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कुसीर् का हो गया, सकल विश्व में खेल।
कुर्सी को मत छोड़ना, शाला हो या जेल।।
करनी हो मध्यस्थता, कीजै तनिक ख्याल।
बनने पाए यह नहीं, जी का ही जंजाल।।
जायदाद पर बाप की, जमकर लड़े कपूत।
मां सोचें किस तरह, रिश्ते हों मजबूत।।
भाव समर्पण चाहिए, दिल से दिल के बीच।
बेल बढ़ेगी मेल की, दूर हटेगी कीच।।
भूमि अगर बंटती रही, बनते रहे मकान।
हमें उगाना पड़ेगा, हथेलियों पर धान।।
कौन दशा तेरी हुई, बतला मेरे गांव।
पनघट सूने–से पड़े, दुखी नीम की छांव।।
जीवन में जी हो तभी, वन होंगे जब खूब।
पनप न पाएगी कभी, प्रदूषणों की दूब।।
सोच नपुंसक हो गयी, घृणा रही है चीख।
जंगल कभी न मांगता, हरियाली से भीख।।
तोड़फोड़ से मंत्री, सदा मनाएं हर्ष।
हरजाना प्रजा भरै, टैक्स बढ़े हर वर्ष।।
कर सरकारी नौकरी, हुई निकम्मी देह।
सूखा जाए नेह-जल, बनता जाए गेह।।
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