ऐसे निभाया सेवा व्रत
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श्रद्धाञ्जलि–ज्योति स्वरूप
ज्योति जी अब नहीं रहे। गत 28 मई की प्रात: उनका निधन हो गया। रा.स्व.संघ के दिल्ली स्थित केन्द्रीय कार्यालय आने-जाने वाले केन्द्रीय पदाधिकारियों, वरिष्ठ कार्यकर्ताओं एवं स्वयंसेवकों को उनकी कमी अत्यंत खलेगी। केन्द्रीय कार्यालय परिसर में नियमित सेवक हैं, फिर भी कहीं यदि पंखा बेकार में चल रहा है या लाइट अकारण जल रही है तो उसे बंद करते अथवा कहीं कागज का टुगड़ा या पत्ता गिरा पड़ा है तो, उसे झाडू से बुहारते ज्योति जी दिख ही जाते थे, चेहरे पर वहीं सौम्य और विनम्र मुस्कान लिए। सहसा विश्वास ही नहीं होता था कि 90 वर्षीय इस नव दधीच ने अपने जीवन के 69 वर्ष राष्ट्र की सेवा में बिताए हैं। अविवाहित रहकर, नि:स्वार्थ भाव से, बिना किसी मान-अपमान और यश-अपयश की चिंता किए अपने हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति, हिन्दू समाज जिसे हिन्दू राष्ट्र की सेवा का 1943 में उन्होंने जो व्रत लिया, उससे जीवन भर वे रंच-मात्र भी नहीं डिगे। प्रचारक बनने का वह संकल्प भी ऐसा जिसे वे मात्र 1 साल का कहकर चले थे, और अंतिम सांस तक निभाते रहे।
21 जनवरी, 1922 को मेरठ (उ.प्र.) की मवाना तहसील के गांव नगला हरेरू में जन्मे ज्योति जी 5 भाइयों और 4 बहनों में सबसे बड़े थे। इनके पिता श्री रामगोपाल उस कालखण्ड में सेना के अभियांत्रिकी विभाग (एम.ई.एस.) में सेवारत थे। बाल्यकाल में अध्ययन के लिए वे अपने पिता के पास इच्छापुर (प. बंगाल) गए, फिर बैरकपुर छावनी में भी रहकर पढ़े, उसके बाद उच्च अध्ययन के लिए वापस मेरठ आ गए। मेरठ में पढ़ाई के दौरान इनका रा.स्व.संघ से सम्पर्क हुआ और पहली बार 7 नवम्बर, 1939 को तिलक पथ पर लगने वाली शाखा गए। इससे पूर्व 1 अक्तूबर, 1939 को जब वीर सावरकर मेरठ आए थे, तब भी ज्योति जी अपने चाचा श्री जय भगवान के साथ उन्हें सुनने गए थे। वे बताते थे, 'तब सावरकर जी के साथ भाऊराव देवरस और बापूराव मोघे भी आए थे। सावरकर जी ने अपने उद्बोधन में कहा था कि अभी विश्व युद्ध चल रहा है। इस युद्ध का लाभ उठाने के लिए अधिक से अधिक हिन्दू युवकों को सेना में भर्ती होना चाहिए, क्योंकि हमें अपने यहां जिन लोगों से लड़ना है वे युद्ध के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित हैं।' 1940 में जब नेताजी सुभाष चन्द्र बोस पहली बार मेरठ आए तो उनका प्रेरक उद्बोधन भी ज्योति जी ने सुना। इस सबका उनके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा और स्नातक के साथ-साथ संघ का प्रथम, द्वितीय व तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद वे 5 जुलाई, 1943 को रा.स्व.संघ के प्रचारक घोषित किए गए। प्रारंभ में उन्हें निकटवर्ती मुजफ्फर नगर जिले का दायित्व सौंपा गया, फिर जयपुर जिला, फिर सवाई माधोपुर जिला, फिर इन दोनों जिलों के विभाग प्रचारक, फिर 1963 में राजस्थान से जम्मू-कश्मीर आकर वहां के विभाग प्रचारक, इसके बाद 1965 में दिल्ली आकर श्री चमन लाल जी के सहयोगी के रूप में कार्यालय प्रमुख, इसके बाद 1971 में कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) के एक चिकित्सालय का दायित्व, फिर हमीरपुर और बिलासपुर जिले का दायित्व, इसके बाद पंजाब प्रांत के कार्यालय प्रमुख रहे। उस समय तक संघ दृष्टि से हरियाणा और दिल्ली पंजाब प्रांत के अन्तर्गत ही आते थे। मार्च, 1979 में जब संघ दृष्टि से दिल्ली प्रांत घोषित हुआ तो ज्योति जी दिल्ली आ गए- 3 अप्रैल, 1979 को, और तब से अंतिम सांस तक यहीं रहे। यहां उन्होंने प्रांत के व्यवस्था प्रमुख का दायित्व भी संभाला और केन्द्रीय अभिलेखागार और पुस्तकालय का भी। उन्हें कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं लगता था- 'काम तो बस काम ही है न, निठल्ला तो नहीं बैठा हूं न' बहुत सहज भाव से कहते थे वे।
ज्योति जी की सेवा चिकित्सा में लगे रहने वाले डा. योगेन्द्र बताते हैं कि, 'राजस्थान में जल की कमी के अनुभवों के कारण वे बहुत सोच-विचारकर ही पानी खर्च करते थे, पानी की बर्बादी उन्हें सहन नहीं होती थी। यहां तक कि तौलिया को भिगोकर, निचोड़कर, शरीर को रगड़ने को ही वे स्नान मानते थे और अधिकांशत: वैसा ही करते थे। इतने मितव्ययी कि सामान्यत: एक धोती के दो हिस्से कर आधा-आधा ही पहनते थे। हां, उनके स्वभाव में किंचित क्रोध भी था, पर क्षणिक ही, जितनी जल्दी क्रोध आता था, उतनी जल्दी शांत भी हो जाता था। पिछले कुछ समय से वे हृदय व मधुमेह (शुगर) सम्बंधी रोगों से जूझ रहे थे पर रोग शैय्या पर न उनके चेहरे पर कभी निराशा दिखी और न ही स्वभाव में झुंझलाहट। वे नियमित औषधि लेते थे और कहते थे कि शीघ्र ही स्वस्थ होकर अपने काम में लगूंगा-भले ही वह काम किसी को अखबार सहेजना दिखे या शाखा में खेल रहे बालकों की चप्पलें सीधी करना।'
जो डा. हेडगेवार के जमाने के स्वयंसेवक हों, श्रीगुरुजी द्वारा दीक्षित प्रचारक हों, जिन्होंने सावरकर और सुभाष को देखा हो, और जिनकी स्मरण शक्ति इतनी तीक्ष्ण हो कि लोग उन्हें 'इन्साइक्लोपीडिया' भी कहते हों, वे ज्योति जी पाञ्चजन्य में गाहे-बगाहे हो गई चूक को बताने, पाञ्चजन्य बगल में दबाए, हाथ में छड़ी लिए, उसी आधी धोती और सूती बंडी में चले आते और बड़े प्यार और स्नेह से गलती भी बताते और उसके आगे-पीछे का इतिहास भी। हम सब अपने उस शिक्षक से अब वंचित हो गए हैं!
28 मई की प्रात:काल उनकी पार्थिव देह को अंतिम दर्शन हेतु केशव कुञ्ज परिसर में रखा गया, जहां विश्व हिन्दू परिषद् के संरक्षक श्री अशोक सिंहल, विद्या भारती के संरक्षक श्री ब्रह्मदेव शर्मा 'भाई जी', उत्तर क्षेत्र संघचालक डा. बजरंगलाल गुप्त, क्षेत्र प्रचारक श्री रामेश्वर सहित अनेक वरिष्ठ कार्यकर्ताओं व अनेक संगठनों के प्रमुखों ने श्रद्धासुमन अर्पित किए। सायंकाल 5 बजे उनका अंतिम संस्कार पंचकुइयां मार्ग स्थित मोक्ष भूमि पर किया गया। उनकी पार्थिव देह को मुखाग्नि उनके छोटे भाई अरविन्द ने दी। अंतिम संस्कार के समय उनके दर्शन हेतु भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री (संगठन) श्री रामलाल, विश्व हिन्दू परिषद् के महामंत्री श्री चंपत राय, वरिष्ठ समाजसेवी आचार्य गिरीराज किशोर सहित बड़ी संख्या में कार्यकर्ता उपस्थित थे। पाञ्चजन्य परिवार की ओर से श्रद्धाञ्जलि स्वरूप उन्हें शत्-शत् नमन्। प्रतिनिधि
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