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अपने किए कायोंर् को विज्ञापित करना, उत्पादों का प्रचार करना तथा अपनी संस्थाओं के सद्कायोंर् को जनसाधारण तक पहुंचाने की चाह हर व्यक्ति में रहती है, इसमें कुछ अनुचित भी नहीं है। समय-समय पर विज्ञापनों के ढंग बदलते रहते हैं, लेकिन भाव वही रहता है। कभी ढोल बजाकर प्रचार किया जाता था, तो कभी छोटे-छोटे पत्रक बनाकर चौक-चौराहों पर खड़े होकर बांटने का प्रचलन था। धीरे-धीरे यही पत्रक समाचार पत्रों के माध्यम से लोगों के घरों में पहुंचने लगें चौक-चौराहों में बड़े-बड़े बोर्ड लगाकर भी वस्तुओं, व्यक्तियों और संस्थाओं का परिचयात्मक प्रचार किया जाता रहा है। रेडियो अर्थात आकाशवाणी भी इस प्रचार का एक साधन बन गया था। लेकिन जैसे ही दूरदर्शन तथा अन्य इलेक्ट्रानिक मीडिया के चैनल सामने आए तो विज्ञापन जगत पर उनका पूरा अधिकार हो गया।
वैसे भी सभी जानते हैं कि सुनने-पढ़ने से अधिक प्रभाव देखने का होता है। साहित्य जगत में भी श्रव्य काव्य से ज्यादा दृश्य काव्य की छाप गहरी होने की बात स्वीकार की गई है। अब आज के विज्ञापनों की बात की जाए तो ऐसा लगता है जैसे टीवी दर्शकों को प्रतिदिन, प्रतिपल बहुत सा झूठ निगलने को दे रहा है। क्योंकि आमजन ने मनोरंजन के लिए टेलीविजन का सहारा लिया है और अब तो टेलीविजन तथा उसके कार्यक्रम दिनचर्या का एक अपरिहार्य हिस्सा ही बन गए हैं। अपनी रुचि के अनुसार कार्यक्रम अलग-अलग देखे जा सकते हैं, दिन में एक बार नहीं, अनेक बार हमें यह सुनना और देखना पड़ता है कि एक अभिनेता किसी ताकत की गोली हाथ में पकड़ कर दर्शकों को यह बताता है कि यह गोली वह पंद्रह साल से खा रहा है, पहले उसके पिता जी भी इसी गोली की दी हुई ताकत से जिंदा रहे और उन्हीं पिता जी के निर्देश से वह भी यह गोली खा रहे हैं।
अब प्रश्न यह है कि कौन विज्ञापन देने और प्रस्तुत करने वालों से यह पूछेगा कि यह गोली कब बनी थी, उनके पिता जी ने कब से खानी शुरू की और सच तो यह होगा कि यह गोली उन्होंने कभी खाई ही नहीं होगी। इस तरह के विज्ञापनों के एक नहीं, अनेक उदाहरण हैं साथ ही लोगों को गुमराह करने का काम भी यह विज्ञापन करते हैं। जब तीन प्रमुख व्यक्तित्व तीन अलग-अलग कंपनियों के पानी शुद्घ करने वाले उपकरणों का प्रचार करते हैं और हरेक का यही कहना है कि जिस मशीन का पानी वह पी रहा है वही पानी इस योग्य है कि पीकर स्वस्थ रहा जाए। सवाल यह है कि कोई अभिनेता हो या खिलाड़ी, जब इन वस्तुओं का प्रचार करता है तो उन्हें तो करोड़ों रुपये मिल गए, लेकिन इसकी क्या गारंटी है कि जो उन्होंने कहा वह सही ही कहा है। एक प्रतिष्ठित अभिनेत्री दीवारों पर रंग-रोगन के लिए किसी उत्पादक कंपनी का प्रचार करते हुए जब यह कहती है कि उसने अपनी घर की दीवारों पर इसी का प्रयोग किया है तो एक बार देखना अवश्य चाहिए कि उसके घर में कौनसी कंपनी का रंग-रोगन प्रयुक्त हुआ है, पर देखने की सुविधा किसी को मिलती नहीं।
इसी तरह कोई मसालों को मसाला जगत का बादशाह घोषित करता है, कोई महिला विज्ञापन में यह कहती है कि उसे पति का प्यार तब ही प्राप्त हुआ जब उसने खाने में एक विशेष प्रकार का गर्म मसाला डाल दिया। मुझे तो लगता है कि यह महिला का अपमान ही है कि उसे पति का प्यार भावना से नहीं मिलता है, बल्कि गर्म मसाले के कारण मिलता है। महिलाओं का अपमान करने वाले तो कम विज्ञापन नहीं हैं।, एक युवती विज्ञापन के माध्यम से यह दिखाती है कि एक खास किस्म की क्रीम लगाने से उसकी चमड़ी नरम हो गई और इसी कारण पुरुष साथी उसे प्यार करने लगा और विज्ञापन जगत की सभी सीमाओं को तोड़ते हुए तब झूठ बोला गया जब लंबे और मजबूत बालों की गारंटी देने वाली एक फर्म द्वारा विज्ञापन दे रही महिला के बालों की मजबूती दिखाने के लिए उसे लंबे बालों के साथ ट्रक खींचते हुए ही दिखा दिया। शेख चिल्ली की दुनिया में भी ऐसा संभव नहीं, पर जब जनता चुपचाप देख लेती है और प्रश्न भी नहीं करती तो जनभावनाओं का दुरुपयोग अथवा सदुपयोग करके अपना माल मार्केट में बेचने वालों का दोष कुछ ज्यादा नहीं रह जाता।
कौन नहीं जानता कि आधुनिकता की अतिवादी संस्कृति में भी विवाह के समय युवक-युवती का चाहे रस्म निभाने के लिए ही सही हल्दी, दही व तेल आदि के मिश्रण (उबटन ) का ही लेप किया जाता है, पर विज्ञापन जगत ने इसके स्थान पर रंग-बिरंगी क्रीम दिखानी और लगानी शुरू कर दी हैं। यह ठीक है कि इस प्रकार की औषधि युक्त क्रीम का प्रयोग लोग करते हैं, लेकिन कभी किसी वैवाहिक रस्म में हल्दी का स्थान यह क्रीम आज तक नहीं ले सकी। प्रश्न यह है कि समाज को इस तरह गुमराह करने की आज्ञा भारत सरकार का सूचना व प्रसारण विभाग क्यों देता है? बिस्कुट खाओ और शेर बन जाओ, (एक खास प्रकार का पेय सचिन से भी बड़ा खिलाड़ी बना सकता है) इत्यादि,झूठे प्रचार केवल पैसे कमाने के चक्कर में टीवी चैनल कर रहे हैं। इतना ही नहीं अंधविश्वास और कुरीतियों को बढ़ाने के लिए तरह-तरह के यंत्र-मंत्र जिनका न तो कोई वैज्ञानिक आधार है न ही पौराणिक, उनका धंधा भी इन विज्ञापनों द्वारा ही कर दिया जाता है। ऐसा कोई साधन नहीं जिसके द्वारा उन लोगों पर कार्यवाही हो जिनके यंत्र द्वारा न रोग मिटते हैं, न गरीबी लेकिन यह सच है कि उनकी गरीबी अवश्य मिट जाती है जिन्होंने यंत्र बेचने का काम किया। झूठ और गुमराह करने के लिए उनके विरुद्घ कहां कार्यवाही की जाए, इसके लिए भी तो कोई विभाग विशेष नहीं है। ऐसा होना चाहिए कि जिस टीवी अथवा समाचार पत्रों द्वारा इन विज्ञापनों को प्रसारित किया जाता है उनके द्वारा ही उस एजेंसी का भी पता दिया जाए जहां विज्ञापन झूठे सिद्घ होने पर कार्यवाही हो ।
यह झूठ और गुमराह करने की कहानी बहुत लंबी है। अगर कोई सोना दिखाकर सोने की कीमत लेकर लोहा दे देता है, उसके विरुद्घ तो धोखाधड़ी का केस दर्ज हो सकता है, पर चुनावी घोषणापत्रों में सभी राजनीतिक दलों के नेता बड़े-बड़े सब्जबाग दिखाते हैं, देश को भय,भूख,भ्रष्टाचार से मुक्त करने की बात कहते हैं, पर उनके चुनाव जीतने के बाद वे स्वयं ही जनता को भयभीत करने का काम करते हैं, साथ भ्रष्टाचार भी करते है, लेकिन जनता बेचारी देखती रहती है।और वे किताबें तथा विज्ञापनपट्ट जहां ऐसे विज्ञापन जो दिए गए थे, कहीं रद्दी में पड़े गायब हो जाते हैं और जनता सिसकती रह जाती है।
आज की आवश्यकता यह है कि सरकार द्वारा ऐसा कोई तंत्र अवश्य ही जनता को दिया जाए जहां विज्ञापनी झूठ का शिकार हुए लोग अपनी शिकायत करके राहत पा सकें और वैसे भी विज्ञापन देने वालों पर नियंत्रण होना ही चाहिए। दो दिन पहले यह समाचार था कि सिर पर बाल उगाने के लिए जो दवाई लगाई, उससे रहे-सहे बाल भी खत्म हो गए। ऐसा बेचारा ब्यक्ति कहां जाए, कहां शिकायत करे और कहां मुआवजा पा सके। ज्यादा अच्छा यह है कि जनता ही उन विज्ञापनों को नकार दे जो केवल झूठ के पुलिंदे हैं। जागरूक, सभ्य और शिक्षित समाज से यह आशा की जाती है कि विज्ञापनी झूठ से वे स्वयं को मुक्त रखें और इसका प्रतिकार भी करें।
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