मंथन
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देवेन्द्र स्वरूप
स्वामी विवेकानंद की 150वीं जयंती-5
भारतीय समाज में व्याप्त घोर दारिद्र्य, अशिक्षा, अंधविश्वास, ऊंच-नीच, छुआछूत, मूर्तिपूजा का कर्मकांड, नारी उत्पीड़न, उच्च वर्गों की संवेदनहीनता, स्वार्थपरता के प्रति गहरी वेदना लेकर स्वामी विवेकानंद ने भारत के दक्षिणी छोर पर कन्याकुमारी के पार एक शिलाखंड पर ध्यानावस्थित होकर एक दूरगामी कार्य योजना सोची। इस कार्य योजना की पूर्ति के साधन जुटाने के लिए ही किसी अदृश्य शक्ति ने उन्हें अमरीका जाने की प्रेरणा दी। 31 मई, 1893 को बम्बई बंदरगाह से जहाज में बैठकर वे 28 जुलाई को शिकागो पहुंचे और भारत से किसी प्रतिनिधित्व पत्र के अभाव में अनेक कठिनाइयों से जूझते हुए 11 से 27 सितम्बर, 1893 तक सम्पन्न विश्वधर्म सम्मेलन में सम्मिलित हुए। उद्घाटन सत्र में अपने संक्षिप्त स्वयंस्फूर्त परिचय भाषण से ही वे अमरीका के मन-मस्तिष्क पर छा गये। विश्व धर्म सम्मेलन में अनेक उबाऊ भाषणों के अंत में उनका भाषण सुनने के लिए हजारों अमरीकी श्रोता, विशेषकर महिलाएं धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करतीं।
वाणी विवेकानंद की, भाव रामकृष्ण का
अमरीकी समाचार पत्रों में उनके आकर्षक व्यक्तित्व, प्रभावी वक्तृत्व और अगाध पाण्डित्य का यशोगान छा गया। चारों ओर से उनके भाषणों की मांग आने लगी। बिना किसी पूर्व तैयारी के उन्हें एक ही दिन में अलग-अलग विषयों पर कई-कई भाषण देने पड़ जाते। हजारों लोग उनके भाषण सुनने आते। विवेकानंद ने माना है कि बिना किसी पूर्व तैयारी के मंच पर खड़े होते ही गुरुदेव श्रीरामकृष्ण और मां काली उनके मुख से बोलना शुरू कर देते थे। भाषा और ओजस्वी वक्तृत्व विवेकानंद का, भाव व दार्शनिक चिंतन रामकृष्ण परमहंस का। श्रीरामकृष्ण देव ने भारतीय धर्म और दर्शन की विजय पताका को पश्चिम में फहराने के लिए विवेकानंद को अपना उपकरण बनाया। विवेकानंद ने भाष्यकार और प्रवक्ता की अपनी भूमिका को स्पष्ट करते हुए 17 फरवरी, 1896 को अमरीका से अपने मद्रासी शिष्य आलासिंगा पेरुमल को लिखा, “मेरा कार्य है हिन्दू भाव को अंग्रेजी भाषा में व्यक्त करना। हमारे शुष्क दर्शन, जटिल पौराणिक कथाओं, रहस्यमय मनोविज्ञान में से एक ऐसा धर्म-विचार प्रस्तुत करना जो सरल, सहज और लोकप्रिय हो, साथ ही उन्नत जिज्ञासु हृदयों को संतुष्ट कर सके। इस कार्य की कठिनाई को वे ही समझ सकते हैं, जिन्होंने इस कार्य का बीड़ा उठाने का साहस किया है। अद्वैत के गूढ़ सिद्धांतों में कविता का रस और नित्य कर्मों में जीवनदायिनी शक्ति उत्पन्न करनी होगी, अत्यंत उलझी हुई पौराणिक कथाओं में से नीति के व्यावहारिक नियम खोजने होंगे, बुद्धि की पहुंच के परे योग विद्या से अत्यंत वैज्ञानिक और क्रियात्मक मनोविज्ञान का विकास करना है। यह सब ऐसे रूप में लाना पड़ेगा कि बच्चा-बच्चा उसे समझ सके। मेरे जीवन का यही कार्य है।”
1893 से 1900 तक विवेकानंद ने अपने भाषणों के द्वारा यही जीवन कार्य पूरा किया। इस कालखंड में उनके मुख से निकले शब्द आज तक कई पीढ़ियों को स्पंदित और प्रेरित कर रहे हैं। भाषणों के द्वारा जहां विवेकानंद ने पश्चिम की धर्म जिज्ञासा को तृप्त किया, उन्हें धर्मदान किया, वहीं इन भाषणों से उन्होंने भारत में अपने संगठन कार्य के लिए धन भी एकत्र किया। वे अच्छी तरह समझ गये थे कि अमरीका में उन्हें जो लोकप्रियता एवं प्रसिद्धि मिल रही है, उसकी कई गुना प्रतिध्वनि भारत में हो रही है जिससे वहां राष्ट्रीय स्वाभिमान और आत्मविश्वास का भाव पैदा हो रहा है, वह संगठन कार्य को खड़ा करने के लिए नितांत आवश्यक है। सच कहें तो विवेकानंद ने अमरीका और इंग्लैण्ड में 1893 से 1896 तक केवल चार वर्ष कार्य किया। किन्तु तभी से उन्होंने यह घोषणा आरंभ कर दी कि उनका जीवन कार्य पूरा हो चुका और अब वे भाषणबाजी से मुक्त होकर विश्राम चाहते हैं।
17 फरवरी, 1896 को अमरीका से आलासिंगा को लिखे पत्र में उनकी यह मन:स्थिति बहुत स्पष्ट है। इस पत्र में स्वामी जी लिखते हैं, “न्यूयार्क, जो अमरीकी सभ्यता का हृदय स्थल है, उसे जगाने में मैने सफलता पायी है। परंतु भीषण कठिनाइयों से जूझना पड़ा। मेरे पास जो शक्ति थी वह अमरीका और इंग्लैण्ड पर प्राय:न्योछावर कर दी है।…मैं मिशनरी लोगों को दोष नहीं दे सकता कि वे मुझे समझने में असमर्थ रहे। उन्होंने शायद ही कभी ऐसा व्यक्ति देखा होगा जो धन और स्त्रियों की ओर आकर्षित न हो। पहले तो उन्हें इस पर विश्वास ही नहीं होता था और होता भी कैसे? तुम्हें यह नहीं समझना चाहिए कि पाश्चात्य देशों में ब्रह्मचर्य और पवित्रता के आदर्श वही हैं जो भारत में है। मेरे पास अब लोगों के झुंड के झुंड आ रहे हैं। अब सैकड़ों मनुष्यों को विश्वास हो गया है कि ऐसे मनुष्य भी हो सकते हैं जो शारीरिक वासनाओं पर विजय पा सकते हैं। इन आदर्शों के लिए अब सम्मान और प्रीति बढ़ती जा रही है।” 23 मार्च, 1896 को बोस्टन से आलासिंगा को स्वामी जी ने लिखा, “मैं अगले महीने इंग्लैण्ड जा रहा हूं। मुझे लग रहा है कि मैंने अत्यधिक कार्य किया है। इतने लम्बे समय तक लगातार काम करने से मेरी नसों की शक्ति नष्ट हो गयी है। यदि मैं काम से विरत होकर एकांत सेवा के लिए गुफा में जाऊंगा तो मेरा अंत:करण मुझे दोष न देगा।”
बहुत हुआ व्याख्यान
1894 में अमरीका से स्वामी शिवानंद को वे लिखते हैं, “समाचार पत्रों की इस भिनभिनाहट ने नि:संदेह मुझे प्रसिद्ध कर दिया है, परंतु इसका प्रभाव भारत में अधिक है।” 1895, जनवरी 11 को मद्रास के जी.जी.नरसिंहाचारी के नाम पत्र में स्वामी जी ने लिखा, “इस देश में दो ही केन्द्र हैं, जिनमें बोस्टन की तुलना मस्तिष्क से की जा सकती है और न्यूयार्क की जेब से। दोनों स्थानों में आशातीत सफलता प्राप्त हुई है। मैं समाचार पत्रों में वर्णन के प्रति उदासीन हूं। कार्य आरंभ करने के लिए थोड़े से शोर की आवश्यकता थी, वह जरूरत से अधिक हो उठा है।” मई 6, 1895 को आलासिंगा को लिखते हैं, “तुम जानते हो कि नाम और यश ढूंढने के लिए मैं यहां नहीं आया था। वह मुझे अनचाहे ही मिला है।” 1894 में शिकागो से आलासिंगा को लिखा, “इस देश में दो-तीन वर्ष तक व्याख्यान देने से धन एकत्र किया जा सकता है। यद्यपि यहां जनसाधारण में मेरे काम का बहुत सम्मान है, फिर भी यह काम मुझे अत्यंत अरुचिकर और मन को निम्न स्तर पर लाने वाला लगता है।” 1894 में ही अपने गुरुभाई स्वामी अभेदानंद को लिखते हैं, “गुरुदेव के काम के लिए जनता में कुछ प्रचार-प्रदर्शन की आवश्यकता थी, वह हो गया, यह अच्छा हुआ।” “इस देश में मुझे कुछ भी अभाव नहीं है। पर यहां भिक्षा का चलन नहीं है। इसके लिए मुझे परिश्रम यानी स्थान-स्थान पर उपदेश करना पड़ता है।” 1894, दिसंबर 26 को आलांसिंगा को लिखा, “अपने काम के लिए यहां कुछ आंदोलन की आवश्यकता थी, अब वह पर्याप्त हो चुका है।” 1900, फरवरी 21 को कैलीफोर्निया से स्वामी अखंडानंद को लिखते हैं, “विद्या और पाण्डित्य बाह्य आडम्बर मात्र हैं। सब शक्तियों का सिंहासन हृदय होता है। बुद्धि की भाषा तो कोई-कोई ही समझ सकता है, किन्तु हृदय से निकली भाषा को ब्रह्मा से लेकर घास के पत्ते तक सब कोई समझ सकता है। अत: वाद-प्रतिवाद, तर्कवाद, शास्त्र, साम्प्रदायिक मतवाद- इस सबसे इस बढ़ती हुई उम्र में मैं विष की तरह द्वेष करता हूं।” इसके पहले जनवरी 17, 1900 को श्रीमती ओलीबुल को उन्होंने लिखा, “इस देश में वक्तृता के क्षेत्र का उपयोग विशेष रूप से किया गया है। अब मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि वक्तृता मंच पर खड़ा होने का मेरा कार्य समाप्त हो चुका है। उस प्रकार के कार्यों में अपना स्वास्थ्य नष्ट करना अब मेरे लिए आवश्यक नहीं है।” तभी मार्च 12, 1900 को स्वामी ब्रह्मानंद को वे सूचित करते हैं, “व्याख्यान आदि में कुछ नहीं रखा है। वास्तव में मैं विश्राम चाहता हूं।”
स्वामी जी अमरीकी समाज की भौतिक समृद्धि देखकर विस्मित रह गये थे। जून 23, 1894 को मैसूर के महाराजा को एक पत्र में स्वामी जी लिखते हैं, “यह एक अद्भुत देश है और यह जाति भी कई बातों में अद्भुत जाति है। कोई जाति अपने दैनिक कार्यों में इतने कलपुर्जों का उपयोग नहीं करती जितना कि यहां के लोग। यहां केवल कल ही कल दिखायी देते हैं। ये लोग संसार की कुल जनसंख्या में केवल पांच प्रतिशत हैं पर तो भी संसार के कुल धन के पूरे षष्ठांश के मालिक हैं। इनके धन तथा विलास की सामग्रियों का कोई ठिकाना नहीं है। किन्तु धर्म के विषय में यहां के लोग या तो कपटी होते हैं या हठी। विचारशील लोग अपने कुसंस्कारपूर्ण धर्मों से ऊब गये हैं और नए प्रकाश के लिए भारत की ओर ताक रहे हैं।” अमरीका से अपने गुरुभाई स्वामी ब्रह्मानंद के नाम पहले पत्र में स्वामी जी लिखते हैं, “ये लोग कला-कौशल में अद्वितीय हैं, भोग-विलास में अद्वितीय है, धन कमाने में अद्वितीय हैं और खर्च करने में भी अद्वितीय हैं।… यहां एक-एक व्याख्यान का 200-300 रुपया तक मिल सकता है। मुझे 500 रु. तक मिला है। हां, अब तो मेरा भाग्य खुल गया है। ये मुझे प्यार करते हैं और हजारों आदमी मेरा व्याख्यान सुनने आते हैं।” 1893, दिसंबर 28 को शिकागो से हरिपद मित्र को लिखते हैं, “अमरीकावासी आध्यात्मिकता में हमसे निम्न स्तर पर हैं परंतु इनका समाज जीवन हमसे बहुत ही उत्तम है। हम इन्हें आध्यात्मिकता सिखाएंगे और इनके समाज के सर्वोत्तम गुणों को अपने अनुकूल बना लेंगे।”
अमरीका की ताकत स्त्री शक्ति
1894 के एक पत्र में वे स्वामी ब्रह्मानंद को लिखते हैं, “कितनी दया है इन लोगों में। अगर खबर मिली कि एक व्यक्ति अमुक जगह कष्ट में पड़ा हुआ है तो बस स्त्री-पुरुष चल पड़ते हैं उसे भोजन और वस्त्र देने के लिए। किसी काम में लगा देने के लिए। पर हम लोग क्या करते हैं?” एक पत्र में वे लिखते हैं, “जैसी जिज्ञासा इस जाति के लोगों में है, वैसी अन्यत्र नहीं है। प्रत्येक वस्तु का ज्ञान प्राप्त करना इन्हें सदैव अभीष्ट रहता है। और इनकी महिलाएं तो संसार में सबसे अधिक उन्नत हैं। सामान्यत: अमरीकी पुरुषों की अपेक्षा अमरीकी महिलाएं अधिक सुसंस्कृत हैं।” एक अन्य पत्र में वे लिखते हैं “यह कहने में अत्युक्ति न होगी कि इस देश में दरिद्रता बिल्कुल नहीं है। मैंने जैसी शिष्ट और शिक्षित महिलाएं यहां देखीं वैसी तो कहीं नहीं देखीं। मैंने यहां हजारों महिलाएं देखीं जिनके हृदय हिम के समान निर्मल और पवित्र हैं। अहा! वे कैसी स्वतंत्र होती हैं। सामाजिक और नागरिक कार्यों का निरीक्षण वे ही करती हैं। पाठशालाएं और विश्वविद्यालय महिलाओं से भरे पड़े हैं। जबकि हमारे देश की महिलाएं निर्भीक होकर चल भी नहीं सकतीं। मैं तो इनका अतुलनीय कृपा पात्र हूं। जबसे मैं यहां आया हूं। इन्होंने अपने घरों में मेरा सत्कार किया है। ये मेरे रहने व भोजन का प्रबंध करती हैं, मेरे व्याख्यानों का आयोजन करती हैं, मुझे बाजार ले जाती हैं। मेरे आराम और सुविधा के लिए ये क्या-क्या नहीं करतीं। मैं इस महान कृतज्ञता के ऋण को थोड़ा- सा भी चुकाने में सर्वथा असमर्थ रहूंगा। यहां के पुरुष स्त्रियों का यथायोग्य आदर करते हैं, इसीलिए वे इतने समृद्धिशाली, इतने स्वतंत्र और इतने तेजस्वी हैं। और हम लोग स्त्री जाति को नीच, अधम, तुच्छ और अपवित्र कहते हैं। परिणाम यह हुआ कि हम लोग पशु, दास, उद्यमहीन और दरिद्र हो गए। इस देश में हर व्यक्ति के लिए आशा है, भरोसा है एवं सुविधाएं हैं। आज यह गरीब है तो कल वह धनी, विद्वान और आदर का पात्र बन सकता है। यहां सभी लोग गरीब की सहायता करने के लिए चिंतित रहते हैं।”
स्वामी ब्रह्मानंद को विवेकानंद जी ने लिखा कि, “इस देश की सी महिलाएं दुनिया भर में नहीं है। वे कैसी पवित्र, स्वाबलम्बी और दयावती हैं। महिलाएं ही यहां की सब कुछ हैं। विद्या, बुद्धि आदि सब उन्हीं में है। यहां की बर्फ जैसी सफेद है वैसी शुद्ध मनवाली हजारों नारियां यहां हैं। और कहां अपने देश की दस वर्ष की आयु में बच्चों को जन्म देने वाली महिलाएं?” आगे वे लिखते हैं, “जैसे हमारे देश में सामाजिक गुणों का अभाव है, वैसे यहां धर्म का अभाव है। मैं इनको धर्म दान कर रहा हूं और ये लोग मुझे धन दे रहे हैं। ये लोग कपटी नहीं है और उनमें ईष्र्या बिल्कुल नहीं है।” 29 सितम्बर, 1894 को आलासिंगा को वे लिखते हैं, “प्राच्य और पाश्चात्य के आदर्श अलग-अलग हैं। भारत वर्ष धर्म प्रवण या अन्तर्मुख है जबकि पाश्चात्य बहिर्मुख। पाश्चात्य देश तनिक-सी भी धार्मिक उन्नति सामाजिक उन्नति के द्वारा ही करना चाहते हैं जबकि प्राच्य देश थोड़ी-सी सामाजिक शक्ति में धर्म के माध्यम से प्राप्त करना चाहेंगे।” 15 नवम्बर, 1894 को श्री हरिदास बिहारीदास देसाई को उन्होंने लिखा, “वहां हमारे स्वजन हम साधुओं को रोटी का एक टुकड़ा भी सिसक-सिसक कर देते हैं। यहां एक व्याख्यान के लिए ये लोग एक हजार रुपया देने को और उस शिक्षा के लिए सदा कृतज्ञ रहने को तैयार हैं। जब मैं अपने राष्ट्र के भिक्षुक मनोवृत्ति, स्वार्थपरता, गुण ग्राहकता का अभाव, मूर्खता और अकृतज्ञता का स्मरण करता हूं और यहां की सहायता, अतिथि, सहानुभूति और आदर, जो मुझ जैसे दूसरे धर्म के प्रतिनिधि को अमरीकावासियों ने दिया, तुलना उससे करता हूं तो लज्जित हो जाता हूं। इसलिए अपने देश से बाहर निकलकर दूसरे देशों को देखिए और अपने साथ तुलना कीजिए।”
तुलना कीजिए और कुछ सीखिए
इन्हीं देसाई को एक अन्य दूसरे पत्र में वे लिखते हैं, “संगठन एवं मेल ही पाश्चात्यवासियों की सफलता का रहस्य है। यह तभी संभव है जब परस्पर भरोसा, सहयोग और सहायता का भाव हो। दासता में ही स्वभावत: ईष्र्या उत्पन्न होती है और फिर वह ईष्र्या भाव ही उन्हें पतन की गहरी खाई में ले जाता है। यदि यहां कोई मनुष्य आगे बढ़ना चाहता है तो सभी लोग उसकी सहायता करने को प्रस्तुत हैं, परंतु यदि आप भारत में मेरी प्रशंसा में एक भी पंक्ति किसी समाचार पत्र में लिखेंगे तो दूसरे ही दिन सब मेरे विरुद्ध हो जाएंगे, क्योंकि यह दासों का स्वभाव है।” यही बात स्वामी जी ने अपने शिष्य आलासिंगा को भी लिखी, 1894 के एक पत्र में वे लिखते हैं, “प्रत्येक दास जाति का मुख्य दोष ईष्र्या होता है। ईष्र्या के कारण मेल का अभाव ही पराधीनता उत्पन्न करता है और उसे स्थायी बनाता है। इस कथन की सच्चाई तुम तब तक नहीं समझ सकते, जब तक भारत के बाहर न जाओ। पाश्चात्यवासियों की सफलता का रहस्य यही सम्मिलित शक्ति है और उसका आधार है परस्पर विश्वास और गुण ग्राहकता। जितना कोई राष्ट्र निर्बल या कायर होगा, उतना ही यह अवगुण अधिक प्रगट होगा।”
स्वामी जी ने अमरीका की धार्मिक स्थिति का सूक्ष्म अध्ययन किया। युवा बौद्ध विद्वान अनागरिक धर्मपाल को 1894 में उन्होंने सूचित किया कि “यहां की छह करोड़ तीस लाख जनसंख्या में केवल एक करोड़ नब्बे लाख लोग ही ईसाई धर्म की किसी न किसी शाखा के अन्तर्गत हैं। शेष लोगों को ईसाईगण धर्म देने में असमर्थ हैं। जो लोग धार्मिक नहीं हैं, यदि थियोसाफिकल्स उन्हें भी किसी प्रकार का धर्म देने में समर्थ हैं, तो कट्टर ईसाइयों को इसमें क्या आपत्ति है, समझ में नहीं आता।” इसी पत्र में उन्होंने अपने प्रति ईसाई पादरियों के कपटी व्यवहार का भी उल्लेख किया है। स्वामी जी को पीड़ा हुई जब कट्टर पादरियों के साथ-साथ कुछ भारतीय थियोसाफिकल्स और ब्रह्म समाजियों ने भी अमरीका में उनके विरुद्ध दुष्प्रचार किया। पर स्वामी जी का प्रभाव और समर्थन बढ़ता गया। श्रीमती ओलीबुल और जोसेपाईन मैक्लियाड जैसी महिलाएं स्वयं भारत आयीं। बेलूर मठ के निर्माण में उनका भारी योगदान है। ब्रिटेन से सेव्हियर दम्पत्ति, गुडविन और मार्गरेट नोबुल (निवेदिता) ने तो भारत को ही अपना कार्यक्षेत्र बनाया और यहीं अपने प्राण त्यागे। बोस्टन से अपने विदेशी संन्यासियों की जानकारी देते हुए स्वामी जी ने 23 मार्च, 1896 को आलासिंगा को लिखा, “मेरे नये संन्यासियों में निश्चय ही एक स्त्री है, शेष सब पुरुष हैं। मैं इंग्लैण्ड से कुछ थोड़े से और संन्यासी बनाकर भारत अपने साथ लाऊंगा। भारत में उनके सफेद वर्ण का प्रभाव हिन्दुओं पर अधिक होगा। इसके अलावा ये लोग फुर्तीले हैं, जबकि हिन्दू मृत प्राय: हैं। मेरी सफलता का कारण मेरी लोकप्रिय शैली है।” सेव्हियर और गुडविन की भारत में मृत्यु से दुखित स्वामी जी ने जोसेपाईन मेक्लियाड “जो” को 11 दिसंबर, 1900 को लिखा “इस प्रकार से दो अंग्रेज महानुभावों ने हमारे लिए, हिन्दुओं के लिए आत्मोत्सर्ग किया। यदि कोई शहीद हुए हों, तो ये ही हैं।” द क्रमश:
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