बात बेलाग
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बात बेलाग
कांग्रेस के “युवराज” राहुल गांधी बड़े हैरान-परेशान थे कि अपनी बदहाली पर उत्तर प्रदेश को गुस्सा क्यों नहीं आता। कभी कुर्ते की बांहें ऊपर चढ़ाकर तो कभी अन्य दलों के वायदों की सूची फाड़कर वह अपने गुस्से का इजहार भी कर रहे थे। उनकी भाव-भंगिमाएं किसी राजनेता की कम, फिल्मी “एंग्री यंगमैन” की ज्यादा नजर आती थीं। मीडिया, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने भी कुछ ऐसा माहौल बनाया कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में मानो कांग्रेस ही चुनाव लड़ रही है और युवराज ही एकमात्र स्टार प्रचारक हैं। आत्ममुग्ध कांग्रेसियों ने मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री पद के खयाली पुलाव भी पकाने शुरू कर दिये थे, पर छह मार्च को विधानसभा चुनाव परिणाम आये तो मतदाताओं का गुस्सा देख चेहरों का रंग उड़ गया। कभी खुद सरकार बनाने तो कभी “किंगमेकर” बनने के सपने देखने वाली कांग्रेस को मतदाताओं ने महज 28 सीटों पर समेट दिया। भंग विधानसभा में कांग्रेस की 22 सीटें थीं यानी “मिशन यूपी” के तहत कभी वंचित की झोपड़ी में रात गुजारने तो कभी दाढ़ी बढ़ाने की नौटंकी और अल्पसंख्यक आरक्षण का साम्प्रदायिक कार्ड खेलने के बावजूद “युवराज” महज छह सीटें ही बढ़ा पाये, जबकि सत्ता विरोधी भावना में बसपा ने 10-20 नहीं, पूरी 128 सीटें गंवायीं। सोनिया-राहुल के संसदीय क्षेत्रों रायबरेली, अमेठी की 10 विधानसभा सीटों में से भी कांग्रेस महज दो सीटें ही जीत पायी, जबकि वहां तो बहन प्रियंका और बहनोई राबर्ट ने बच्चों के साथ डेरा डाला हुआ था। इसके बावजूद कांग्रेसियों का कोरस शुरू हो गया है कि खराब प्रदर्शन के लिए राहुल नहीं, संगठनात्मक कमजोरियां जिम्मेदार हैं। पर इस सवाल का जवाब कोई नहीं देता कि “युवराज” को इन कमजोरियों को दूर करने से किसने रोका था? वैसे अप्रत्याशित रूप से “युवराज” ने मीडिया के सामने आकर हार की जिम्मेदारी ले ली और कहा कि राजनीतिक व्यवस्था को सुधारने की उनकी कोशिशें जारी रहेंगी। पर यह सवाल फिर अनुत्तरित है कि खुद अपने दल की संगठनात्मक कमजोरियां दूर न करने वाले और 40 प्रतिशत टिकटें दलबदलुओं को देने वाले “युवराज” राजनीतिक व्यवस्था में कैसे और क्या सुधार करेंगे?
पंजाब दा जवाब
उत्तर प्रदेश का मोर्चा संभालने वाले “युवराज” “सब कुछ बदल दूंगा” के अंदाज में ही बागी तेवर लेकर पंजाब भी गये। कांग्रेस अक्सर चुनाव से पहले मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं करती, क्योंकि वह तो अंत:पुर की राजनीति से तय होता है, न कि जनाधार से। फिर भी “गेम चेंजर” के अंदाज में राहुल पंजाब में घोषणा कर आये कि कैप्टन अमरिंदर सिंह ही मुख्यमंत्री होंगे। कांग्रेस का कैप्टन खेमा तो हवा में उड़ने ही लगा, मीडिया ने भी इसे “युवराज” का “ट्रंप कार्ड” करार दे दिया। दरअसल हर कोई पंजाब के इस इतिहास पर आश्रित था कि हर चुनाव में सत्ता बदल जाती है, पर भूल गये कि इतिहास से घटनाक्रम नहीं चलता, घटनाक्रम से इतिहास बनता है। सो, पंजाब के मतदाताओं ने नया इतिहास रचते हुए शिरोमणि अकाली दल-भाजपा गठबंधन को लगातार दूसरी बात सत्ता सौंप दी। कभी खुद अकाली रह चुके महाराजा पटियाला कैप्टन अमरिन्दर का न सिर्फ मुख्यमंत्री बनने का अपना सपना टूट गया, बल्कि उनके “युवराज” रण इंदर सिंह तो चुनाव भी हार गये। रण इंदर की यह दूसरी चुनावी हार है। इससे पहले वर्ष 2009 में वह शिरोमणि अकाली दल की श्रीमती हरसिमरत कौर से लोकसभा चुनाव हार चुके हैं।
राजनीति में साख
इसमें दो राय नहीं कि आधुनिक सत्ता केन्द्रित राजनीति में राजनेताओं की साख लगभग रसातल में जा चुकी है, लेकिन हाल में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों ने इस अंधकार के बीच भी उम्मीद की सुनहरी किरण दिखायी है। गोवा में खनन घोटाले समेत भ्रष्टाचार के अनगिनत आरोपों से घिरी दिगंबर कामत सरकार को चलता कर मतदाताओं ने भाजपा के मनोहर पर्रिकर की साफ छवि और विश्वसनीयता पर जनादेश की मुहर लगायी, तो उत्तराखंड में चुनाव से चंद माह पहले ही दोबारा मुख्यमंत्री बनाये गये भुवन चन्द्र खंडूरी की साख भी कांग्रेसी दुष्प्रचार और उससे प्रेरित तमाम राजनीतिक अनुमानों पर भारी पड़ी। ध्यान रहे कि उत्तराखण्ड देश का एकमात्र राज्य है, जहां अण्णा हजारे की परिकल्पना वाले उस जन लोकपाल को कानून बना दिया गया, जिसका मखौल बनाने की कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार हरसंभव साजिश रचने से बाज नहीं आ रही।
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