बित्ते भर के चूजे की क्या बिसात कि जंगल के राजा के आराम में खलल डाले़ मगर आजकल ऐसा होता है। यह सूचना तकनीक में क्रांति का ऐसा युग है जहां एक और शून्य की 'यबायनरी' रगड़ से निकली डिजिटल चिंगारी दुनियाभर में फ्लैश लाइट सी कौंध जाती है। यह समय है जब ट्विटर की चिडि़या मांद में दुबके 'राजाओं' को ललकारती है। जनता की जाग यदि राजाओं को झकझोरे तो बौखलाहट स्वाभाविक है। पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की दस्तक के साथ ही आए-मीडिया सर्वेक्षण व्यापक जनजागरण का संकेत कर रहे हैं, केंद्र सरकार की पर्याय पार्टी बुरी तरह बौखलाई हुई है। जन-रुझान बताते सर्वेक्षणों पर रोक की सिफारिश, मीडिया पर झल्लाहट, सोशल मीडिया के पर कतरने की बेचैनी, कांग्रेस की नब्ज बताती है कि क्या कुछ डूब रहा है। विडंबना ही है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए जो शगुन अच्छा है वही इस देश की सबसे पुरानी पार्टी के लिए बुरा प्रतीत होता है। इन सर्वेक्षणों से परेशान कांग्रेस प्रश्न उठा रही है। मगर, खोट कहां है- सर्वेक्षणों के तरीके में, कांग्रेस की नीयत में या फिर यह वास्तव में वंशवादी राजनीति के अवसान का समय है? ट्विटर पर शोभा डे सवाल उछालती हैं- 'सरकार रायशुमारी पर पाबंदी लगा सकती है लेकिन जनता की राय पर?' जवाब में ऐसे ही कुछ और सवालों की गोलिया छूटती हैं और 140 शब्दों का चबूतरा वैचारिक विमर्श की रणभूमि बन जाता है। आभासी दुनिया के रणक्षेत्र भी जब जमीनी सर्वेक्षणों के नतीजों जैसा ही दृश्य खड़ा करते हैं तो सवाल बड़ा हो जाता है- कांग्रेस के प्रति लोगों के इस आक्रोश की वजह क्या है? अंतहीन महंगाई, अकथनीय भ्रष्टाचार, वंशमुग्ध राजनीति, नेतृत्व का नाकारापन या यह सभी कुछ! सूचना के इस युग में कुछ नहीं छिपता, ना नीयत में छिपा मंतव्य ना ही दावों का खोखलापन। जानकारी, तुलना और तुलनात्मक आधार पर बेहतर जानकारी से लैस मुखर मतदाता भारतीय लोकतंत्र की नई पूंजी है। चुनाव से पहले आए जन-रुझान संभवत: इसी बात की पुष्टि भी कर रहे हैं। केंद्रीय खाद्य सुरक्षा के थैले का 25 किलो अनाज छत्तीसगढ़ की 35 किलो की बोरी के सामने छोटा है और खुद कांग्रेस वहां केंद्र की योजना का जिक्र नहीं कर रही। रायपुर में मतदाता जानते हैं। दिल्ली में बिजली के मीटर, पानी के मीटर, आटो रिक्शा के मीटर और इनसे जुड़ीं चौंकाऊ चर्चाओं ने लोगों को जगाने का ऐसा काम किया है जो संभवत: सर्वोत्तम रूप में संगठित विपक्ष भी ना कर पाता। जनता को तीन रुपए किलो अनाज की तस्वीर दिखाने वाली दिल्ली सरकार बिजली कंपनियों पर केवल एक रुपए में कैसी-कैसी बेशकीमती संपत्ति न्योछावर कर चुकी है लोग यह भी जानते हैं और जले बैठे हैं। यह कांग्रेस और गैर कांग्रेसी सरकार के कामकाज की तुलना ही है कि मध्य प्रदेश में सुराज के पर्याय बने शिवराज को मिली ह्यराजसी चुनौतीह्ण भी सर्वेक्षणों के अनुसार जनता दरबार में घुटने टेकती दिख रही है। हद तो यह कि जयपुर की तस्वीर भी कांग्रेस के लिए गुलाबी नहीं है। चुनाव का बिगुल बजने से पहले ही नेतृत्व की उत्साहहीनता ने कांग्रेसी कार्यकर्ताओं में जो हताशा भरी वह राहुल गांधी की चुरू रैली से भी निकल नहीं सकी। चुरू के ही पंकज ओझा जब पूछते हैं कि मैं अपना पहला वोट किसी की 'दादी' की याद में क्यों डालूं ? तो पता चलता है कि चुनावी समर में तकों के तीर कांग्रेस के लिए कितने तीखे हैं। नेहरू की विरासत के स्थूल वंशवादी प्रतीक, एक अंग्रेज अफसर द्वारा स्थापित पार्टी के लिए आज सलीब सरीखे हो गए हैं तो आश्चर्य कैसा? विचार को छोड़ परिवार का पाहुंचा पकड़ना संभवत: कांग्रेस के इस पतन की वजह बना है, वरना क्या वजह है कि सर्वेक्षणों की दुनिया के पितामह पी़सी़ महालनोबिस के विकास मॉडल जिस पार्टी को कभी अकाट्य सत्य लगते थे आज उसे अपने खिलाफ जाते सभी जन सर्वेक्षण झूठे लगते हैं। यह विधानसभा चुनाव मीडिया के सर्वेक्षणों और खुद कांग्रेस का सच से सामना कराने वाला अहम मोड़ साबित हो सकता है, नतीजों का इंतजार कीजिए।
बित्ते भर के चूजे की क्या बिसात कि जंगल के राजा के आराम में खलल डाले़ मगर आजकल ऐसा होता है। यह सूचना तकनीक में क्रांति का ऐसा युग है जहां एक और शून्य की 'यबायनरी' रगड़ से निकली डिजिटल चिंगारी दुनियाभर में फ्लैश लाइट सी कौंध जाती है। यह समय है जब ट्विटर की चिडि़या मांद में दुबके 'राजाओं' को ललकारती है। जनता की जाग यदि राजाओं को झकझोरे तो बौखलाहट स्वाभाविक है। पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की दस्तक के साथ ही आए-मीडिया सर्वेक्षण व्यापक जनजागरण का संकेत कर रहे हैं, केंद्र सरकार की पर्याय पार्टी बुरी तरह बौखलाई हुई है। जन-रुझान बताते सर्वेक्षणों पर रोक की सिफारिश, मीडिया पर झल्लाहट, सोशल मीडिया के पर कतरने की बेचैनी, कांग्रेस की नब्ज बताती है कि क्या कुछ डूब रहा है। विडंबना ही है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए जो शगुन अच्छा है वही इस देश की सबसे पुरानी पार्टी के लिए बुरा प्रतीत होता है। इन सर्वेक्षणों से परेशान कांग्रेस प्रश्न उठा रही है। मगर, खोट कहां है- सर्वेक्षणों के तरीके में, कांग्रेस की नीयत में या फिर यह वास्तव में वंशवादी राजनीति के अवसान का समय है? ट्विटर पर शोभा डे सवाल उछालती हैं- 'सरकार रायशुमारी पर पाबंदी लगा सकती है लेकिन जनता की राय पर?' जवाब में ऐसे ही कुछ और सवालों की गोलिया छूटती हैं और 140 शब्दों का चबूतरा वैचारिक विमर्श की रणभूमि बन जाता है। आभासी दुनिया के रणक्षेत्र भी जब जमीनी सर्वेक्षणों के नतीजों जैसा ही दृश्य खड़ा करते हैं तो सवाल बड़ा हो जाता है- कांग्रेस के प्रति लोगों के इस आक्रोश की वजह क्या है? अंतहीन महंगाई, अकथनीय भ्रष्टाचार, वंशमुग्ध राजनीति, नेतृत्व का नाकारापन या यह सभी कुछ! सूचना के इस युग में कुछ नहीं छिपता, ना नीयत में छिपा मंतव्य ना ही दावों का खोखलापन। जानकारी, तुलना और तुलनात्मक आधार पर बेहतर जानकारी से लैस मुखर मतदाता भारतीय लोकतंत्र की नई पूंजी है। चुनाव से पहले आए जन-रुझान संभवत: इसी बात की पुष्टि भी कर रहे हैं। केंद्रीय खाद्य सुरक्षा के थैले का 25 किलो अनाज छत्तीसगढ़ की 35 किलो की बोरी के सामने छोटा है और खुद कांग्रेस वहां केंद्र की योजना का जिक्र नहीं कर रही। रायपुर में मतदाता जानते हैं। दिल्ली में बिजली के मीटर, पानी के मीटर, आटो रिक्शा के मीटर और इनसे जुड़ीं चौंकाऊ चर्चाओं ने लोगों को जगाने का ऐसा काम किया है जो संभवत: सर्वोत्तम रूप में संगठित विपक्ष भी ना कर पाता। जनता को तीन रुपए किलो अनाज की तस्वीर दिखाने वाली दिल्ली सरकार बिजली कंपनियों पर केवल एक रुपए में कैसी-कैसी बेशकीमती संपत्ति न्योछावर कर चुकी है लोग यह भी जानते हैं और जले बैठे हैं। यह कांग्रेस और गैर कांग्रेसी सरकार के कामकाज की तुलना ही है कि मध्य प्रदेश में सुराज के पर्याय बने शिवराज को मिली ह्यराजसी चुनौतीह्ण भी सर्वेक्षणों के अनुसार जनता दरबार में घुटने टेकती दिख रही है। हद तो यह कि जयपुर की तस्वीर भी कांग्रेस के लिए गुलाबी नहीं है। चुनाव का बिगुल बजने से पहले ही नेतृत्व की उत्साहहीनता ने कांग्रेसी कार्यकर्ताओं में जो हताशा भरी वह राहुल गांधी की चुरू रैली से भी निकल नहीं सकी। चुरू के ही पंकज ओझा जब पूछते हैं कि मैं अपना पहला वोट किसी की 'दादी' की याद में क्यों डालूं ? तो पता चलता है कि चुनावी समर में तकों के तीर कांग्रेस के लिए कितने तीखे हैं। नेहरू की विरासत के स्थूल वंशवादी प्रतीक, एक अंग्रेज अफसर द्वारा स्थापित पार्टी के लिए आज सलीब सरीखे हो गए हैं तो आश्चर्य कैसा? विचार को छोड़ परिवार का पाहुंचा पकड़ना संभवत: कांग्रेस के इस पतन की वजह बना है, वरना क्या वजह है कि सर्वेक्षणों की दुनिया के पितामह पी़सी़ महालनोबिस के विकास मॉडल जिस पार्टी को कभी अकाट्य सत्य लगते थे आज उसे अपने खिलाफ जाते सभी जन सर्वेक्षण झूठे लगते हैं। यह विधानसभा चुनाव मीडिया के सर्वेक्षणों और खुद कांग्रेस का सच से सामना कराने वाला अहम मोड़ साबित हो सकता है, नतीजों का इंतजार कीजिए।
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