राहुल के लिए बिछाई सोनिया गांधी ने बिसात
दिंनाक: 16 Jun 2012 14:29:24 |
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माता गुरुतरा भूमे: खात् पितोच्चतरस्तथा
माता का गौरव पृथ्वी से भी अधिक है। पिता आकाश से भी ऊंचा है। –वेदव्यास (महाभारत, वनपर्व,313/60)
इधर चुनाव आयोग ने राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव कार्यक्रम घोषित किया, उधर अगले राष्ट्रपति के लिए नाम तय किए जाने की राजनीति दिलचस्प मोड़ पर पहुंच गई है। शायद यह पहला मौका है जब राष्ट्रपति चुनाव को लेकर अधिकांश दलों के राजनीतिक स्वार्थ इस स्तर तक पहुंच गए हैं कि पद की गरिमा के अनुरूप नाम खोजने की बजाय, 2014 में होने वाले लोकसभा चुनावों और नई सरकार बनाने के समीकरणों को अपने पक्ष में साधने की जुगत में अनुकूल बैठने वाला नाम ढूंढने में ये दल लगे हैं। यह भारत के लोकतंत्र का एक और हास्यास्पद पहलू है। राष्ट्रपति देश की गरिमा का प्रतीक होता है, उसे राजनीतिक मोहरा बनाने की कोशिशें उचित नहीं कही जा सकतीं। नई सरकार पर अंकुश की चाहत और प्रधानमंत्री पद पर स्वयं या अपने चहेते व्यक्ति को बिठाने की लालसा ने ऐसे टकराव का रूप ले लिया है कि किसी नाम पर सभी दलों की सहमति बनना तो दूर, एक–दूसरे के प्रस्तावित नामों को कैसे दौड़ से बाहर किया जाए, इस उधेड़बुन में सभी लगे हैं। पहले प्रणव मुखर्जी पर सहमति बनती दिख रही थी, फिर वे पीछे होते दिखे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, जो परिदृश्य में कहीं भी नहीं थे, का नाम ऊपर ले आया गया। पर सबकी निगाहें कांग्रेस यानी सोनिया गांधी पर थीं कि वह अंत में क्या नाम लेकर सामने आती हैं। इन पंक्तियों के लिखे जाते वक्त, संप्रग की बैठक जारी है, जिसमें प्रणव मुखर्जी का ही नाम तय होने की संभावना जतायी जा रही है।
केन्द्र में पूर्ण बहुमत वाली सरकारों की संभावना क्षीण होती देख गठबंधन की राजनीति को परवान चढ़ाने और उसके दम पर सरकार बनाने में राजनीतिक दल राष्ट्रपति की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण मान रहे हैं। कांग्रेस हो या ममता–मुलायम का नया गठजोड़, सभी इसी आधार पर सोच रहे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का सपना कि अपने बेटे राहुल गांधी की प्रधानमंत्री की कुर्सी पर ताजपोशी देखें, उन्हें ऐसा राष्ट्रपति बनवाने के लिए बेचैन किए हुए है जो 2014 में कांग्रेस का पूर्ण बहुमत न होने की स्थिति में, जिसकी शत–प्रतिशत आशंका है, विपरीत समीकरणों के बीच भी कांग्रेस का प्रधानमंत्री बनवाने यानी राहुल गांधी को सत्तानशीं करने में सारी लोकतांत्रिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर कांग्रेस का साथ दे। 2004 में तत्कालीन राष्ट्रपति अब्दुल कलाम का अनुभव सोनिया गांधी को कचोटता है जब लाख प्रयासों के बावजूद उनकी स्वयं प्रधानमंत्री बनने की संभावनाएं धूमिल हो गईं। अंतत: उन्हें 'त्याग की देवी' की भूमिका में आना पड़ा। इस बार वे ऐसी कोई चूक नहीं चाहतीं और ऐसी बिसात बिछाना चाहती हैं जहां 'युवराज' राहुल गांधी सौ टका प्रधानमंत्री पद पर आरूढ़ हो सकें। इसीलिए वह एक के बाद दूसरे नाम पर राजनीतिक दलों का 'मूड' भांपती रहीं और अपनी पसंद के नाम पर ही दबाव बनाए रहीं।
उधर, मुलायम सिंह और ममता बनर्जी अपने-अपने राज्यों में नई ताकत के साथ उभरने के कारण अपनी राजनीतिक कीमत वसूलने को आतुर हैं तो यह स्वाभाविक ही है। मुलायम सिंह तो अपने पुत्र को उत्तर प्रदेश की सत्ता सौंपकर दिल्ली में अपना भविष्य आंक रहे हैं और उनके आकलन के अनुसार शायद वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियां उन्हें वह हैसियत दे जाएं जिसका सपना वे वर्षों से देख रहे हैं और एक बार तो बस वे उससे दो कदम भर दूर रह गए थे। इसके लिए उनका मनपसंद राष्ट्रपति होना जरूरी है। ममता बनर्जी और मुलायम सिंह के गठजोड़ के पास राष्ट्रपति चुनाव के कुल मत मूल्य का 10 प्रतिशत से ज्यादा होने का अहसास उन्हें अपना दबाव बनाने के लिए उकसा रहा है। इसलिए महत्वपूर्ण प्रश्न यह नहीं है कि राष्ट्रपति कौन हो, बल्कि यह है कि राष्ट्रपति कैसा हो? देश के प्रथम राष्ट्रपति डा.राजेन्द्र प्रसाद ने एक राजनीतिक व्यक्ति होते हुए भी दलगत स्वार्थों से ऊपर उठकर राष्ट्र की अस्मिता और पहचान को गरिमा देने की भूमिका निभाई। यहां तक कि सोमनाथ मंदिर के गौरव को पुनस्स्थापित कराने वाली प्राणप्रतिष्ठा के अवसर पर 'सेकुलरवादी' प्रधानमंत्री नेहरू के विरोध के बावजूद वे सोमनाथ गए और इसे भारत के धर्म व संस्कृति के संरक्षण का महत् कार्य निरूपित किया, इसमें उन्होंने राजनीति को आड़े नहीं आने दिया। कालांतर में डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने राष्ट्रपति पद की उसी गरिमा को और बढ़ाया। राष्ट्रपति राजनीति का मोहरा भर बनकर रहे, यह वही चाह सकते हैं जो राजनीति को सिर्फ सत्ता केन्द्रित ही देखते हैं। राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार राजनीतिक व्यक्ति हो या गैर राजनीतिक, वह मुस्लिम हो या किसी भी अन्य मत-पंथ-जाति का, यह महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि महत्वपूर्ण है यह कि उसकी उपस्थिति मात्र से राष्ट्र का गौरव जगे, उसे देखकर विश्व जाने कि भारत क्या है। इसलिए राष्ट्रपति चुनाव को सत्ता की राजनीति से ऊपर उठकर देखना होगा।
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