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भारत के मुख्य न्यायाधीश एस.एच. कपाड़िया ने अदालतों को प्रशासनिक कामों को अपने हाथ में लेने की प्रवृत्ति पर चिन्ता व्यक्त की है। 25 सितम्बर 2012 को 'संवैधानिक ढांचे का विधिशास्त्र' विषय पर आयोजित एक गोष्ठी में उन्होंने कहा कि हमारे संविधान ने इस देश को चलाने की जिम्मेदारी अदालतों को नहीं बल्कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों को दी है इसलिए उन्हें नीतिगत मामलों में दखलंदाजी करने से परहेज करना चाहिए। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए मुख्य न्यायाधिपति ने कहा कि जनहितवाद को हमने इस सीमा तक खींचकर बढ़ा दिया है कि हम इतने अव्यावहारिक आदेश देने लगे हैं कि अब उन आदेशों को लागू करना असम्भव होता जा रहा है। उन्होंने अदालतों से आग्रह किया कि निर्णय देने से पहले वे इस बात पर जरूर ध्यान दें कि क्या उनके आदेश को लागू करना व्यावहारिक तौर पर सम्भव है?
अदालतें बनीं ढाल
हमारी अदालतों ने आम आदमी की बेहतरी की दिशा में नयी इबारतें लिखी हैं। जनहित वाद के सहारे लाखों गरीब और वंचित लोगों के जीवन के अधिकार की रक्षा की है। बगैर मुकदमा चलाए ही कई वर्षों से जेल में बंद लोगों का उद्धार किया, उन्हें खुली हवा में सांस लेने का अधिकार दिया। जेल और पुलिस अभिरक्षा में किए जाने वाले अत्याचारों से निजात दी है। कई मौकों पर आम आदमी के साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार के खिलाफ अदालतें ढाल के रूप में खड़ी हुयी हैं। पर्यावरण संरक्षण के मामलों में अदालतों ने अपनी पहल के द्वारा वह सब सम्भव बनाया है जिसे मतदाताओं की नाराजगी के भय से कोई भी सरकार नहीं कर पा रही थी। यहां तक कि उपभोक्ता संरक्षण कानून तथा किशोर न्याय अधिनियम जैसे कानूनों को लागू करने के लिए भी अदालतों को ही आगे आकर पहल करनी पड़ी है। इन अच्छाइयों के बावजूद, जैसा कि कई बार होता है, अच्छी पहल कभी-कभी अव्यावहारिकता की सीमा तक पहुंच जाती है, अदालतों के साथ भी ऐसा ही हुआ। शुरू में जो जनहितवाद समाज की बेहतरी के लिए और आपवादिक मामलों में इस्तेमाल होते थे वे धीरे-धीरे सरकारी कामकाज की निगरानी रखने और प्रशासनिक कामों की आलोचना और उनकी कमियों को दुरुस्त करने के लिए इस्तेमाल होने लगे हैं। अपने मुखिया होने के दायित्व का निर्वहन करते हुए मुख्य न्यायाधीश ने उन्हीं कमियों को दूर करने की मंशा से अदालतों से अपनी जिम्मेदारी का अहसास करने का आग्रह किया है।
जिसका काम उसी को साजे
अपने उद्बोधन में मुख्य न्यायाधीश का इशारा उन मामलों की ओर भी था जिनमें उच्च न्यायालय ने गाड़ियों से पार्किंग शुल्क वसूलने, मोटर साइकिल सवारों को हेल्मेट पहनने, आवासीय कालोनियों में साफ-सफाई रखने, शहरों-कस्बों में बन्दरों की समस्या से निजात पाने, पटाखों पर नियन्त्रण रखने, मानवविहीन रेलवे क्रॉसिंग की व्यवस्था करने, कॉलेजों में रैगिंग रोकने, रक्तकोष के रखरखाव, सार्वजनिक जगहों पर धूम्रपान न करने जैसे अनगिनत आदेश दिए हैं, जिनका पालन करवाना उनके लिए संभव नहीं है। कुछ समय पहले अदालत ने देश की नदियों को आपस में जोड़ने जैसा आदेश दे दिया। यह ऐसा काम था जिसे भूगोल, अभियांत्रिकी और पर्यावरण के विशेषज्ञों द्वारा ही अंजाम दिया जा सकता था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि इसका आर्थिक पहलू ऐसा है जिसे केवल सरकार ही सुलझा सकती है। अदालत ने उन सभी जिम्मेदारियों का निर्वहन अकेले कर लिया। कुछ लोगों को न्यायालय के इस तरह के काम बहुत सम्मोहक लग सकते हैं। वे यह भी कह सकते हैं कि यदि सरकार किसी अच्छे काम को हाथ में नहीं ले रही है तो आम आदमी की आस आखिर अदालत पर ही तो टिकी हुयी है। किन्तु इस तरह के आदेशों की सबसे बड़ी खामी यह है कि उनके क्रियान्वयन में सरकारी तंत्र की भूमिका इस सीमा तक है कि अदालत उसकी निगरानी नहीं कर सकती। इस तरह आदेश का अनुपालन नहीं होने पर आम लोगों की निगाह में धीरे-धीरे अदालतों की प्रतिष्ठा में कमी आने लगती है। मुख्य न्यायाधीश ने इसी प्रतिष्ठा को बचाने के लिए अदालतों को अति उत्साह से बचने की सलाह दी है।
कुंआ और खाई
सन् 1993 में एक रोचक मामला सामने आया था। कश्मीर में सेना ने हजरतबल में आतंकियों को चारों तरफ से घेर लिया था। अपनी मुहिम को जल्दी से कामयाब करने के लिए सेना ने उनकी भोजन की आपूर्ति रोक दी। आतंकियों के शुभचिन्तकों ने अदालत की मदद ली। उच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि सभी बन्धकों को कम से कम 1200 कैलोरी वाला भोजन अवश्य दिया जाए। इस आदेश का सेना की मुहिम पर प्रतिकूल असर पड़ा। उसका इससे भी अधिक नुकसान यह हुआ कि सेना के लिए एक ओर कुंआ तथा दूसरी ओर खाई की स्थिति पैदा हो गयी। उच्च न्यायालय के निर्देश का अक्षरक्ष: पालन करने पर सेना के अभियान की धार कमजोर हो रही थी और उच्च न्यायालय के आदेश के उल्लंघन से अदालत की अवमानना होती। दुनिया के इतिहास में ऐसा कभी भी नहीं हुआ कि सेना के किसी अभियान को अदालतों ने नियन्त्रित किया हो। आतंकियों से लड़ाई में समय रहते कार्रवाई और अधिकतम ताकत का इस्तेमाल करने की रणनीति होती है। उसमें किसी तरह की ढील से पासा उल्टा पड़ जाता है। उसमें देश की सुरक्षा दांव पर लगी होती है इसलिए उसका निर्णय सेना को ही करना होता है। अपने उद्बोधन के दौरान मुख्य न्यायाधीश के मन में इस तरह के उदाहरण जरूर रहे होंगे। सम्भवत: वे अपने साथी न्यायाधीशों को ऐसे मौकों की नजाकत को समझने की सलाह देना चाहते होंगे।
दखलंदाजी न हो
ऐसे कई मौके आए जब अदालतों ने कार्यपालिका और विधायिका के कामों में साफ तौर पर दखलंदाजी की। अदालत ने गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों को अनाज दिए जाने के काम की निगरानी अपने हाथ में ले ली। यह सरकारी नीति के क्रियान्वयन से जुड़ा मामला था और उसे तय करने का अधिकार, उसकी विशेषज्ञता तथा उसे लागू करने के लिए जरूरी मानव संसाधन सरकार के ही पास हैं। आखिरकार सरकार को इसका सार्वजनिक तौर पर विरोध करना पड़ा। विधानमंडलों की कार्यवाहियों में भी अदालती हस्तक्षेप के मामले दिन पर दिन बढ़ते जा रहे हैं। झारखंड विधान सभा के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने न केवल विधान सभा की कार्यवाही को संचालित करने का निर्देश दिया बल्कि विधान सभा अध्यक्ष को यह आदेश भी दिया कि केवल उनके द्वारा निर्धारित प्रक्रिया से ही सदन का संचालन होगा, किसी दूसरे विषय पर चर्चा नहीं होगी और पूरी कार्यवाही की वीडियो रिकॉर्डिंग करके अदालत के सामने रपट पेश की जाएगी। यह आदेश संविधान के अनुच्छेद 212 का स्पष्टत: उल्लंघन था, जिसमें कहा गया है कि अदालतें विधानमंडल की कार्यवाही की जांच नहीं कर सकतीं। इस तरह की दखलंदाजियों पर अदालत की सफाई यह होती है कि यदि विधायिका और कार्यपालिका अपने काम को सही ढंग से नहीं करेंगी तो अदालतें हाथ पर हाथ रख कर बैठी नहीं रह सकतीं। मुख्य न्यायाधीश सम्भवत: इस दलील को सिरे से खारिज करते हैं, क्योंकि उन्हें इसके खोखलेपन और दूरगामी नुकसान का अंदाजा है। वे इस बात को जानते हैं कि यह तर्क दोहरी मार करता है। आखिर अदालती व्यवस्था में भी अपने अन्तर्निहित दोष हैं। करोड़ों मामले लम्बित हैं। भ्रष्टाचार के नए मामले सामने आ रहे हैं। यदि सरकार भी इसी दलील का सहारा लेकर उनके काम में दखलंदाजी करे तो यह न तो न्यायपालिका के हित में है और न ही सरकार के। मुख्य न्यायाधीश सम्भवत: इन अरुचिकर परिस्थितियों को बनने से रोकना चाहते हैं। वे संविधान के मर्म को पुष्पित-पल्लवित होते देखना चाहते हैं।
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