सम्पादकीय
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पाञ्चजन्य
सम्पादकीय
विकसित पुष्प पल्लव में छिपा रहता है
किन्तु उसकी सुगंध कहां छिपेगी?
-रवीन्द्रनाथ ठाकुर (एकोत्तरशती, बिदाय अभिशाप)
1993 में दिल्ली में हुए बम विस्फोटों के मुख्य आरोपी आतंकवादी देविन्दर सिंह भुल्लर की फांसी की सजा को लेकर पहले तो दिल्ली से लेकर पंजाब तक खूब राजनीति हुई, कांग्रेस से लेकर अकाली दल तक इस पर वोटों की राजनीति का खेल खेलते रहे, अब यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा तो राष्ट्रपति के यहां दी गई उसकी दया याचिका खारिज होने और उस पर विचार करने में 8 साल लग जाने को आधार बनाकर उसके वकील भुल्लर के मानवाधिकारों की दुहाई दे रहे हैं। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने आतंकियों के पैरोकारों को फटकार लगाते हुए जो कहा है वह आंखें खोल देने वाला और भविष्य के लिए दिशाबोधक है कि कोई भी आतंकवादियों की कार्रवाई में मारे गए निर्दोष लोगों के मानवाधिकारों की बात क्यों नहीं करता? 1993 की इसी घटना में 9 निर्दोष लोग मारे गए और 29 घायल हुए, इनके मानवाधिकारों का क्या होगा? संसद की रक्षा में कई सुरक्षाकर्मियों ने जान दी। ऐसे बहादुर लोगों को भुला दिया गया। ऐसे लोगों की भावनाओं को क्या किसी ने जाना है? इनके मानवाधिकारों का क्या हुआ? मानवाधिकार कुछ खास लोगों तक सीमित नहीं रह सकते, यह उन तमाम लोगों के लिए हैं जो समाज में हाशिए पर हैं और हिंसा के शिकार हैं।
सर्वोच्च न्यायालय की इस टिप्पणी में जिहादी आतंकवाद से त्रस्त अनगिनत देशवासियों की पीड़ा का स्वर है, जिसकी अनदेखी सत्ता स्वार्थों में आकंठ डूबे और वोट के लालची राजनीतिक दल व उनकी शह पर पल रहे तीस्ता सीतलवाड़, अरुंधति राय व अग्निवेश जैसे तमाम तथाकथित मानवाधिकारवादी लगातार कर रहे हैं। राजनीतिक लाभ के लिए आतंकवादियों के प्रति नरमी बरती जाने और भुल्लर, अफजल एवं राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी से बचाए जाने की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कोशिशों का ही यह परिणाम है कि एक के बाद एक नृशंस नरसंहार करने वाले ऐसे खूंखार लोगों और उनके सूत्रधारों को यह संदेश जाता है कि भारत में जघन्य से जघन्य कांड करने के बाद भी कोई उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। इसीलिए देश में जिहादी आतंकवाद थम नहीं रहा, बल्कि संसद से लेकर, लोकल ट्रेनों में श्रृंखलाबद्ध विस्फोटों व हमारे बड़े बड़े शहरों, बाजारों, अदालतों, प्रमुख मंदिरों, होटलों और सार्वजनिक स्थानों पर बेखौफ होकर हजारों निर्दोष नागरिकों व जवानों का खून बहाया जाता रहा है। परंतु ये सरकार कोई कड़ा कानून बनाने व सख्त कार्रवाई से हमेशा बचती रही है। राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी से बचाने के लिए तमिलनाडु विधानसभा में प्रस्ताव पारित होता है, संसद पर हमले के मुख्य आरोपी अफजल की फांसी लटकाए रखने के लिए दिल्ली और केन्द्र की कांग्रेस सरकारें फाइल को इधर से उधर घुमाने में ही लगभग 5 साल का समय निकाल देती हैं और जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री तो उसकी फांसी रोकने के लिए धमकी की भाषा बोलने लगते हैं। इससे अलगाववादियों, देशद्रोहियों, माओवादी नक्सलियों व जिहादी आतंकवादियों के पैरोकार तथाकथित मानवाधिकारवादियों के हौसले तो इस कदर बढ़ जाते हैं कि वे सेना व सुरक्षा बलों के खिलाफ जहर उगलते हैं। उन्हें सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम इनके मानवाधिकारों का हनन लगने लगता है। देखते-देखते ऐसे कथित मानवाधिकारवादी संगठनों और व्यक्तियों की एक फौज खड़ी हो गई है जो लगातार हमारे जांबाज जवानों का मनोबल तोड़ने और उन्हें अपराधी ठहराने के अभियान में लगी है।
दुर्भाग्य तो यह है कि संप्रग सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस वोट की राजनीति के लिए इन सभी तथ्यों की अनदेखी करती रही है। राष्ट्र के सम्मान, राष्ट्र की सुरक्षा व देशवासियों के जीवन को दांव पर लगाकर वह आतंकवादियों की मिजाजपुर्सी करती दिखती है। उसके एक महासचिव दिग्विजय सिंह तो बाकायदा इस अभियान में लगे हैं कि जिहादी आतंकवादियों की देहरी पर मत्था टेककर उनका तो गुणगान करें और आतंकवाद का ठीकरा राष्ट्रभक्तों व हिन्दू संगठनों के सिर फोड़ें। कांग्रेस की इसी चुनावी राजनीति के चलते देश के गृहमंत्री “हिन्दू आतंकवाद”, “भगवा आतंकवाद” का जुमला उछालकर सच्चाई से देशवासियों का ध्यान बंटाने की मुहिम में लगे हैं। आश्चर्यजनक तो यह है कि भारत में जिहादी आतंकवाद के जनक व उसका पोषण-प्रशिक्षण करने वाले पाकिस्तान से दोस्ती गांठने के अभियान में जुटे हमारे प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह अपने राष्ट्रीय स्वाभिमान को भुलाकर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को “अमन पसंद इंसान” या “शांति पुरुष” कहकर पाकिस्तान की चिरौरी कर रहे हैं, जो पाकिस्तानी सेना व कुख्यात खुफिया एजेंसी आईएसआई की करतूतों से भारत, विशेषकर कश्मीर में अलगाववाद व राष्ट्रद्रोह को हवा देने का कोई मौका नहीं चूकते। क्या सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी देश व देशवासियों के प्रति इनकी संवेदनाओं को झकझोर पाएगी?
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