे देश में ये जुमला खूब चल निकला- ह्यखेलोगे कूदोगे होगे खराब-पढ़ोगे, लिखोगे बनोगे नवाबह्ण। किसी भी ठीक घर का बच्चा खेलों में नहीं भेजा जाता था। मध्यमवर्गीय परिवारों में खेलों से कहीं अधिक महत्व पढ़ाई पर दिया जाता था। साठ के दशक तक आते-आते खिलाडि़यों को भी महसूस होने लगा कि सरकार चाहती ही नहीं कि खेलों का विकास हो। साठ और सत्तर के दशक में खिलाडि़यों के पास न कोच हुआ करते थे और न ही सुविधाएं। खिलाडि़यों को उस जमाने में तो खेल से पैसे मिलते ही नहीं थे। खेलों के दम पर नौकरी पाने के भी अवसर नहीं थे। लिहाजा भारत में खेल बेमौत दम तोड़ने लगे। हालांकि हॉकी की लोकप्रियता तब भी बनी हुई थी।
क्रिकेट बाकी सबका खेल खतम
सत्तर के दशक में क्रिकेट की बढ़ती लोकप्रियता ने अन्य खेलों को धकियाना शुरू कर दिया। पांच दिन का टेस्ट क्रिकेट बेशक खेलों के नाम पर बोरियत ही ज्यादा पैदा करता था लेकिन ये साहबों का खेल था। साहबों से उसे खूब बढ़ावा भी मिला। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने इस खेल की ह्यमार्केटिंगह्ण और धन का प्रबंधन भी ज्यादा चतुराई से किया। क्रिकेट का छा जाना कोई बुरी बात बेशक नहीं लेकिन उसके चलते दूसरे खेलों के विकास पर असर जरूर पड़ा।
कॉमन ह्यवेल्थह्ण से खेल
पिछले दिनों हमारी सरकार ने राष्ट्रमण्डल खेलों की मेजबानी पर करीब हजार करोड़ रुपये खर्च कर डाले। राष्ट्रमण्डल खेल जनता के पैसों को डकारने का जरिया ही बने। दावा किया गया था कि इन खेलों के बाद हमारी खेलों में क्रांति हो जायेगी। राष्ट्रमण्डल खेल हुए तीन साल बीत चुके हैं। उसके जरिए तो भारतीय खेलों की कोई तस्वीर नहीं बदली। उल्टे राष्ट्रमण्डल खेलों की तरक्की से ज्यादा भ्रष्टाचार का प्रतीक अधिक बने। दुनियाभर में इससे हमारी जगहंसाई भी कम नहीं हुई। इन खेलों के लिए बेतहाशा धन खर्च करके जो स्टेडियम बनाये गये थे, वो अब बर्बादी के आलम में हैंं। उनका रखरखाव ठीक ढंग से नहीं हो रहा। राष्ट्रमण्डल खेलों के समय आयात किये गये महंगे उपकरण जंग और धूल फांक रहे हैं।
धमक ड्रैगन की
ये हकीकत है कि एक जमाने में भारत और चीन के खेलों के स्तर में कोई खास अंतर नहीं था लेकिन चीन केवल एशिया ही नहीं बल्कि दुनिया की बड़ी खेल शक्ति है। माना जा रहा है कि अगले ओलंपिक में चीन पदकों की दौड़ में अमेरिका को पछाड़ कर नंबर वन बनने का माद्दा रखता है। चीन ने ये सब एक दिन में नहीं किया बल्कि ये सब उन्होंने किया अपनी एक सुव्यवस्थित खेल नीति और उसके क्रियान्वयन के जरिेए। दुनिया की सबसे बड़ी खेल ह्यप्रैक्टिस लैबह्ण आजकल चीन में है, जहां बच्चों को बचपन से ही छांटकर बड़े पैमाने पर ट्रेनिंग दी जाती है और उन्हें तराशा जाता है। फिर उन्हें भविष्य के चौंपियन के रूप में ढाला जाता है। इसके लिए चीन अपने बजट का एक बड़ा हिस्सा खेलों की व्यवस्था पर खर्च करता है। इस पैसे से वहां खेलों की अत्याधुनिक ढांचागत सुविधाएं खड़ी की गई हैं। आधुनिक उपकरण जुटाये गये हैं। खेल पर बड़े पैमाने पर शोध होता है, ह्यस्पोर्ट्स मेडिसिनह्ण पर शोध होता है। एक खास बात उनके खेल संघों को सरकार नियंत्रित करती है। पदाधिकारियों की जवाबदेही तय है। कोई बिना अच्छा परिणाम दिये कुर्सी से कई दशकों तक चिपक कर नहीं बैठ सकता। चीन अगर खेलों में ताकतवर बन चुका है, तो इसका श्रेय उसकी खेल नीतियों को ही जाता है, जो केवल और केवल उनका बनाया हुआ है और एक खास बात, चीन के खेलों में विदेशी कोचों के लिए पिछले दो तीन दशकों से कोई जगह नहीं, सारी कमान देसी कोचों के हाथ में है।
ऐसी ही खेल नीति कभी रूस और जर्मनी में बनाई गई थी। अमेरिका में खेलों की सबसे आधुनिक सुविधाएं हैं, वहां फेडरेशन पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं लेकिन किसी भी पदाधिकारी को संघ में अपने पद पर चार साल से ज्यादा रहने का अधिकार नहीं, लिहाजा बदलाव होता ही है, जिससे फायदा ये होता है एक बेहतर व्यवस्था अपने आप चलती है।
क्या आपने गौर किया है कि हमारे देश की साठ साल की आजादी में कोई ऐसी व्यवस्था खड़ी की गई है, जिसने बहुतायत में खिलाडि़यों की पौध पैदा की हो? ऐसे खिलाड़ी सामने लाये हों, जो दमदार ट्रेनिंग से निकलकर आये हों, जिन्हें उभारने में उनकी प्रतिभा से कहीं ज्यादा व्यवस्था का हाथ रहा हो? इसका उत्तर निराशाजनक होगा। पिछले दो दशक में हमारे देश के चंद खिलाडि़यों ने अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर दमदार प्रदर्शन करके अपनी जगह तो बनाई है, लेकिन ये वह खिलाड़ी हैं, जो अपनी व्यक्तिगत प्रतिभा और घर के सहयोग से यहां तक पहुंच पाये। या इसका श्रेय चंद उन कोचों को दिया जा सकता है, जो खुद जुनून की हद तक व्यक्तिगत स्तर पर ही खिलाड़ी तराशने में लगे हैं।
भारतीय खेलों का रहस्यलोक
भारतीय खेलों के रहस्यलोक का ढांचा कुछ इस तरह का है-हर खेल के प्रबंधन और प्रोत्साहन का जिम्मा उसके संघ का है। खेल प्राधिकरण का काम उपकरणों, प्रशिक्षण शिविरों और कोचों के माध्यम से हर खेल संघ को मदद पहुंचाना माना जाता है और हर संघ से संबंध रखने के लिए उसके पास अलग-अलग परियोजना अधिकारी हैं, प्राधिकरण पर ही खेल संबंधित योजनाएं बनाने और उन पर अमल करने की जिम्मेदारी भी है। मंत्रालय इन सबके लिए धन उपलब्ध कराता है, लेकिन होता उल्टा है।
सीधी बात ये है कि 1972 में दिल्ली एशियाई खेलों के समय भारतीय खेलों के उद्घार के लिए बनाया गया भारतीय खेल प्राधिकरण यानि साई एकदम ही नाकाम रहा है। ज्यादातर पैसा इसकी संरचना पर ही खर्च हो जाता है, इसके ऊपरी पदों पर आमतौर पर ऐसे नौकरशाह बैठे हैं, जिन्हें खेलों या खिलाडि़यों से खास मतलब है नहीं। सो प्राधिकरण की भूूमिका से खिलाड़ी भी नाराज हैं और खेल संघ भी। लेकिन ऐसा नहीं है कि हमारे खेल संघ दूध के धुले हुए हैं। यहां खेलों के विकास के अलावा सब कुछ होता है।
सरकार बेशक अपनी पीठ ठोक ले, लेकिन खेलों में जितना पैसा निवेश करना चाहिए और खेलों की संरचना का रखरखाव करने के लिए जो गंभीरता और व्यावसायिकता चाहिए वो शायद पर्याप्त नहीं है। इस देश के खेल ढांचे में आमूलचूल बदलाव की जरूरत है, तभी इस देश में खेल क्रांति जैसी बात देखी जा सकती है, अन्यथा तो इसे भूल ही जाइये। संजय श्रीवास्तव
वरिष्ठ पत्रकार
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