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बलिदान दिवस (18 जून) पर विशेष
ईस्ट इंडिया कंपनी ने धीरे-धीरे भारत के अनेक छोटे-छोटे राजाओं को अपने अधीन कर लिया और देश 'कंपनी बहादुर' के इशारों पर चलने को विवश था। अथवा यह कहें कि कुछ देशी राजाओं ने थोडी-सी सुख-सुविधाओं के मोह में विदेशियों के आगे हथियार डाल दिए और अंग्रेजों की जी-हजूरी में ही अपना जीवन धन्य मानने लगे। ऐसे ही वातावरण में महान कवियित्री सुभद्रा कुमारी चौहान के शब्दों में-
गुमी हुई आजादी की,
कीमत सबने पहचानी थी।
दूर फिरंगी को करने की,
सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन् सत्तावन में,
वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह
हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झांसी वाली रानी थी।
लक्ष्मीबाई का बचपन का नाम मणीकर्णिका था। प्यार से उसे मनु कहा जाता था। बाजीराव पेशवा मनु की सुंदरता तथा चपल स्वभाव के कारण प्यार से उसे छबीली कहकर पुकारते थे। इसलिए ही यह पंक्ति प्रसिद्ध है- कानपुर के नाना की मुंहबोली बहन छबीली थी। नाना बाजीराव के सुपुत्र थे। लक्ष्मीबाई का जन्म सन् 1835 में वाराणसी में हुआ था। इनकी जन्मतिथि निश्चित नहीं है। कुछ संदर्भों में 19 नवम्बर है तो कहीं 16 नवम्बर। लक्ष्मीबाई के पिता का नाम मोरोपंत तांबे तथा माता का नाम भागीरथी बाई था। इनके दादा कृष्ण राव तांबे पेशवा की सेना में एक उच्च अधिकारी थे। बचपन में मनु नाना और राव साहब के साथ मलखम्भ, कुश्ती, तलवार, बंदूक आदि चलाने के साथ तैराकी और घुडसवारी आदि में भी हिस्सा लेती थी। उसने बचपन में ही हिन्दी, मराठी, संस्कृत आदि भाषाएं भी सीख लीं। जब मनु चार वर्ष की थी तभी उनकी माता संसार से विदा हो गईं। पिता मोरोपंत ने मां का कर्तव्य भी निभाया और बेटी को इतिहास तथा पुराणों की कथाएं सुनाईं। इस कारण बचपन से ही इस बालिका के हृदय में देशभक्ति का भाव अंकुरित हो गया, जो समय के साथ बढ़ता ही गया।
सुभद्रा कुमारी चौहान ने लिखा-
नाना के संग पढ़ती थी वह,
नाना के संग खेली थी
बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी
उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथाएं
उसको याद जुबानी थी।
मनु के बचपन की दो प्रसिद्ध घटनाएं हैं। मनु नाना और तात्या टोपे के साथ घुड़सवारी करने गई। रास्ते में मनु और नाना घोड़े से गिर गए। अपनी चिंता न करते हुए उसने नाना की मरहम-पट्टी की और घोड़े पर बैठाकर ले आई। जब मोरोपंत ने नाना की चोट पर चिंता व्यक्त की तब मनु ने कहा- 'इतनी छोटी-सी चोट पर इतनी घबराहट? तो क्या युद्ध रेशम की डोरियों और कपास की पोनियों से हुआ करते थे।' इसी घटना के बाद नाना हाथी पर बैठकर गए, तब मनु ने भी हाथी पर बैठने की जिद की, पर पिता ने समझाया, 'तेरे भाग्य में हाथी की सवारी नहीं।' मनु यह सुनकर भड़क कर बोली- 'मेरे भाग्य में एक नहीं दस हाथी हैं।'
समय के साथ और रीति-नीति के अनुसार मनु का विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव के साथ हुआ। राजा गंगाधार राव अधिकतर राग-रंग में मस्त रहते थे। अंग्रेजों की कूटनीति तथा देश की गुलामी की ओर उनका ध्यान ही नहीं था। पर मनु से लक्ष्मीबाई बनी महारानी झांसी ने राजमहल की सभी सेविकाओं को सहेली का दर्जा दिया और उन्हें युद्ध विद्या का प्रशिक्षण देना प्रारंभ कर दिया। विवाह के तीन वर्ष पश्चात लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया, पर तीन महीने पश्चात ही वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। 1853 में महाराज गंगाधर ने एक बेटा गोद लिया और उसे दामोदर राव नाम दिया गया। इसके पश्चात उनका स्वर्गवास हो गया।
यहीं से लक्ष्मीबाई के जीवन का संघर्षकाल प्रारंभ हुआ। लार्ड डलहौजी ने दत्तक पुत्र को मान्यता न देने का संदेश भेजकर रानी को पांच हजार रुपये की 'पेंशन' के साथ राजमहल खाली करने का आदेश दे दिया। पर लक्ष्मीबाई के कंठ से भारत की वाणी मुखर हुई- 'मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी।' महारानी को अंग्रेजों के साथ ही पारिवारिक द्वेष का भी सामना करना पड़ा। रानी एक वर्ष तक अंग्रेजों से सशस्त्र संघर्ष करती रहीं। जनरल ह्यू रोज ने झांसी पर हमला किया। लक्ष्मीबाई वीरता से लड़ीं, पर उन्हें पड़ोसी राज्यों ने सहयोग नहीं दिया। ग्वालियर और टीकमगढ़ के राजाओं ने अंग्रेजी सेना की मदद की। इस बीच रानी का अपना ही एक सैनिक अधिकारी अंग्रेजों से मिल गया, अन्यथा कभी भी झांसी अंग्रेजों के हाथ न जाती।
रानी के बहादुर तोपची गुलाम गौस खान तथा खुदाबख्श अपने जान की बाजी लगाकर तोपखाना संभालते रहे। इनके सेनापतियों में जवाहर सिंह तथा रघुनाथ सिंह का नाम उल्लेखनीय है। तात्या तो उनके गुरू और सेनानायक थे ही। इस युद्ध में रानी की नारी सेना की प्रमुख सुंदर, मोतीबाई, जूही तथा झलकारी जैसी बहादुर और गुप्तचरी में निपुण वीरांगनाओं में से अधिकांश वीरगति को प्राप्त हुईं। रानी किला छोड़ना नहीं चाहती थीं, पर अपने विश्वसनीय सैनिक सरदारों का अनुरोध स्वीकार कर अपने पुत्र दामोदर को अपनी पीठ पर बांधकर दांतों में घोड़े की लगाम दबाकर हाथों में नंगी तलवारें लेकर शत्रु सैनिकों का संहार करती हुई किले से निकल गईं और गुप्त मार्ग से कालपी होती हुईं ग्वालियर की तरफ बढ़ीं। इनके साथ राव साहब और तात्या टोपे आदि भी थे। ग्वालियर के महाराज सिंधिया और बांगा के नवाब से इन्होंने सहयोग की मांग की, पर वे सहमत नहीं हुए। परिणामस्वरूप रानी ने ग्वालियर के तोपखाने पर हमला बोल दिया। ग्वालियर के स्वतंत्रता-प्रेमी सैनिकों ने उनका साथ दिया, विजय भी मिली, पर राग-रंग में मस्त रहने के आदी राव साहब ने जीत का जश्न मनाना प्रारंभ कर दिया। पर रानी ने अपनी दो बहादुर सखियों-काशीबाई तथा मालती बाई लोधी के साथ कुछ सैनिकों को लेकर पूर्वी दरवाजे पर मोर्चा संभाल लिया।
17 जून को जनरल ह्यू रोज ने ग्वालियर पर हमला किया, पर अंग्रेजों की शक्तिशाली सेना भी रानी की व्यूह रचना को तोड़ नहीं पाई। पीछे से तोपखाने और सैनिक टुकड़ी के साथ जनरल स्मिथ रानी का पीछा कर रहा था। इसी संघर्ष में रानी की सैनिक-सखी मुंदर भी शहीद हुई। रानी घोड़े को दौड़ाती चली आ रही थी, अचानक सामने नाला आ गया। इसी पर सुभद्रा कुमारी ने लिखा-
तो भी रानी मार काट कर
चलती बनी सैन्य के पार,
किंतु सामने नाला आया,
था वह संकट विषम अपार
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था,
इतने में आ गए अवार
रानी एक, शत्रु बहुतेरे,
होने लगे वार–पर–वार
घायल होकर गिरी सिंहनी
उसे वीर गति पानी थी।
अंग्रेज सैनिकों ने रानी के सिर पर पीछे से प्रहार किया और दूसरा वार उसके सीने पर। चेहरे का हिस्सा कटने से एक आंख निकलकर बाहर आ गई, पर ऐसी स्थिति में भी लक्ष्मी ने दुर्गा बनकर अंग्रेज घुड़सवार को यमलोक भेज दिया। सुभद्रा जी ने लिखा-
लक्ष्मी थी या दुर्गा थी
वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते
उसकी तलवारों की धार
किंतु स्वयं इस प्रहार के साथ ही घोड़े से गिर गई। रानी के साथ यह दुर्घटना नए घोड़े के कारण घटी अन्यथा रानी शत्रुओं की पकड़ से बहुत दूर पहुंच जाती। अंतिम समय में भी रानी ने रघुनाथ सिंह से कहा, 'मेरे शरीर को गोरे न छूने पाएं।' रानी के विश्वासी अंगरक्षकों ने दुश्मन को उलझाए रखा और शेष सैनिक घायल रानी को बाबा गंगादास की कुटिया में ले गए, जहां बाबा ने रानी के मुख में गंगाजल डाला और हर-हर महादेव तथा गीता का श्लोक बोलते हुए रानी ने प्राण त्याग दिए। बाबा ने अपनी कुटिया में ही रानी की चिता बनाकर उसको अग्नि देव को समर्पित कर दिया। रघुनाथ सिंह शत्रु को भरमाने के लिए रात भर बंदूक चलाता रहा और अंत में वीरगति को प्राप्त हुआ। साथ ही काशीबाई भी शहीद हुई। यह दिन 18 जून, 1858 का था।
सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता ने रानी का जीवन चरित्र घर-घर, गली-गली और पूरे देश में पहुंचा दिया। वह लिखती हैं-
अभी उम्र कुल तेइस की थी,
मनुज नहीं अवतारी थी।
हमको जीवित करने आई
बन स्वतंत्रता–नारी थी। …
जाओ रानी याद रखेंगे
ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान
जगाएगा स्वतंत्रता अविनासी
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