गवाक्ष
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विक्रम सम्वत्
अभिनव विक्रम सम्वत्सर का नाम विश्वावसु है। भारतीय सांस्कृतिक चेतना ने अखण्ड काल को विविध इकाइयों मे विभक्त करते हुए विविध संज्ञाओं से अभिमण्डित किया है। कल्प-मन्वन्तर-युग से लेकर सम्वत्सर तक सबकी अपनी-अपनी विशिष्ट श्री है। इस समय श्री भवेतवाराह कल्प चल रहा है, वैवस्वत मन्वन्तर है, कलियुग का प्रथम चरण है, और अब चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (तदनुसार 23 मार्च, 2012) से विश्वावसु नामक विक्रम सम्वत्सर का शुभारम्भ हो रहा है। किसी जमाने के आतंकवादी (आक्रान्ताओं) को पराजित कर और उनका इस राष्ट्र से उन्मूलन कर महाराज विक्रमादित्य ने अपनी इस उपाधि तथा शकारि विशेषण को सार्थकता प्रदान की थी। कृतज्ञ जनमानस ने उनके विक्रम में आदित्य की प्रखरता, ज्योतिर्मयता और लोकपुष्टि की शक्ति का साक्षात्कार करते हुए वर्ष के विधान को उनका अभिधान (नाम) प्रदान किया और इस प्रकार विक्रम संवत् प्रचलन में आया। यह संवत् भारतीय शौर्य का डिण्डिमघोष है, अपराजेय धर्मभाव की उद्घोषणा है और है हर चुनौती का उत्तर देने की उसकी संकल्पवत्ता का जै-जैकार। यह शुभ है कि आत्मविस्मृति के राजरोग से आक्रान्त हमारा समाज एक बार पुन: जागरण की अंगड़ाई ले रहा है और “न्यू इयर सेलीब्रेशन” के समानान्तर नव सम्वत्सर के अभिनन्दन – उत्सव भी आयोजित होने लगे हैं। धार्मिक अनुष्ठान के रूप में तो इसे निरन्तर मनाया जाता रहा है किन्तु अब इसकी साहित्यिक और सांस्कृतिक छवि भी अर्चा और चर्चा का विषय बनी है। नव सम्वत्सर बाह्य प्रकृति के परिवर्तन की ही वर्तनी नहीं है, वह मानवीय अन्त: प्रकृति में शक्ति की उपासना का समारम्भ और अखिल-लोक विश्राम श्रीराम को प्रणाम निवेदित करने का आध्यात्मिक मुहूर्त भी है।
“महाभारत” के अनुसार विश्वावसु चित्ररथ नामक गन्धर्व का पिता है, वेदान्त का ज्ञाता है। ब्रह्मज्ञ याज्ञवल्क्य से जब उसने सर्वोत्कृष्ट तत्व एवं सत्य तथा सर्वोत्तम वस्तु के सन्दर्भ में जिज्ञासा की तो उन्होंने समाधान देते हुए ब्रह्म का ही सत्य, शिव एवं सुन्दर के रूप में प्रतिपादन किया था। हमारी पौराणिक मान्यता विश्वावसु को महर्षि जमदग्नि के उस पुत्र के रूप में देखती है जिसने परम्परागत धार्मिकता का उल्लंघन करते हुए पिता के उस आदेश का पालन करने में असमर्थता प्रकट की थी जिसे स्वयं उसका विवेक अनौचित्यपूर्ण मान रहा था! ऋग्वेद की सुप्रसिद्ध गणपति-वन्दना में “वसो मम” का उच्चारण करते हुए वसु को धन के रूप में स्वीकृति दी गई है तो वाक्सूत में स्वयं वाणी वसु को नागरिक की अर्थवत्ता देते हुए कहती है – अहं राष्ट्री संगमनी वसूनाम् अर्थात् मैं राष्ट्र के नागरिकों को एक सूत्र में संग्रहित करने वाली राष्ट्रभाषा हूं। तैंतीस वैदिक देवों की परिगणना में अष्ट वसु एक महत्वपूर्ण आसन पर विराजते हैं। विश्व का अर्थ सम्पूर्ण होता है, “आ” उपसर्ग समग्र दिशाओं का द्योतक है और वसु सत्वप्रधान नागरिक। वैश्विक नागरिकता की मंगल ध्वनि हमारी संस्कृति के श्वास-प्रश्वास में है। हमारी आर्ष मनीषा गान करती रही है – सर्वा: आशा: मम मित्रा: भवन्तु अर्थात् मैं सभी दिशाओं से मैत्री भाव प्राप्त करूं। किसी जाति-पंथ-वर्ग-प्रान्त की नहीं अपितु सबके कल्याण की कामना हमारी संध्या-प्रार्थनाओं में गुंजित हुई है –
सर्वे भवन्तु सुखिन:
सर्वे सन्तु निरामया:,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु
मा कश्चिद् दुख:भाग्भवेत्।
सभी सुखी हों, सभी निरोगी हों, सभी कल्याण को प्राप्त हों, कोई भी दु:ख का भागी न हो।
इस प्रकार विश्वावसु नामक सम्वत्सर अपनी अर्थ व्यंजना में शुभकामनाओं से भरे उस व्यक्तित्व को निरूपित करता है जो समग्र सृष्टि का मंगल चाहता है, सत्यं-शिव-सुन्दरम् की साधना में संलग्न है, हर अनौचित्य के प्रति अस्वीकृति व्यक्त करता है और स्वयं में गन्धर्व-चेतना अर्थात् गीति-तत्व की तरलता तथा वसुभाव अर्थात् दैवी सम्पत्तियों की अविरलता को जीता है। हमारा राष्ट्र ऐसे ही व्यक्तित्व वाला हो, यही कल्याण-कामना अन्तस् में स्पन्दित हो रही है –
दे हर सोनीली सुबह
नव सुख के संस्पर्श,
नव सम्वत्सर राष्ट्र को
दे अभिनव उत्कर्श।
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अभिनन्दनीय “”नई लेखनी””
हिन्दी ग़ज़ल की हित-चिन्ता से जुड़े कुछ साहित्य सेवियों की एक सार्थक कोशिश है – नई लेखनी। उज्ज्वल प्रेस, कालेज रोड, बरेली (उ. प्र.) से श्री शिवनाथ बिस्मिल एवं ख्याल खन्ना के सुयोग्य सम्पादन में प्रकाशित अर्थ-शुल्क से मुक्त यह पत्रिका अपने ढंग में अनूठी है। हर अंक में समस्त गज़लें किसी प्रदत्त पंक्ति (तरही) की लय-खण्ड में होती हैं और देश के प्रतिभावन्त रचनाकारों के द्वारा एक ही विषय की अलग-अलग चिन्तन-आयामों से प्रस्तुति पठनीय होती है। पिछले अंक की “तरही” पंक्ति थी- “फूल ही फूल नहीं जीवन में, कांटे भी स्वीकार करो।” हिन्दी ग़ज़ल के 85 हस्ताक्षरों ने इस पंक्ति के छन्द-विधान को ध्यान में रखते हुए अपनी-अपनी अभिव्यक्तियां सामने रखी हैं। इनमें प्रतिष्ठित वरिष्ठ रचनाकार भी हैं, कुछ नये नाम भी। कुछ अभिव्यंजनाओं के ये उद्धरण कवि-समाज की दृष्टि को समझने में सहायक होंगे। वयोवृद्ध कवयित्री ज्ञानवती सक्सेना के शब्दों में अग्नितत्व की आराधना का आह्वान है –
भूलो दया-क्षमा की भाषा,
फूलों का संहार करो,
मीत! समय की गति पहचानो,
वाणी को तलवार करो।
तोता मैना कागा कोयल
सबके सब हो गये विदा,
पहले करो सुरक्षित उपवन
फिर कोई त्योहार करो।
इक़बाल आज़र की परिनिश्चित शब्दावली में भारतीय चिन्तन-सरणि के द्वारा प्रतिपादित शाश्वत आदर्शों की अनुगूंज है –
रंगमहल के चित्र बनाने का
क्या प्रतिफल वास्तुविदो!
जिसमें भटके मन रम जाएं
वास्तु वही तैयार करो।
नाज़ प्रतापगढ़ी जीवन के सहज सत्य को प्रदत्त पंक्ति के साथ संग्रहित कर बड़ी ही कुशलता के साथ प्रस्तुत करते हैं –
सुख-दुख हो या धूप-छांव
सब इक दूजे के पूरक हैं,
केवल फूल नहीं जीवन में
कांटे भी स्वीकार करो।
राजेन्द्र चांद दैनान्दिन जीवन को जीने का सलीका सिखलाते हुए श्रम और विश्राम की जुगलबन्दी प्रस्तुत करते हैं –
छह दिन काम करो जी-भरकर
और एक दिन की छुट्टी,
मुख मत मोड़ो श्रम से अपना
हर दिन मत रविवार करो।
दोष न खोजो औरों के तुम
और न दो उपदेश उन्हें,
चांद निहारो अपनी भूलें
और उनका उपचार करो।
अनमोल शुक्ल युग-युग से जन-जीवन में संचारित सन्त-वाणी को कविता के कोष्ठक में निबद्ध कर देते हैं –
सुख कब ठहरा है जीवन भर
दुख की लम्बी रात कहां,
ये तो सन्तों की वाणी है-
जो प्रभु दें, स्वीकार करो।
वरिष्ठ कवि चन्द्रसेन विराट की पंक्तियों से इस टिप्पणी का समापन करते हुए “नई लेखनी” का अभिनन्दन करता हूं कि यह क़दम हिन्दी ग़ज़ल के लिये स्वस्तिकर होगा –
भोर हुई है तो फिर निश्चित
उसकी संध्या भी होगी,
उजियारों को भोग चुके तुम
तम का भी सत्कार करो।
जीवन एक जुगलबन्दी है
सुरतालों का मेल मधुर,
आवश्यक है अपना गायन
वादन के अनुसार करो।द
अभिव्यक्ति मुद्राएं
अच्छे-खासे आदमी को क्या हुआ,
जिसको देखो दिखता है बिखरा हुआ।
बेचने निकला था मैं अपना ज़मीर,
आज फिर खुद से बहुत झगड़ा हुआ।
-हस्तीमल हस्ती
आंधियों के भी पर कतरते हैं,
हौसले जब उड़ान भरते हैं।
-देवी नागरानी
सुख की आहट का जग में,
दुख से मूल्यांकन होगा।
बेटी की किलकारी बिन,
सूना घर-आँगन होगा।
-सन्दीप सृजन
साहित्यिकी
प्रेम भरा सत्कार
गौरव गोयल
जीवन के हर पृष्ठ पर, भरें हम ऐसे रंग
जो भी देखे कह उठे, हमें भी कर लो संग
जात-पांत को छोड़कर, बनें नेक इन्सान
अच्छे कर्मों से बने, इस जग में पहचान
मीठा सबसे बोलिए, रखिये नरम स्वभाव
भर जाएंगे बिन मरहम, दिल के सारे घाव
सूर, कबीर, तुलसी कहें, और कहें रसखान
जिसमें जितनी सादगी, उतना वही महान
झूठ-कपट को छोड़िए, रखिए सच को साथ
दुआ मिलेगी हर तरफ, भर-भर दोनों हाथ
अपने अधरों पर रखें, हर पल हम मुस्कान
अपनेपन के भाव से, दें सबको सम्मान
जिस घर से सबको मिले, प्रेम भरा सत्कार
रहती है बरकत वहां, खुशियां मिलें अपार
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