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आध्यात्मिकता का अप्रमेय आयाम,

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Sep 15, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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आध्यात्मिकता का अप्रमेय आयाम, हारे को हरिनाम

दिंनाक: 15 Sep 2012 13:55:42

 दिनकर जन्म–दिवस (23 सितंबर) पर विशेष

हारे को हरिनाम 

हुंकार के, टंकार के, अग्नि-ज्वार के कवि रामधारी सिंह 'दिनकर' अपनी अन्तिम कृति 'हारे को हरिनाम' में अपने प्रभु के समक्ष साष्टांग प्रणाम की मुद्रा में दिखते हैं। किन्तु उनकी प्रार्थना कातर याचना नहीं, प्रकृष्ट अर्थना के रूप में दीप्त होती है –

राम, तुम्हारा नाम कण्ठ में रहे

हृदय, जो कुछ भेजो, वह सहे

दु:ख से त्राण नहीं मांगूं।

      मांगूं केवल शक्ति दु:ख सहने की

      दुदिर्न को भी मान तुम्हारी दया

      अकातर ध्यानमग्न रहने की।……….

अपने परिवेश से, अपने परिवृत्त से वह धीरे-धीरे निराश होने लगे थे। संवेदना को जीवन-मूल्य की तरह जीने वाले दिनकर को यह उत्पीड़क अहसास हो रहा था कि इस अति उपयोगितावादी सभ्यता के लिये न दर्शन का महत्व रह गया है, न कविता का। उसके लिये सिर्फ़ उपभोग और उत्पादन के आंकड़े अर्थपूर्ण हैं –

सांख्यिकी बढ़ती पर है

दर्शन की शिखा मन्द हुई जाती है

हवा में बीज बोने वाले हंसी के पात्र हैं

कवि और रहस्यवादी होने की राह

बन्द हुई जाती है।

लेकिन तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद उन्हें कविता से सहज आसक्ति है। वह कवि को शोक की सन्तान मानते हैं और अपनी भावदृष्टि से कविता-पंक्तियों में वेदना के शिशुओं को जन्म लेते देखते हैं। उन्हें महसूस होता है कि कविता किसी भी रस की लिखी जाये, उसके माध्यम से चाहे श्रृंगार की स्वर-लहरियां गुंजित हों अथवा भक्ति की आस्था-तरंगें हिल्लोलित हों, कवि की हर अभिव्यक्ति के पीछे एक स्वयं प्रकाश सावित्री-शक्ति हुआ करती है। इस शक्ति को पाने की वह अच्छी-खासी कीमत भी चुकाता है –

कविता सबसे बड़ा तो नहीं,

फिर भी अच्छा वरदान है।

मगर मालिक की अजब शान है –

जिसे भी यह वरदान मिलता है

उसे जीवन भर पहाड़ ढोना पड़ता है,

एक नेमत के बदले

अनेक नेमतों से हाथ धोना पड़ता है।

'हारे को हरिनाम' में दिनकर जी ने जीवन के विविध छोटे-बड़े विषयों पर अत्यन्त सहज भाव से निश्छल टिप्पणियां की हैं। उनका वैयक्तिक अहम् धीरे-धीरे विस्तीर्ण होता हुआ अनायास ब्रह्मभाव को प्राप्त होता गया है और इसी कारण जगह-जगह उनकी पंक्तियां औपनिषिदिक सूक्तियों में बदल गई हैं। विराट् आस्तित्व के साथ एकात्मता का अनुभव करते हुए वह सबके सुख और दु:ख तथा उत्थान और पतन में अपनी सहभागिता पाते हैं –

वह जो हार कर बैठ गया

उसके भीतर मेरी ही हार है,

वह जो जीतकर आ रहा है

उसकी जय में मेरी ही जय जयकार है।

दिनकर जी को शंखोद्घोष के कवि के रूप में लोक-मान्यता प्राप्त हुई। 'उर्वशी' पर उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला और उनके कामाध्यात्म का दर्शन चर्चा में आया। क्रान्तिमय चिन्तन के वह उद्भट प्रस्तुतकर्ता रहे किन्तु अपनी इस अन्तिम कृति में वह स्वस्तिकर परम्पराओं के पोषक के रूप में अपनी आवाज उठाते हैं। क्रान्ति के नाम पर हर परम्परा का जिद के साथ खण्डन उन्हें अभिनन्दनीय नहीं लगता। वह नवता के मोहाविष्ट संवाहकों को समझाते हैं –

परम्परा को अन्धी लाठी से मत पीटो

उसमें बहुत–कुछ है जो जीवित है

जीवन–दायक है

जैसे भी हो, ध्वंस से बचा रखने लायक है।

पानी का छिछला होकर, समतल में दौड़ना

यह क्रान्ति का नाम है।

लेकिन घाट बांधकर, पानी को गहरा बनाना

यह परम्परा का काम है।

क्रान्ति का प्रवेग और परम्परा की गहनता दोनों अपनी-अपनी जगह वरेण्य हैं, प्रकाम्य हैं किन्तु जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है समन्वय। 'हारे को हरिनाम' में दिनकर जी ने आध्यात्मिकता के अप्रमेय आयाम की अभिव्यक्ति की है और स्वयं एक सुशान्त विराम, एक श्रद्धान्वित प्रणाम बन गये हैं।

 

प्रज्ञा–तन्त्र की पूज्य पूजन परम्परा

छत्तीसगढ़ से प्रकाशित हो रही साहित्यिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक चेतना की संदेशवाहक पत्रिका 'प्रज्ञा-तन्त्र' के साहित्य विशेषांक में वयोवृद्ध साहित्यकार शैवाल सत्यार्थी से सम्बन्धित आलेखों को पढ़कर प्रधान सम्पादक आचार्य डा. गिरधर शर्मा को लिखे गये अपने पत्र की कुछ पंक्तियों को यहां भी प्रस्तुत करता हूं- क्रान्ति के आवेश और शान्ति के उन्मेष की संगमस्थली है शैवाल जी का व्यक्तित्व। उनकी राष्ट्रानुरागिनी चिन्तना, उनकी सर्वकल्याणकारी चेतना, उनकी काव्याकारित भावना और उनकी अप्रतिहत साधना शत-शत स्वर्ण उषाओं से अभिषिक्ति होने की अधिकारिणी है।

पाञ्चजन्य के सहृदय पाठकों के लिये शैवाल सत्यार्थी जी की संज्ञा एक सुपरिचित संज्ञा है। अटल जी के बाल-सखा रहे और कविवर बच्चन जी से अति आत्मीयता के सूत्र में बंधे शैवाल जी ने कविता-कहानी-संस्मरण आदि साहित्य की विविध विधाओं में उल्लेखनीय अवदान किया है। जिस अवस्था में लोग अपनी उम्र का उल्लेख करते हुए अपनी शिथिलता की चर्चा करने लगते हैं, सत्यार्थी जी उसमें भी सक्रियता की प्रेरक परिभाषा बने हुए हैं। वह स्वयं ही सृजनधर्मिता को नहीं जीते, अपने परिवेश में भी उसे ऊर्जस्वित करते रहते हैं, उसकी नव्य धाराओं को संरक्षण देते हैं। अन्त में एक दीप को दिये गये उनके उद्बोधन की कुछ पंक्तियों के साथ उनकी शब्द-साधना को प्रणति निवेदित करता हूं-

दीप! तुम जलो

अन्धकार जले

अहंकार गले

रोशनी तले

अंधेरा रो–रो ढले!

 

अभिव्यक्ति मुद्राएं

दर्द आधा तो कर ही सकते हैं,

जिक्र साझा तो कर ही सकते हैं।

आप बेशक वफ़ा करें न करें,

हमसे वादा तो कर ही सकते हैं।

– राजेन्द्र तिवारी

हर इक बन्धन को मौजों में बहाकर ढूंढ लेता है,

अगर बहता रहे दरिया समन्दर ढूंढ लेता है।

दिखाने को सही रास्ता जलाने को सही दीपक,

 नारायण दीक्षित की 'मधुविद्या' लोकार्पित

 

प्राचीन वैदिक काल के समाज, ज्ञान-विज्ञान और दर्शन पर आधारित वरिष्ठ पत्रकार एवं उ.प्र. विधान परिषद के सदस्य हृदय नारायण दीक्षित की पुस्तक 'मधुविद्या' गत 2 सितम्बर को लोकार्पित हुई। उ.प्र. हिन्दी संस्थान के निराला सभागार में पूर्व केन्द्रीय मंत्री डा. मुरली मनोहर जोशी ने यह पुस्तक लोकर्पित की। कार्यक्रम की अध्यक्षता उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष माता प्रसाद पाण्डेय ने की। डा. मुरली मनोहर जोशी ने इस अवसर पर उपस्थित गण्यमान्यजनों को सम्बोधित करते हुए कहा कि अंग्रेज विद्वान वैदिक ज्ञान को कमतर बताकर भारतीय संस्कृति नष्ट करना चाहते थे। लेकिन स्वामी दयानंद, सायण, सातवलेकर आदि विद्वानों ने ऋग्वेद और वैदिक साहित्य के भाष्य किये। वेदों में विश्व को मधुमय बनाने की स्तुतियां हैं। श्री दीक्षित ने सरल, सुबोध भाषा में 'वेदों की मधुविद्या' को पुस्तक रूप में तैयार किया है। 'मधुविद्या' को अवश्य पढ़ा जाना चाहिए, क्योंकि इससे पता चलेगा कि प्राचीन ज्ञान विज्ञान के सनातन प्रवाह के कारण ही भारत की प्रतिष्ठा है।

अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में विधानसभा अध्यक्ष माता प्रसाद पाण्डेय ने कहा कि श्री दीक्षित भारतीय संस्कृति व ज्ञान-विज्ञान पर निरंतर लिख रहे हैं। 'मधुविद्या' में वैदिक ज्ञान को उन्होंने व्यावहारिक रूप में प्रस्तुत किया है। लखनऊ विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के पूर्व अध्यक्ष ओम प्रकाश पाण्डेय ने कहा कि वैदिक मधुज्ञान, मधुगान को सरल शब्दों में प्रस्तुत कर श्री दीक्षित ने बड़ा काम किया है। पुस्तक की प्रस्तावना प्रस्तुत करते हुए लेखक हृदय नारायण दीक्षित ने बताया कि वैदिक समाज मधुप्रेमी था। भारत मधुमय था। लेकिन आधुनिक समाज मधुहीन (शुगर फ्री) हो रहा है। वैदिक ऋषि विश्व को मधुमय बनाने की हजारों विधियां बता गए हैं। इसी का नाम मधुविद्या है और यह नाम ऋग्वेद से आया है। पुस्तक में दैनिक जीवन से जुड़े विषयों पर कुल मिलाकर 36 निबंध

 

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