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इन दिनों गुजरात के चुनाव पर पूरी दुनिया की नजर टिकी है। हर कोई यही चर्चा कर रहा है कि मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के करिश्माई नेतृत्व के सामने मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस कहीं नहीं टिक रही है। इस चिन्ता से कांग्रेसी तो पतले हो ही रहे हैं, पर वे लोग और संगठन, जो अपने को सेकुलर मानते हैं, भी बड़े चिन्तित हो रहे हैं, जो नरेन्द्र मोदी को पिछले 10 साल से 'साम्प्रदायिक', 'हत्यारा' 'मौत का सौदागर' और न जाने क्या-क्या बता रहे हैं। अब ये लोग चुनावी माहौल को बिगाड़ने और भाजपा तथा नरेन्द्र मोदी को बदनाम करने के लिए साजिशें रच रहे हैं। नई दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय ने तो नरेन्द्र मोदी के खिलाफ दुष्प्रचार करने के लिए गुजरात में कई कार्यक्रम करने की घोषणा की है। वहीं कई संगठन पहले से ही माहौल बिगाड़ने में लगे हैं। उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों गुजरात के कई मुस्लिम संगठनों ने घोषणा की थी कि अमरीका में बनी तथाकथित मुस्लिम विरोधी फिल्म को लेकर वहां कोई प्रदर्शन या बन्द का आयोजन नहीं किया जाएगा। किन्तु 'अनहद' और कुछ अन्य गैर सरकारी संगठनों ने गुजरात, विशेषकर पुराने अमदाबाद का माहौल खराब करने का पूरा प्रयास किया। इन लोगों ने मुस्लिमों को भड़काने की कोशिश की। किन्तु प्रशासन की सख्ती से ये लोग अपने मकसद में सफल नहीं हो पाए। इस संबंध में पुलिस ने कांग्रेस की कार्यकर्ता और 'अनहद' से जुड़ी नूरजहां दीवान से पूछताछ भी की। नूरजहां पर लोगों को भड़काने का आरोप था। हालांकि पूछताछ के बाद उसे छोड़ दिया गया। नूरजहां दीवान से हुई पूछताछ की निन्दा 'अनहद' ने की है। 12 अक्तूबर 2012 को अनहद की ओर से जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में नूरजहां से हुई पूछताछ की कड़े शब्दों में निन्दा की गई है। विज्ञप्ति में सेड्रिक प्रकाश, देव देसाई, गगन सेठी, गौतम ठाकुर, महेश पण्ड्या, मनन त्रिवेदी, शबनम हाशमी और सोफिया खान के नाम हैं।
सरकारी कृपा पात्र
ये वे लोग हैं, जो अन्दरखाने करते कुछ हैं, और बाहर दिखाते कुछ और हैं। ये लोग जो कुछ करते हैं उसके लिए तर्क देते हैं कि वे लोकतंत्र की रक्षा के लिए, पंथनिरपेक्षता की जड़ें मजबूत करने के लिए, कौमी एकता के लिए, सामाजिक सद्भाव के लिए… कार्य कर रहे हैं। किन्तु इनकी गतिविधियों पर नजर डालने से यह स्पष्ट दिखाई देता है कि ये लोग लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धान्तों को भी नहीं मानते हैं, उन पर विश्वास करने की बात तो दूर है। देशहित से जुड़े किसी भी आन्दोलन का विरोध करने में ये लोग सबसे आगे रहते हैं। राष्ट्रवादी संगठनों को ये लोग अपना सबसे बड़ा शत्रु मानते हैं। इसलिए उन संगठनों को कमजोर करने के लिए साजिशें रचते हैं, अफवाह फैलाते हैं। किन्तु इस देश का शायद दुर्भाग्य ही है कि इतना सब कुछ होते हुए भी ये लोग सरकारी कृपा पात्र बने हुए हैं।
इन लोगों में एक प्रमुख नाम है शबनम हाशमी का। समयानुकूल इनका पहला परिचय तो यह है कि ये सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् की सदस्या हैं। इस नाते देशघातक 'साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा रोकथाम विधेयक 2011' को तैयार करने में शबनम एवं उनकी चौकड़ी की अहम भूमिका रही है।
शबनम हाशमी को गुजरात के मुख्यमंत्री से इतनी चिढ़ है कि वह उनका नाम भी आदर सूचक शब्दों में नहीं लेती हैं। 'मोदी यह कर रहा है, वह कर रहा है' जैसे लफ्जों का इस्तेमाल करती हैं। शबनम हाशमी जो कुछ करती हैं 'अनहद' के बैनर तले करती हैं। 'अनहद' एक गैर-सरकारी संगठन है। इसका पूरा नाम है- 'एक्ट नाउ फॉर हार्मोनी एण्ड डेमोक्रेसी।' 'अनहद' की स्थापना 2003 में मार्च के पहले सप्ताह में हुई थी। शबनम 'अनहद' की प्रबंध न्यासी हैं। एक न्यास के रूप में इसका पंजीकरण हुआ है। इस न्यास में वामपंथी इतिहासकार के.एन. पणिक्कर, गुजरात में प्रशासनिक अधिकारी रहे और राष्ट्रवादी संगठनों से चिढ़ने वाले हर्ष मन्दर, फिल्मकार सईद अख्तर मिर्जा, शोभा मुद्गल और कमला भसीन शामिल हैं। गुजरात दंगों की पृष्ठभूमि में स्थापित 'अनहद' का लिखित उद्देश्य है लोकतंत्र, पंथनिरपेक्षता और न्याय की रक्षा। किन्तु इन तीनों की रक्षा के नाम पर 'अनहद' के कर्ताधर्ताओं ने सदैव राष्ट्रवादी संगठनों को लांछित करने और दुनियाभर में भारत की छवि को खराब करने का ही प्रयास किया है। मनगढ़न्त लेख लिखना, झूठी रपटें तैयार करना और हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों के खिलाफ आग उगलना ही इनका उद्देश्य है। तथाकथित सामाजिक कार्यों की आड़ में शबनम भारत विरोधियों और आतंकवादियों का मनोबल बढ़ा रही हैं।
नई दिल्ली में जामिया नगर में पुलिस मुठभेड़ में मारे गए आतंकवादियों के पक्ष में शबनम ने बयान दिए। फिर सत्य शिवरामन, मनीषा सेठी, तनवीर फजल, अरशद आलम और पल्लवी डेका के साथ 20 सितम्बर, 2008 को जामिया नगर के उस फ्लैट का निरीक्षण किया, जिसमें आतंकवादी मारे गए थे।
अफवाह के वाहक
26 नवम्बर, 2009 को मुम्बई में हुए आतंकवादी हमले पर '26/11 मुम्बई' शीर्षक से एक पुस्तक प्रकाशित हुई। इसका सम्पादन शबनम हाशमी और राम पुनियानी ने किया है। इस पुस्तक में हमले के विरोध में एक शब्द भी नहीं लिखा गया है। पुस्तक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, बजरंग दल को निशाने पर रखते हुए कई मनगढ़ंत बातें लिखी गई हैं।
बाबा रामदेव द्वारा कालेधन के खिलाफ चलाए जा रहे अभियान के विरुद्ध भी शबनम ने शब्दबाण चलाए हैं। रामलीला मैदान में बाबा रामदेव और उनके समर्थकों के खिलाफ हुई बर्बर कार्रवाई पर शबनम ने पहले सीएनएन-आईबीएन और फिर एनडीटीवी 24न्7 पर बरखा दत्त के कार्यक्रम में यह झूठ फैलाने की कोशिश की कि 4 जून की रात को 3 बजे संघ की योजना रामलीला मैदान के पंडाल में आग लगाकर गोधरा ट्रेन कांड की पुनरावृत्ति करने की थी।
शबनम की मण्डली ने गुजरात दंगों को लेकर पूरी दुनिया में भारत की छवि खराब करने का प्रयास किया है। इन लोगों ने अपनी गतिविधियों से राष्ट्रीय एकता को भी कमजोर किया है। किन्तु अश्चर्य देखिए कि सरकार ने शबनम को 'राष्ट्रीय एकता परिषद्' का सदस्य बना दिया। पर शबनम ने उस समय राष्ट्रीय एकता परिषद् छोड़ने की इच्छा व्यक्त की जब शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे को इसमें शामिल किया गया। हालांकि अभी भी राष्ट्रीय एकता परिषद् की सूची में उनका नाम है। शबनम को एक क्षेत्रीय दल के अध्यक्ष का राष्ट्रीय एकता परिषद् में आना मंजूर नहीं है। शबनम और उनकी चौकड़ी विदेशों में भी हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों के खिलाफ काम करती है। 26 फरवरी, 2005 को अमरीका में हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों को मिलने वाले धन के खिलाफ इन लोगों ने अभियान शुरू किया था। 11 मार्च, 2005 को अमरीका में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए आयोजित कार्यक्रम के खिलाफ भी इन लोगों ने हंगामा मचाया था।
उकसाने में माहिर
2004 में 1-7 फरवरी तक 'अनहद' का एक प्रतिनिधिमण्डल पाकिस्तान में रहा था। विदेश में ये लोग क्या करते हैं, यह देश को पता होना चाहिए। अन्यथा इनकी गतिविधियों के बारे में शंका उत्पन्न होना स्वाभाविक है।
भाजपा या उसके सहयोगी दलों द्वारा शासित किसी राज्य में मजहब विशेष के कुछ लोग पुलिस की गोली का शिकार हो जाएं तो शबनम की टोली तुरन्त वहां पहुंच जाती है। उकसाने वाले बयान देती है। किन्तु कांग्रेस शासित किसी राज्य में ऐसी घटना हो तो सिर्फ एकाध चिट्ठी लिखकर यह टोली चुप हो जाती है। जब बिहार के फारबिसगंज में पुलिस की गोली से चार मुस्लिम मारे गए तो शबनम हाशमी फिल्मकार महेश भट्ट के साथ फारबिसगंज गईं। नीतिश सरकार को खूब कोसा। इसके कुछ समय बाद कांग्रेस शासित राजस्थान के गोपालगढ़ में 9 मुस्लिम मारे गए। किन्तु शबनम वहां नहीं गईं। सिर्फ एक चिट्ठी लिखकर चुप हो गईं। शायद यही कारण है कि शबनम और उनके साथियों को कांग्रेस-नीत संप्रग सरकार द्वारा गठित विभिन्न परिषदों और आयोगों में जगह मिल जाती है।
गुजरात के दंगा पीड़ित मुस्लिमों के लिए आंसू बहाने वालीं शबनम ने कभी उन कश्मीरी हिन्दुओं के लिए एक शब्द नहीं बोला, जो पिछले ढाई दशक से अपने ही देश में विस्थापन की जिन्दगी जी रहे हैं।
शैतान से मिलाया हाथ
अलीगढ़ में जन्मीं और फिल्मकार गौहर रजा से ब्याही गईं शबनम 'अनहद' से पहले सफदर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट (सहामेट या सहमत) के माध्यम से अपनी गतिविधियां चलाती थीं। सफदर हाशमी इनके भाई थे। सफदर हाशमी माकपा की नाट्य संस्था जनम (जन नाट्य मंच) से जुड़े थे। उनकी हत्या हो गई थी। 'हंस' के सम्पादक और वामपंथी साहित्यकार राजेन्द्र यादव 'खण्ड-खण्ड पाखण्ड' (वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली) के पृ. 22 पर लिखते हैं, '1 जनवरी, 1989 को जनम (जन नाट्य मंच) माकपा की नाट्य संस्था की ओर से 'हल्ला बोल' नुक्कड़ करते समय दिल्ली के निकट झंडापुर (साहिबाबाद) में सफदर हाशमी और उसके मजदूर साथी राम बहादुर की हत्या कांग्रेस के गुण्डों ने दिनदहाड़े कर दी थी।' इस घटना के बाद मकबूल फिदा हुसैन, शबाना आजमी आदि के सहयोग से 'सहामेट' की स्थापना हुई। इसके बैनर तले सफदर हाशमी की याद में अनेक तरह के कार्यक्रम होते हैं, किन्तु उनके साथ मारे गए राम बहादुर की चर्चा सहामेट वाले नहीं करते हैं। सफदर हाशमी की हत्या 'कांग्रेसी गुण्डों' ने की। किन्तु उनकी याद में बनी 'सहामेट' कांग्रेसी सरकारों से पैसे लेकर हिन्दू मान-बिन्दुओं और हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों को बदनाम करने का काम कर रही है। राजेन्द्र यादव उसी पुस्तक में एक जगह लिखते हैं, 'कांग्रेस सरकार से 'सहामेट' ने 25 लाख रु. लिए और अयोध्या में एक प्रदर्शनी लगाई, जिसमें बौद्ध धर्म के अनुसार सीता को राम की बहन बताने वाले चित्र थे। इस प्रदर्शनी का भाजपा वालों ने जनभावनाओं का अपमान बताकर विरोध किया। संसद में सरकार को सफाई देनी पड़ी…।' इसके बाद 'सहामेट' ने कौमी एकता पर दिल्ली पुलिस के साथ मुशायरा किया। इसमें शबनम की अहम भूमिका थी। 'सहामेट' के संस्थापक न्यासी और मराठी नाटककार जी.पी. देशपाण्डे ने इस मुशायरे का विरोध किया और अपने पद से इस्तीफा दे दिया। सुधन्वा देशपाण्डे ने 'इकॉनामिक पालिटिकल वीकली' में एक लम्बा लेख लिखकर शबनम का विरोध किया। इसके बाद शबनम ने 'सहामेट' छोड़ दी। उस समय शबनम ने कहा था, 'अपने उद्देश्य की खातिर साधन जमा करने के लिए हम सरकार से ही नहीं, शैतान से भी हाथ मिलाने को तैयार हैं।' (वही पुस्तक, पृ. 23) और सच में आज शबनम यही कर रही हैं। सरकार से हाथ मिलाकर साधन जुटा रही हैं और शैतान (आतंकवादियों) की वकालत कर रहीं हैं।
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