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मुद्दों से मुंह चुराने में माहिर कांग्रेस एक बार फिर अपनी नाकामियों से देशवासियों का ध्यान हटाने की कोशिश में नजर आ रही है। कांग्रेस के बारे में यह धारणा बहुत पुरानी और पुष्ट है कि जब भी उसे अपनी कोई नाकामी भारी पड़ती दिखती है, वह उससे लोगों का ध्यान हटाने के लिए नया मुद्दा उछाल देती है। पिछले कुछ समय की उसकी चालें भी यही बताती हैं। अपनी नाकामियों को रेखांकित करने वाले मुद्दों से जनता का ध्यान हटाने के लिए कभी उसने सहयोगी-समर्थक दलों को शिखंडी की तरह इस्तेमाल किया तो कभी चिंतन की नौटंकी और कभी 'युवराज' की ताजपोशी का नाटक।
विपक्षी नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप उछलवा कर अपना दागी दामन छिपाने की कांग्रेसी अदा तो पुरानी है। जरा याद करें कि संसद के शीतकालीन सत्र से पहले अल्पमत वाली मनमोहन सिंह सरकार द्वारा बहुब्रांड खुदरा क्षेत्र में 51 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी देना कितना बड़ा मुद्दा था? भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी सरकार द्वारा डीजल की कीमत में एकमुश्त पांच रुपये लीटर की वृद्धि और सब्सिडी वाले रसोई गैस सिलेंडरों की संख्या साल में छह तक सीमित कर दिये जाने पर भी राजनीतिक गलियारों से लेकर जन साधारण तक गुस्सा साफ नजर आ रहा था।
बैसाखियों का सहारा
पूरा देश उद्वेलित था और विपक्ष एकजुट। सांप्रदायिकता बनाम पंथनिरपेक्षता के नाम पर विपक्ष को विभाजित करने की सरकार की साजिश भी नाकाम हो गयी थी। विपक्ष मत विभाजन के प्रावधान वाले नियम के तहत इस मुद्दे पर चर्चा के लिए अडिग था। अल्पमत में होने के अहसास वाली सरकार ने अपनी साजिश को अंजाम देने के लिए कई दिन तक संसद की कार्यवाही बाधित होने दी, पर मत विभाजन के साथ चर्चा के लिए तभी मानी, जब सपा-बसपा को पटा कर अपने पाले में कर लिया। अक्सर संसद ठप करने के लिए विपक्ष को कठघरे में खड़ा करने वाली सरकार और कांग्रेस इस बार अपनी कारगुजारी पर मौन थी। सड़क पर विरोध का नाटक कर संसद में सरकार बचाने वाली इन बेनकाब बैसाखियों की जड़ में सीबीआई है, यह बात एक बार फिर साबित हो गयी। पर बात सिर्फ इतनी ही नहीं थी। पटकथा पूरी राजनीतिक नौटंकी की लिखी गयी थी।
देश के घरेलू बाजार के साथ-साथ किसानों को भी चौपट कर दे सकने वाले इस प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मुद्दे से ध्यान हटाने के लिए कांग्रेस-बसपा-सपा ने मिल कर अनुसूचित जाति-जनजातियों के लिए सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में भी आरक्षण का कार्ड चला। देश की सर्वोच्च अदालत द्वारा यह आरक्षण असंवैधानिक ठहराते हुए रद्द कर दिये जाने के बाद बसपा इसी मुद्दे में अपना राजनीतिक पुनरुद्धार देख रही है। वंचित वर्ग के वोट बैंक को वापस पाने की कांग्रेस की मंशा भी किसी से नहीं छिपी है, जबकि सपा को इस आरक्षण का विरोध करना राजनीतिक रूप से ज्यादा लाभदायक लगता है। सपा के अलावा कोई भी दल इस आरक्षण के विरुद्ध नहीं है, फिर भी विधेयक के बजाय विवाद खड़ा करने के मकसद से इन तीनों दलों ने मिल कर संसद में न सिर्फ हंगामा किया, बल्कि राज्यसभा में तो अशोभनीय परिदृश्य प्रस्तुत करने से भी परहेज नहीं किया गया।
इस तरह छल-कपट से किसी तरह संसद का शीतकालीन सत्र निपटा तो 16 दिसंबर 2012 को देश की राजधानी दिल्ली में चलती बस में हुए सामूहिक बलात्कार कांड ने पुलिस की नाकामी के साथ-साथ सरकार की संवेदनहीनता को भी बेनकाब कर दिया। महिलाओं की सुरक्षा और पीड़िता को न्याय के लिए युवा सड़कों पर थे, जबकि पुलिस उन पर आंसू गैस के गोले और लाठियां बरसा रही थी, और सरकार हमेशा की तरह मौन थी। प्रधानमंत्री को ही इस बर्बर घटना पर मौन तोड़ने में हफ्तों लग गये। वैसे कटु सत्य तो यह है कि सरकार की ओर से बर्बर दमन के लिए दिल्ली पुलिस की पीठ ही थपथपायी जा रही थी। जब देश-दुनिया में हर जगह दिल्ली पुलिस की थू-थू हो रही थी, देश के गृह सचिव दिल्ली पुलिस आयुक्त के साथ बैठकर पुलिस को शाबाशी दे रहे थे ।
नहीं सीखा सबक
अण्णा हजारे के जन लोकपाल आंदोलन के बाद हाल के दिनों में यह दूसरा मौका था जब जनाक्रोश इतना मुखर हो गया कि सत्ता गलियारों में काबिज लोगों के अपने घर-दफ्तर तक आने-जाने वाले रास्ते ही सील करवा दिये। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की सरकार का जनता से ही ऐसा डर बहुत कुछ कह देता है, पर सत्ताधीश हैं कि कोई सबक सीखने को तैयार नजर नहीं आते। तभी तो चिंतन शिविर के नाम पर भी कांग्रेस ने जयपुर में नये साल में जो कुछ किया, वह नाटक-नौटंकी ही ज्यादा नजर आया।
कांग्रेस और केंद्र सरकार में प्रमुख पदों पर काबिज लोगों के इस बहु प्रचारित चिंतन शिविर से जो निकला, वह भी असली ज्वलंत मुद्दों से ध्यान भटकाने की कोशिश भर ही है। मसलन राहुल गांधी को महासचिव से उपाध्यक्ष बना कर ऐलान किया गया कि अब वह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के बाद पार्टी में विधिवत् नंबर दो बन गये हैं, जबकि सच यह है कि यह ऐलान करने वाले जनार्दन द्विवेदी ने ही कुछ समय पहले मीडिया से साफ-साफ कहा था कि अनेक महासचिवों में से एक होते हुए भी राहुल ही कांग्रेस में नंबर दो हैं, इस बाबत किसी तरह की गलतफहमी की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए।
ऐसे में सवाल उठता है कि जब राहुल के नंबर दो होने में किसी गलतफहमी की गुंजाइश ही नहीं थी तो फिर चिंतन शिविर के नाम पर यह नाटक क्यों? जवाब मीडिया की सुर्खियों और एजेंडा में आये बदलाव से मिल जाता है। मीडिया की पूरी चिंता अब उन राहुल की राजनीति तक सिमट कर रह गयी लगती है, जो लगभग एक दशक से सक्रियता के बावजूद कोई छाप नहीं छोड़ पाये हैं। जहां तक वरिष्ठता का सवाल है तो नेहरू परिवार के ही पीछे चलने के लिए अभिशप्त कांग्रेस में तो यह सवाल ही बेमानी है।
निराधार आरोप
चिंतन शिविर में केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा को लेकर स्तरहीन टिप्पणी भी कांग्रेस की इसी सुनियोजित साजिश का हिस्सा नजर आती है। शिंदे ने किसी 'रपट' को अपने दावे का आधार बताया था, लेकिन खुलासे के नाम पर समझौता एक्सप्रेस, मालेगांव, मक्का मस्जिद के मामले ही गिनाये, जिनमें अभी तक साबित कुछ भी नहीं हो पाया है।
फिर भी इस दुर्भावनापूर्ण व निराधार आरोप से कांग्रेस का यह मंसूबा तो पूरा होता नजर ही आ रहा है कि भ्रष्टाचार, महंगाई और अराजकता जैसे अहम् मुद्दों से हट कर मीडिया की बहस राहुल की राजनीति और 'हिंदू आतंकवाद' के कृत्रिम मुद्दों के इर्द-गिर्द सिमट गयी है। कांग्रेस के इस खतरनाक खेल से संप्रग सरकार को ही राहत नहीं मिली है, सीमा पार से हमारे देश में आतंकवाद का प्रायोजक पाकिस्तान भी खुश है। पाकिस्तान के आंतरिक मंत्री रहमान मलिक से लेकर मंुबई पर आतंकी हमलों के सूत्रधार लश्कर-ए-तोयबा के सरगना हाफिज सईद तक ने शिंदे के बयान को कवच की तरह इस्तेमाल करते हुए कह दिया है कि उन्हें तो अकारण बदनाम किया जा रहा है, जबकि भारत में आतंकवाद शिंदे की बताई वजह से है।
सरकारें अक्सर खुद को बनाये रखने की चिंता से ग्रसित रहती हैं, लेकिन इसके लिए देश-समाज के सरोकारों को ही नहीं, राष्ट्रीय सुरक्षा को भी दांव पर लगा देने वाली यह संभवत: दुनिया की पहली सरकार होगी। इस अपराध बोध से ग्रस्त असुरक्षा की भावना की शिकार सरकार की सत्तालोलुपता का ही परिणाम है कि देशवासियों के दमन के लिए साम-दाम-दंड-भेद, हर हथकंडा इस्तेमाल करने वाली सरकार पाक सैनिकों द्वारा दो भारतीय सैनिकों की गला काट कर बर्बरतापूर्वक हत्या कर दिये जाने के बावजूद पाकिस्तान सरकार को सख्त संदेश देने की बजाय मिमिया रही है कि संबंध सुधार की प्रक्रिया जारी रहनी चाहिए।
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