उत्तराखंड की ऐतिहासिक आपदा पूरे देश का सच से साक्षात्कार कराने वाली घटना है। बादलों की इस गर्जना, हिमालय की इस धसकन में दिल्ली-देहरादून के कई ऐसे किले-कंगूरे ढह गए जिनके पार जनता को कभी नहीं दिखता था, अब सब दिख रहा है। सत्ता गलियारों का सब झूठ बह गया, सच समाज के सामने है।
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उत्तराखंड की ऐतिहासिक आपदा पूरे देश का सच से साक्षात्कार कराने वाली घटना है। बादलों की इस गर्जना, हिमालय की इस धसकन में दिल्ली-देहरादून के कई ऐसे किले-कंगूरे ढह गए जिनके पार जनता को कभी नहीं दिखता था, अब सब दिख रहा है। सत्ता गलियारों का सब झूठ बह गया, सच समाज के सामने है।

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Jun 29, 2013, 12:00 am IST
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सम्पादकीय : झूठ बहा, सच सामने है

दिंनाक: 29 Jun 2013 12:16:52

भागीरथी के थपेड़ों ने पहला और नींव हिलाने वाला झटका राज्य सरकार को दिया। 'नंदी' के प्रदेश को 'इंडियाबुल्स' की तर्ज पर चला रहे कारपोरेट कर्णधारों की शैली संदेह और सवालों के घेरे में है। यह बात उजाकर हो चुकी है कि गंगा के 'जल और जन' की बजाय सरकार ने कंपनी जगत के हितों की चिंता की। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने अपनी ऑडिट रिपोर्ट में अलकनंदा और भागीरथी के प्रवाह को बाधित करतीं और पहाड़ियों को भारी नुकसान पहुंचातीं पनबिजली परियोजनाओं पर सरकार को चेताया था। साफ कहा था कि भीषण विनाश की स्थिति में आपदा प्रबंधन जैसी कोई तैयारी राज्य में नहीं है। 'कैग' की चेतावनी पर सोने वाले जब दिलासे की पुड़िया बांटने आए तो लोगों ने उन्हें दुत्कार दिया। 'जलप्रलय' के बाद फंसे हुए तीर्थयात्रियों को दो हजार रुपए प्रतिदिन की नकद सहायता का कैसा हवाई वादा हुआ, राहत कार्य के लिए सरकारी अमला कैसे कई दिनों तक पहुंचा ही नहीं, यह सबने देखा। लोगों की तिलमिलाहट यह देखकर और बढ़ी कि शव पंचनामे के इंतजार में सड़ने लगे। समय से डीएनए नमूने उठाते तो मृतकों की पहचान हो सकती थी, किंतु टीम केदारनाथ पहुंची ही नहीं। बिना सही संख्या बताए, जाने कितने मृतकों का गुपचुप सामूहिक अंतिम संस्कार कर दिया गया।…मुट्ठियां बांधे तमतमाए लोग सड़कों पर खड़े हैं।

इस धमक में दूसरा परकोटा गिरा प्रधानमंत्री कार्यालय का। प्राकृतिक आपदा के खतरों को चिन्हित करने वाला वैज्ञानिक नक्शा तक हमारे पास नहीं है, यह बात सुनकर दुनिया हैरान है। आठ वर्ष से राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण बना हुआ है। सात वर्ष से कानून भी है। प्रबंधन के मुखिया खुद प्रधानमंत्री हैं, लेकिन आज तक राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना नहीं बनी। सरकार के सबसे संवेदनशील चेहरे के पीछे की सुस्ती और अकर्मण्यता, प्राधिकरण का सच और यूपीए सरकार की कार्यशैली की कई पर्तें इस एक आपदा से उघड़ गईं।

इस वज्रवृष्टि में कांग्रेस के 'युवराज' का किला भी ढह गया। पार्टी के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि इस ऐतिहासिक त्रासदी के दौरान सात दिन तक राहुल गांधी कहां लापता थे? ऐसी खबरें हैं कि वे भारत में थे ही नहीं। विदेश में 'बर्थडे' मना रहे थे। यदि यह सच है तो बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। सार्वजनिक जीवन में रहते हुए शीर्ष पद के आकांक्षी व्यक्ति की ऐसी लुकाछिपी ने पूरी पार्टी की फजीहत करा दी है। हफ्ते भर बाद आपदाग्रस्त क्षेत्रों में उनका 'चार–चार मिनटी' दौरा, घंटी बजने के बाद आने और उचक–उचकर चेहरा दिखाने वाले बच्चों जैसा था। ऐसी बचकानी हरकत लोगों में गुस्सा भरती है। लोग नाराज हैं। 'राहुल बाबा' की गैरहाजिरी का नोटिस इस देश के युवाओं ने विभिन्न सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट पर लिया है।

हालांकि, खोटा सिक्का दोनों ही तरफ से खोटा होता है लेकिन फिर भी, इस दैवी उलट-पलट में जनता ने सत्ता के अलग-अलग चेहरों के कामकाज को उलट-पलटकर देख लिया है। इस आपदा के बाद किस का सियासी सिक्का कब तक चलेगा, यह जनता तय करेगी।

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