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उत्तराखण्ड में लम्बे प्रवास से लौटे संघ के सह सरकार्यवाह डा. कृष्ण गोपाल–
उत्तराखण्ड में आयी विपदा में संघ के सेवा कार्यों का प्रत्यक्ष मुआयना करने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह डा. कृष्ण गोपाल काठमाण्डू प्रवास पर गए, जहां पाञ्चजन्य के काठमाण्डू प्रतिनिधि राकेश मिश्र ने उनसे बात की। यहां प्रस्तुत है उस बाचतीत के मुख्य अंश-
उत्तराखण्ड में क्या अनुभव आया?
उत्तराखण्ड में जो त्रासदी हुई है, वह इतिहास की एक अभूतपूर्व घटना है। जून 16 व 17 के बाद वहां की स्थिति और हृदय विदारक दृश्य देखकर ऐसा लग रहा था कि दस हजार से अधिक लोग इसमें मरे होंगे। सरकार अगर समय पर सचेत हुई रहती तो बहुतों का जीवन बचाया जा सकता था एवं उन्हें बाढ़ में फंसने से बचाया जा सकता था। लेकिन सरकार समय रहते नहीं चेत पाई, सरकार को जो करना चाहिए था, उसकी योजना नहीं बना पाई। दूसरी ओर, जो जीवित थे लेकिन घायल थे या घिर गये थे, उनको वहां से सकुशल निकालने में सेना और आईटीबीपी के जवानों ने अपनी जान पर खेलकर सराहनीय काम किया। इसके साथ-साथ हमारे स्वयंसेवकों ने भी अपनी जान जाखिम में डालकर प्रशंसनीय काम किया है।
स्वयंसेवकों ने किस प्रकार के सेवा कार्य किये?
प्रारम्भ में तो तीन-चार प्रकार के कार्य करने की आवश्यकता थी । लेकिन सबसे आवश्यक और बड़ा काम था, जो तीर्थ यात्री फंसे थे, उनको किसी प्रकार निकालना। क्योंकि न उनको आगे बढ़ने के लिए कोई रास्ता था और न सुरक्षा की स्थिति। जंगल में भगवान भरोसे वे लोग जहां-तहां पड़े थे। उनको खोजना और सुरक्षित निकालना आवश्यक था लेकिन आसान नहीं। हैलीकॉप्टर से तो कई दिनों बाद तीर्थयात्रियों ने जाना शुरू किया। हैलीकॉप्टर जब जाने भी लगा तो वह फंसे तीर्थयात्रियों तक पहुँच नहीं पाता था। जंगल और पहाड़ों पर किसी जगह हैलीकॉप्टर को उतारा भी जाता थो तो फंसे हुए लोग हैलीकॉप्टर से बहुत दूर होते थे । थके-हारे , भूखे-प्यासे, बूढे-बच्चे तीर्थयात्रियों को मीलों चल कर हैलीकॉप्टर या हैलीपैड तक पहुँचना पड़ता था। स्वयंसेवकों ने अनेक तीर्थयात्रियों को अपने कंधे और पीठ पर लाद कर कई मीलों चल उन्हें हैलीपैड और हैलीकॉप्टर तक पहुँचाने का काम किया। सेना के जवान और आईटीबीपी के जवानों के साथ मिलकर हमारे स्वयंसेवकों ने ऐसे कठिन कार्यों को अंजाम दिया, नहीं तो उन लोगों को बच पाना सम्भव नहीं था। इसके बाद दूसरा आवश्यक काम किया गया फंसे तीर्थयात्रियों तक राहत सामग्री पहुँचाने का। बड़ी संख्या में स्थानीय लोग भी फंसे हुए थे। स्वयंसेवक राहत सामग्री लेकर उन तक पहुँचे।
तीसरा, जहां-जहां हमारे विद्यालय एवं केन्द्र थे, वहां वहां हमारे स्वयंसेवकों ने सहायता शिविरों का संचालन कर रखा था। साथ ही, एक हेल्प लाइन भी खोलकर देश भर में सूचना प्रेषित की जा रही थी, फंसे हुए तीर्थयात्रियों से उनके संबंधियों व घरों का नम्बर लेकर यात्रियों की अवस्था से उनको सूचित कराया जा रहा था।
कितने स्वयंसेवकों ने इस सेवा कार्य में सक्रिय सहभागिता की होगी?
सेवा कार्य में सक्रिय रूप से जुटे स्वयंसेवकों की निश्चित संख्या अभी बताना मुश्किल है, क्योंकि कई स्थानों पर सेवा का कार्य चल रहा है । सेवा कार्य होने वाली जगहों पर ठीक से टेलीफोन सम्पर्क भी नहीं हो पा रहा है । फिर भी मेरा अनुमान है कि कम से कम 5 हजार स्वयंसेवक और विश्व हिन्दू परिषद, विद्याभारती जैसे हमारे भिन्न-भिन्न संगठनों के कार्यकर्ता सेवा कार्य में सक्रिय रहे।
संघ और स्वयंसेवकों के द्वारा किये जा रहे सेवा कार्यों के बारे में लोगों की कैसी प्रतिक्रियाएँ आपको देखने को मिलीं?
स्थानीय लोगों को तो अच्छी तरह मालूम हो गया है कि सेना, आईटीबीपी और स्वयंसेवकों के अलावा वहां सेवा करने के लिए और कोई भी नहीं था। प्रशासन नाम की कोई चीज थी ही नहीं। प्रशासन का कोई तारतम्य भी नहीं था। प्रशासन ने फंसे हुए तीर्थयात्रियों को निकालने और उन तक राहत सामग्री पहुँचाने के लिए कोई पूर्वाधार भी नहीं खड़ा कर सका था। इसलिए, चूंकि विद्यालय हमारे स्वयंसेवक चलाते हैं, गांव-गांव में संघ की शाखाएँ हैं, तो वहां काम करने वाले स्वयंसेवकों ने आपस में तारतम्य मिलाकर बखूबी सेवा कार्य किया। हमारे सेवा कार्य से प्रभावित होकर दूर-दूर से लोग टेलीफोन कर हमारे स्वयंसेवकों को बधाई दे रहे हैं। इसी तरह जो हजारों तीर्थयात्री सकुशल अपने घरों को पहुँच गये हैं, उन्होंने भी बधाई दी है और स्वयंसेवकों के सेवा कार्य की सराहना की है।
वहां जनजीवन सामान्य होने में कितना समय लग सकता है?
इस पर विचार करने से पूर्व सोचना होगा कि वहां जो इतनी बड़ी यात्रा निकलती है और लाखों की संख्या में तीर्थयात्री आते हैं, उनकी सुरक्षा कैसे होगी? सडक ऐसे बनानी होगी जिससे वह फिर से न बहे। जगह-जगह पर तीर्थयात्रियों को ठहरने के लिए सुरक्षित स्थान बनाने होंगे। अच्छे अतिथि गृह बनाने होंगे। धर्मशालाएँ बनानी होगी जिससे जरूरत पड़ने पर हजारों तीर्थयात्री ठहर सकें। सुविधा सम्पन्न चिकित्सालय बने जिससे कि अगर कोई तीर्थयात्री बीमार पड़ता है तो उसे अविलम्ब चिकित्सा सुविधा उपलब्ध हो सके । सरकार के पास सभी तीर्थयात्रियों का विवरण रहना चाहिए, ताकि किसी भी प्रकार की परेशानी के समय सभी प्रकार की सहायता उपलब्ध हो सके ।
क्या सरकार सजग होती तो क्षति को रोकने और पीड़ितों को बचाने का कोई उपाय किया जा सकता था?
सन् 2004 में वैज्ञानिकों ने कहा था कि कभी भी तेज बारिश होने पर ऊपर का हिमखण्ड (ग्लेशियर) नीचे खिसक सकता है, और उसका दबाव पड़ने पर गांधी सरोवर फट सकता है। यह खबर अखबार में भी छपी थी। उस खबर में स्पष्ट लिखा गया था कि यदि सरोवर फटेगा तो मंदिर को छोड़ कुछ नहीं बचेगा। सरकार की जानकारी में यह बात जरूर थी कि कभी भी ऐसी विनाशलीला ही सकती है। दूसरी बात, नदी के आस पास की बहुत सी जमीन ऐसी है, जिस पर निर्माण कार्य नहीं होना चाहिए। बीस साल, तीस साल बाद या कभी भी नदी अपनी सफाई स्वयं करती है। नदी के सतह में जमे हुए मलबे व नदी के प्रवाह को अवरोधित करने वाली वस्तुओं को स्वयं हटा डालती है।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकार ने विकास के नाम पर सारे जंगल काट डाले। जबकि घने जंगल और बड़े-बड़े पेड़ मिट्टी और पत्थरों को रोक कर रखते थे, बांधकर रखते थे, कटाव नहीं होने देते थे, नदी में मलबे का ढेर नहीं लगता था। परन्तु, पेड़ों के कटने से, जंगलों का सफाया होने से बिना रोकटोक पानी तेज बहाव बनकर नदी में आ जाता है। सरकार को आगे ध्यान रखना है कि जो जंगल कट गये हैं, वहां फिर से बृक्ष कैसे लगाये जाएं।
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