सेवा और त्याग की राजनीति से ही साकार होंगे स्वराज्य के सपने
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प्रो. बृजकिशोर कुठियाला
हर वर्ष गणतंत्र दिवस के पुण्य अवसर पर यह स्वाभाविक ही है कि हम पूर्व के वर्षों का आकलन और मूल्यांकन करें तथा भविष्य के लिए योजनाएं बनाते हुए कुछ संकल्प लें।
अपना देश जिस अवस्था में आज है, उससे सुख व दु:ख दोनों की अनुभूति होती है। हजार वर्षों से भी अधिक की पराधीनता के बाद 64 वर्ष की स्वाधीनता अवश्य ही एक हर्ष की अनुभूति दिलाती है। इन छह दशकों में हम खाद्यान्न के मामलों में न केवल आत्मनिर्भर हुए अपितु निर्यात करने की भी स्थिति भी बनी। इसका श्रेय देश के किसानों को जाता है, जिन्होंने कृषि वैज्ञानिकों की सहायता से यह दुर्लभ कार्य कर दिखाया। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी हमने अपने देश की आवश्यकता की पूर्ति की और विश्व के अन्य देशों में भी अपनी उपस्थिति स्थापित की। आर्थिक दृष्टि से भी देश ने कुछ पहलुओं में विकास किया है। 18 महीने के कार्यकाल (आपातकाल) को छोड़कर हमने प्रजातंत्र को भी बनाए रखने में सफलता हासिल की है। सेनाओं ने भी अपने कर्तव्य को निभाते हुए सीमा की बहुत हद तक रक्षा की है।
गंभीर चुनौतियां
गौरवमयी सफलताओं के साथ-साथ सहज भाव से ही अपनी असफलताओं की तरफ भी ध्यान जाता है। सन् 1947 में देश में एकता का जो भाव उत्पन्न हुआ दिखता था, वह आज छिन्न-भिन्न हो गया लगता है। आर्थिक व सामाजिक विषमताएं कम होने की बजाय तीव्र गति से बढ़ी हैं। राष्ट्र को विदेशी शक्तियों से तो खतरा बढ़ा ही है, परन्तु उससे भी अधिक आंतरिक विरोधाभास ऐसे पनपे कि नक्सलवाद-अलगाववाद व आतंकवाद देश की एकता व अखण्डता के लिए गंभीर चुनौती बन गया है। जहां राष्ट्र के किसानों, मजदूरों और वैज्ञानिकों ने अपेक्षा से अधिक दायित्व निभाकर देश और समाज को सदृढ़ किया है, वहीं राजनीतिक स्तर पर विशाल असफलता हमारे सम्मुख विद्यमान है। यहां राजनीति से अपेक्षा देश को सुदृढ़ और समाज को सुरक्षित बनाने की होनी चाहिए थी, पर आज स्थिति ऐसी हो गई है कि राजनीति को केवल सत्ता प्राप्ति का साधन मान लिया गया है। उचित एवं अनुचित उपायों और साधनों का उपयोग करके सत्ता में आना और बने रहना, यहीं तक राजनीतिक चेतना सीमित होकर रह गई है। अधिक चिन्ता का विषय यह है कि इस प्रकार की अधूरी व विकृत प्रवृत्ति का विरोध या समाधान कहीं दिखता नहीं है।
15 अगस्त, 1947 और 26 जनवरी, 1950 को जो मुख्य घटना हमारे भारत के भूखण्ड पर हुई, उसकी तीन तरह से व्याख्या की जाती है। प्रथम, भारत देश स्वाधीन हुआ- लगभग हजार वर्ष से अधिक समय तक देश की सत्ता विदेशी हाथों में रही। इस्लाम के प्रसार के साथ-साथ लूटपाट के इरादे से मुगल भारत में आ रहे थे। उस समय के राजाओं ने उनका विरोध किया, परन्तु उस समय की राजनीतिक व्यवस्था ऐसी बन गई थी कि मुगलों का सामूहिक विरोध नहीं हो सका। भितरघात भी हुआ और लुटेरे मुगलों को लगा कि इस देश को तो अपने अधीन किया ही जा सकता है। पूरा मुगलकाल देश के राजनीतिक पतन का शर्मनाक उदाहरण है। देश की समृद्धि ने यूरोप की साम्राज्यवादी ताकतों को भी आकर्षित किया। धीरे-धीरे मुगलों का पतन हुआ और सत्ता भारतीयों के हाथ में आने की बजाय अंग्रेजों के हाथों में चली गई। लगभग एक हजार वर्ष के मुगल प्रभाव ने भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक व्यवस्थाओं को बहुत कम प्रभावित किया, परन्तु अंग्रेजों ने योजनाबद्ध तरीकों से सामाजिक व सांस्कृतिक व्यवस्थाओं पर आघात किया। परिणाम यह निकला कि जब तक अंग्रेजों को देश के बाहर धकेला तब तक वे कुछ हद तक अंग्रेजियत को भारत में स्थापित कर चुके थे। इसलिए अंग्रेजों की अधीनता समाप्त हुई और हम अपने ही अधीन हुए। परन्तु क्या ऐसा कहा जा सकता है कि हमें स्वराज्य मिला?
स्वराज्य का लंबा इंतजार
दूसरी व्याख्या स्वराज्य की है। अपने देश पर अपना राज हो, यह तो प्रकृति का नियम है। परन्तु इस अपनेपन का अर्थ समझना आवश्यक है। स्वराज्य केवल राजनीतिक परिकल्पना नहीं है। इसका बहुत बड़ा हिस्सा स्वयं की संस्कृति से भी संबंधित है। 15 अगस्त, 1947 को भारत कोई नया देश नहीं बना था, जबकि बहुत से यूरोप के देश और अमरीका चार-पांच सौ वर्षों से अधिक पुराने नहीं थे, परन्तु भारत कम से कम पांच हजार वर्ष पुराना देश था। यह एक ऐसा देश था जो एक समय में विश्व की सर्वश्रेष्ठ सभ्यता का साक्षात् उदाहरण था। इस देश की ही भूमि पर एक ऐसी संस्कृति का निर्माण हुआ था जिसमें सम्पूर्ण सृष्टि के विज्ञान को समझा था और एक ऐसी जीवन पद्धति का विकास किया जो मानव के भौतिक विकास के साथ-साथ आध्यात्मिक विकास का भी मार्ग प्रशस्त करती थी। इस श्रेष्ठ संस्कृति की विशेषता यह थी कि एक हजार वर्ष की पराधीनता के बावजूद इसके मौलिक मूल्य भारतीय जनमानस के हृदय और मस्तिष्क में बने रहे। पर 15 अगस्त, 1947 को स्वाधीनता तो मिली परन्तु राज भारत की उस प्राचीन चेतना के “स्व” का नहीं बना। न तो व्यवस्थाएं अपनी थीं, न मौलिक दर्शन अपना था और न ही भाषा अपनी थी। गांधी जी ने भी स्वराज्य के लिए संघर्ष किया परन्तु उनको भी पराधीनता से मुक्ति प्राप्त हुई, परन्तु उनकी संकल्पना का स्वराज्य नहीं मिला।
तीसरी व्याख्या 26 जनवरी, 1950 से लागू भारतीय संविधान से संबंधित है। बार-बार कहा जाता है कि भारत गणतंत्र बना अर्थात् गण द्वारा गण के लिए गण का अपना तंत्र स्थापित होना। परन्तु हमने तो अपने आपको वही तंत्र दे दिया जिसका निर्माण अंग्रेजों ने 150 वर्ष के कार्यकाल में किया। समान्य समझ की बात है कि एक आक्रान्ता जब दूसरे देश पर राज स्थापित करता है तो वह ऐसी व्यवस्थाएं बनाता है, जिससे आक्रान्ता सुदृढ़ हो और गुलाम समाज दुर्बल हो, अंग्रेजों ने भी ऐसा ही किया था। उन्होंने ऐसी शिक्षा व्यवस्था बनायी जो काले अंग्रेज पैदा करती थी। भारत की भूमि से संवेदना रखने वाले बौद्धिक वर्ग का निर्माण न होने पाए, अंग्रेजों की यह योजना सफल रही। प्रशासन व्यवस्था में भी अर्थिक विकास, सामाजिक समरसता और संस्कृतिक उत्थान को अवरुद्ध करने वाली रचनाएं अंग्रेजों ने कीं। कपड़े का सम्पूर्ण भारतीय उद्योग नष्ट हुआ। पूजा पद्धति, जाति और क्षेत्र के आधार पर समाज को तोड़ा गया और मौलिक भारतीय संस्कृति का उपहास उड़ाते हुए पश्चिम की अधूरी व विकृत संस्कृति की स्थापना अंग्रेजों ने की। ऐसे में हम स्वाधीन तो हुए परन्तु तंत्र के परिवर्तन हमने नहीं किए। शिक्षा पद्धति को वैसा का वैसा स्वाधीन भारत में भी अपनाए रखा है। जिला प्रशासन का मुख्य अधिकारी अभी भी ‘कलेक्टर” या ‘कमिश्नर” कहलाता है। हमने स्वतंत्र भारत में पूरा का पूरा दण्ड विधान ब्रिटिश काल का पुन: स्थापित कर दिया। पश्चिम की भोगवादी व्यवस्था को स्वतंत्र भारत में नकारा नहीं वरन् उसको सम्मानपूर्वक प्रतिष्ठित किया। ‘वैस्टमीनिस्टर’ आधारित चुनाव व्यवस्था को अपना कर हमने गण के तंत्र को स्थापित करने का ढोंग रचा।
अधूरी आजादी से आगे बढ़ने की जरूरत
भाषा के मामले को भी हमने इतना उलझाया कि एक ओर तो ऐसा लगने लगा कि अंग्रेजी के बिना कुछ भी चल नहीं पाएगा और दूसरी ओर विभिन्न भारतीय भाषाओं को हमने एक- दूसरे के विरोध में खड़ा कर दिया। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि भारत को स्वाधीनता तो मिली परन्तु न ही उसको स्वराज्य प्राप्त हुआ और न ही उसको स्वतंत्रता प्राप्त हुई। इस अधूरी आजादी का परिणाम हमने पिछले छह दशकों में देखा और यदि उचित उपचार नहीं हुआ तो भविष्य में भी इसके गंभीर व विपरीत परिणाम झेलने के लिये हमें तैयार रहना चाहिए।
प्रश्न यह भी है कि अंग्रेजों के शासन से मुक्ति के पश्चात भी हम स्वयं की व्यवस्थाएं स्थापित क्यों नहीं कर पाए? इसका उत्तर ढूंढना कठिन नहीं है। अंग्रेजों की दूरदर्शिता और अपने नेताओं की अंग्रेजियत से सराबोर मानसिकता से यह साफ-साफ झलकता है। अंग्रेजों की रणनीति यह थी कि बेशक समय आने पर ब्रिटिश लोगों का राज समाप्त हो जाए, परन्तु ब्रिटिश संस्कृति का प्रभाव यहां बना रहे और लम्बे काल तक ब्रिटिशों के हितों की सुरक्षा इस देश में होती रहे। पश्चिम की संस्कृति का प्रभाव बढ़ाना तो उद्देश्य था ही, मूल रूप से ईसाइयत का प्रचार व प्रसार भी उद्देश्य था। स्वतंत्रता संग्राम के समय ही ये कूटनीतिक चालें प्रारम्भ हुईं। मुसलमानों को भिन्न राजनीतिक शक्ति के रूप में खड़ा करके देश के बंटवारे की योजना बना ली गई। भारतीय नेतृत्व में भी अंग्रेजों ने ऐसे नेताओं को प्रोत्साहित किया जो अंग्रेजों के प्रति केवल आदर भाव ही नहीं परन्तु श्रद्धा भाव रखते थे। स्व राष्ट्र और स्व संस्कृति से प्रेरित नेतृत्व को हतोत्साहित करना भी अंग्रेजों की नीति का महत्वपूर्ण भाग था। इसका प्रमाण पण्डित जवाहरलाल नेहरू के उस वक्तत्व से मिलता है जब स्वतंत्रता के कुछ वर्षो के पश्चात ही एक पत्रकार को उन्होंने बताया कि वे स्वयं भारत के अन्तिम अंग्रेज राजा हैं।
फूट डालकर राज करने की अंग्रेजी नीति
मेरा देश, मेरी भूमि, मेरा धर्म और मेरी संस्कृति- यह सब वे प्रेरक तत्व थे जिन्होंने लाखों भारतवासियों को जीवन न्योछावर करने की प्रेरणा दी। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के विवरण देखें तो मूलत: यह बात सामने आती है कि धर्म की रक्षा के लिये अंग्रेजों को देश से निकालना अनिवार्य हो गया था। स्वतंत्रता संग्राम के लिए सहयोग और सहायता लेने के संवाद का मुख्य बिन्दु धर्म की रक्षा ही था। स्थितियां ऐसी बनीं कि इसी धर्म का उपयोग करके स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों में फूट डाली गई और देश का विभाजन किया गया। जिस धार्मिक चेतना ने स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखी, उसी धर्म को हमने स्वतंत्रता प्राप्त करने पर नकार दिया और घोषित कर दिया कि भारत धर्मनिरपेक्ष राज्य है। स्व की राजनीतिक चेतना को त्याग कर उधार की ली हुई राजनीतिक चेतना को अपनाया।
आज पूरा विश्व इस तथ्य को बिना किसी शक के मानता है कि पिछली तीन-चार शताब्दियों में मानव ने प्राकृति का जो दोहन किया है उसके कारण न केवल मानवता अपितु पूरी पृथ्वी का अस्तित्व संकट में है। ऐसा भोगवादी राजनीतिक दर्शन, जो मनुष्य को या केवल आर्थिक इकाई मानता हो, या फिर उसे मात्र एक उपभोक्ता मानता हो प्रकृति से न्यायसंगत नहीं है। पशु और मनुष्य में यदि अन्तर करना है तो समझना होगा कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है, इसलिये ‘अस्तित्व के लिये संघर्ष’ और ‘सर्वशक्तिमान की विजय’ का सिद्धान्त आत्मघाती है। सहयोग और सह-अस्तित्व पर आधारित संस्कृति ही मनुष्यता को विकास के मार्ग पर ले जा सकती है। यह आज पूंजीवादियों, समाजवादियों और साम्यवादियों- सभी को समझ में आ गया है। मनुष्य केवल राजनीतिक प्राणी ही नहीं है। सत्ता के लिये संघर्ष भी विकास का मार्ग नहीं है। ये कटु तथ्य भी सबके सामने स्पष्ट हो गया है।
सेवा और त्याग हों राजनीति के लक्ष्य
राजनीति के दो ही आधार बिन्दु हो सकते हैं- त्याग और सेवा। ऐसा राजनीतिक चिन्तन विश्व में केवल भारतीय संस्कृति में ही प्रतिपादित है। राजनीति सत्ता प्राप्ति का साधन नहीं है। परन्तु आमजन को सत्ताशील बनाने का एक मार्ग है। यह राजनीतिक चेतना वर्तमान में बौद्धिक वर्ग में सर्वमान्य है। आज विज्ञान ने अध्यात्म के उस रहस्य को प्रमाणित कर दिया है कि न केवल सभी प्राणियों में एक ही चेतना है अपितु प्रकृति के जड़ पदार्थो में भी चैतन्य उपस्थित है। वेदान्त ने प्रकृति के जिन सिद्धान्तों को सूत्र रूप में रखा उनको आज के विज्ञान ने अपने तरीकों से समझा है और दोनों में एकरूपता का संज्ञान दिया है। पश्चिम ने ऐसी राजनीतिक चेतना पूरे विश्व में प्रसारित की जो मानव को दानव की ओर ले जाती है। पूरे विश्व में आज सृष्टि को सौ बार से अधिक पूर्णत: नष्ट करने की क्षमता उपलब्ध है। मनुष्य के विकास की यह उल्टी चाल न केवल मनुष्यता के लिए वरन् पूरी सृष्टि के लिए संकट का साधन है। दूसरी ओर वैकल्पिक जीवन दर्शन भी उपलब्ध हैं जिसके अन्तर्गत मनुष्य अपने को प्रकृति का न केवल एक छोटा अंग अपितु प्रकृति का एक रूप ही मानकर जीवन व्यतीत करता है। ऐसे दर्शन का समावेश जब राजनीतिक चेतना में होगा तब मनुष्य के विकास का मार्ग नर से नारायण की ओर प्रशस्त होता है।
आधुनिक मानव समाज में संचार की नवीन प्रौद्योगिकी ने यह संभव बना दिया है कि मनुष्यता आपस में पूर्ण रूप से संबंधित और निर्भर हो जाएगी। विश्व की सज्जन शक्तियां तो प्रकृति के इन गुणों को समझ चुकी हैं और भारत की ओर आशा भरी दृष्टि से देख रही हैं। क्योंकि उन्हें इस बात का भी संज्ञान है कि जिस सूक्ष्मता से एक भारतीय मानस प्रकृति के शाश्वत नियम को समझता है वह किसी अन्य जाति के लिये वह संभव नहीं है। क्योंकि न केवल हजारों वर्ष तक इस सत्य को भारत ने खोजा था बल्कि हजारों वर्ष से इसी सत्य को जिया भी है। पं. दीनदयाल उपाध्याय के कथनानुसार प्राचीन को युगानुकूल बनाकर और पश्चिम के विज्ञान और प्रौद्योगिकी को देशानुकूल बनाकर एक ऐसी राजनीतिक चेतना का समावेश भारतीय जीवन में करना होगा, जो न केवल पूरी सृष्टि की सुरक्षा सुनियोजित करे बल्कि मानव के आध्यात्मिक विकास का भी मार्ग बनाए।द (लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति हैं)
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