मुद्दों के मानसून से मुंह चुराती सरकार
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कमलेश सिंह
देश में कमजोर मानसून और संसद के मानसून सत्र में मुद्दों की झड़ी ने एक बार फिर मनमोहन सिंह सरकार को बेनकाब कर दिया है। न तो उसके पास कमजोर मानसून से प्रभावित लगभग आधे देश के लिए कोई आपात कार्ययोजना है और न ही संसद के मानसून सत्र में उठाये जा रहे मुद्दों पर संतोषजनक जवाब। मौसम विभाग की भविष्यवाणियों को गलत साबित करने वाले कमजोर मानसून के कारण धान आदि सहित कई फसलों की बुवाई बुरी तरह प्रभावित हुई है। देश के खाद्यान्न भंडार में सर्वाधिक योगदान देने वाले पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश मानसून की इस मार पर सरकार से राहत की उम्मीद लगाये बैठे हैं, पर सरकार है कि उसे अपना सिंहासन बचाये रखने की जोड़-तोड़ से ही फुर्सत नहीं है।
संसद में उठे मुद्दे
इसी बीच शुरू हुए संसद के मानसून सत्र ने भी कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार की कलई खोल दी है। यह संसद सत्र ऐसे वक्त शुरू हुआ है, जब असम एक सप्ताह तक हिंसा की आग में जलता रहा, महंगाई की मार पूरा देश झेल ही रहा है तथा काले धन और भ्रष्टाचार के विरुद्ध जन आंदोलनों के प्रति सरकार का रवैया उसे कठघरे में खड़ा करने वाला ही ज्यादा रहा है। स्वाभाविक ही था कि संसद सत्र में ये तमाम मुद्दे मुखर हों। हुए भी, पर सरकार या तो मुंह चुराती नजर आ रही है या फिर 'आक्रमण ही रक्षण का बेहतर उपाय' वाली कहावत को चरितार्थ करती।
मानसून सत्र के पहले ही दिन सत्तापक्ष ने अपने इरादे स्पष्ट कर दिये, जब लोकसभा के वरिष्ठ सदस्य एवं पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी द्वारा असम हिंसा पर पेश स्थगन प्रस्ताव के सवालों से मुंह चुराते हुए खुद संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उनकी एक टिप्पणी पर ही हंगामा खड़ा करा दिया। बेहतर होता कि कांग्रेस हंगामे की बजाय असम हिंसा का कारण बने मूल मुद्दों पर संसद में शांतिपूर्वक गंभीर चर्चा होने देती, पर उससे तो संप्रग की सांप्रदायिक राजनीति ही बेनकाब हो जाती। सो, खुद सोनिया ने आडवाणी की टिप्पणी पर आपत्ति जताते हुए कांग्रेस सदस्यों को हंगामे के लिए उकसाया। आडवाणी की सहमति पर लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने संसदीय कार्यवाही से वह टिप्पणी भी निकलवा दी, लेकिन स्थगन प्रस्ताव पर हुई चर्चा के जवाब से सरकार सदन की चिंताओं का समाधान नहीं कर पायी।
सच से मुंह फेरती सरकार
हैरत और शर्म की बात तो यह है कि सरकार इस सच को स्वीकार करने को ही तैयार नहीं हुई कि इस हिंसा के मूल में बंगलादेश से आकर असम में अवैध रूप से बस गये लाखों मुस्लिम घुसपैठिए हैं। कहना नहीं होगा कि ये लोग स्थानीय निवासियों, जिनमें जनजातीय समाज की बहुलता है, के हितों पर तो चोट कर ही रहे हैं, राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी बड़ा खतरा हैं। असम एक सप्ताह तक हिंसा की आग में जलता रहा। साठ से ज्यादा लोग मारे गये, लाखों पलायन को मजबूर हुए। जाहिर है, इतने व्यापक पैमाने पर हुई हिंसा की जांच भी हो ही रही है, पर यह कितनी निष्पक्ष और सार्थक हो पायेगी, जब असम दौरे पर गये प्रधानमंत्री पहले ही यह प्रमाणपत्र दे चुके हों कि 'जिन्हें अवैध प्रवासी बताया जा रहा है, वे भी भारत के ही नागरिक हैं'। इस संबंध में सरकार के ढुलमुल रवैये का इससे भी पता चलता है कि इस मामले को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में दायर जनहित याचिका के संदर्भ में दाखिल किए गए हलफनामे में सरकार ने माना है कि हालांकि असम में करीब 40 लाख संदिग्ध मतदाता हैं, लेकिन उनके नाम सूची से हटाए जाने संभव नहीं हैं।
आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि संसद के दोनों सदनों में असम हिंसा पर चर्चा के जवाब में भी सरकार का यही रुख रहा। दरअसल जब कांग्रेस ने ही इन 'अवैध प्रवासियों' को सुनियोजित ढंग से बसा कर वोट बैंक तैयार किया है तो फिर उनके मतों से बनने वाली सरकार का रुख इससे उलट हो भी कैसे सकता है। यह कड़वी सच्चाई असम और केन्द्र, दोनों ही सरकारों पर लागू होती है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा असम जाकर 'अवैध प्रवासियों' के प्रति दिखायी गयी हमदर्दी से भी यही सच बेनकाब होता है। उधर, प्रधानमंत्री द्वारा राहत के नाम पर दिया गया 300 करोड़ का पैकेज अधिकांशत: उन्हीं लोगों को राहत पहुंचाएगा जिन्होंने असम को जलाया, क्योंकि बड़ी चालाकी से यही घुसपैठिए बड़ी संख्या में राहत शिविरों में रह रहे हैं। दशकों से अपने ही देश में शरणार्थी बने कश्मीरी हिन्दुओं को उनके घर और सुरक्षा न दिला पाने वाली कांग्रेस की अध्यक्ष घुसपैठिए बंगलादेशियों को जल्दी ही 'घर वापसी' का भरोसा भी दिला आयी हैं।
कांग्रेस की शह पर मुम्बई हिंसा
असम हिंसा की आग पर भी किस तरह राजनीतिक रोटियां सेकी जा रही हैं, मुम्बई इसका एक और उदाहरण है। असम और यहां तक कि पड़ोसी देश म्यांमार में हुई कथित मुस्लिम विरोधी हिंसा पर विरोध प्रदर्शन के लिए कांग्रेस की महाराष्ट्र सरकार ने रजा अकादमी को मुम्बई में रैली की अनुमति दे दी। अनुमति ही नहीं दी, सरकार के दो मंत्रियों सहित कई नेता भी वहां पहुंच गये। इससे बुलंद हुए हौसलों का परिणाम मुम्बई में हिंसा के रूप में सामने आया, जिसमें 45 पुलिसकर्मियों सहित 75 लोग घायल हो गये, बड़ी भारी तोड़-फोड़ हुई, अनेक वाहन फूंक दिए गए, मीडियाकर्मियों से हाथापाई की गई, एक महिला पत्रकार से दुर्व्यवहार किया गया, मीडिया चैनलों की 3 गाड़ियां फूंक दी गईं।
लोकपाल पर अण्णा के अनशन के बाद योगगुरु बाबा रामदेव ने विदेशों से काले धन की वापसी की मांग को लेकर दिल्ली के रामलीला मैदान में उपवास शुरू किया तो स्वाभाविक ही यह मुद्दा भी संसद में गूंजा, पर सरकार ने बजट सत्र में पेश किये गये उस श्वेत पत्र की आड़ लेनी चाही, जिसके बारे में जानकारों का मानना है कि उसमें बताया कम गया है, छिपाया ज्यादा गया है। यह हाल तो तब है जब वर्ष 2009 के लोकसभा चुनावों के दौरान खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 100 दिन में काला धन वापसी के ठोस कदम उठाने का वायदा किया था, जो लगभग एक हजार दिन गुजर जाने के बाद भी अधूरा है।
यह संसद सत्र ऐसे वक्त शुरू हुआ है, जब असम एक सप्ताह तक हिंसा की आग में जलता रहा, महंगाई की मार पूरा देश झेल ही रहा है तथा काले धन और भ्रष्टाचार के विरुद्ध जन आंदोलनों के प्रति सरकार का रवैया उसे कठघरे में खड़ा करने वाला ही ज्यादा रहा है। स्वाभाविक ही था कि संसद सत्र में ये तमाम मुद्दे मुखर हों। हुए भी, पर सरकार या तो मुंह चुराती नजर आ रही है या फिर 'आक्रमण ही रक्षण का बेहतर उपाय' वाली कहावत को चरितार्थ करती।
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