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सर्वोच्च न्यायालय की पीड़ा समझेंद डा. हरबंश दीक्षितइलाहाबाद उच्च न्यायालय पर एक कठोर टिप्पणी के रूप में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा व्यक्त की गयी पीड़ा एक चेतावनी तथा आक्रोश को महसूस करने, उससे सबक लेने तथा उसका परिष्कार करने की आवश्यकता की ओर इशारा करती है। 26 नवम्बर 2010 को न्यायमूर्ति मारकण्डेय काटजू और ज्ञान सुधा मिश्रा की खण्डपीठ एक मामले की सुनवायी के दौरान न्यायिक विचलन की पराकाष्ठा से इतनी खिन्न हुयी कि उसे यह कहना पड़ा कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय में कुछ इतना सड़ रहा है कि उस पर तुरन्त अंकुश लगाने की जरूरत है। मामले की जड़ में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एकल पीठ के कुछ आदेश थे।न्याय की अनदेखीसर्वोच्च न्यायालय की नाराजगी की पहली वजह यह थी कि बहराइच जिला लखनऊ पीठ के क्षेत्राधिकार में आता है, किन्तु उस पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने अपने क्षेत्राधिकार का अतिक्रमण करके सुनवायी की और एकतरफा आदेश पारित किया। न्यायालय ने इस मामले से सम्बन्धित उन याचिकाओं का भी हवाला दिया जिन्हें उच्च न्यायालय की खण्डपीठ ने खारिज कर दिया था, किन्तु एकल पीठ ने उसे स्वीकार कर लिया। सर्वोच्च न्यायालय ने इस आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि यह ऐसा मामला है जिसमें न्याय की अनदेखी की गयी है और “अपने लोगों” पर विशेष अनुग्रह किया गया है। इसके अलावा यह आदेश दूसरे पक्ष को सुने बगैर तथा किसी व्यक्ति विशेष के विरुद्ध था, जो कानून के स्थापित सिद्धान्तों के प्रतिकूल है। अदालत ने इस बात पर चिन्ता व्यक्त की कि यदि भाई-भतीजावाद या सम्बन्धों के आधार पर इसी तरह से आदेश दिए जाते रहे तो अदालतों से लोगों का भरोसा उठ जाएगा।इस प्रकरण की खास बात यह है कि अब तक जो बात गुपचुप तरीके से कही जाती रही है वह सार्वजनिक रूप से कही गयी और इसमें अच्छी बात यह है कि यह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कही गयी है। इससे सर्वोच्च न्यायालय की बेचारगी का भी अन्दाजा लगता है। हमारे संविधान और कानूनी ढांचे का मौजूदा ताना-बाना ऐसा है कि उसमें किसी न्यायाधीश के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही की कोई गुंजाइश नहीं है। उनके विरुद्ध एकमात्र कार्यवाही यही हो सकती है कि उन्हें महाभियोग लगाकर हटा दिया जाय। बीते दो दशकों में न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को गम्भीर क्षति पहुंची है। यद्यपि न्यायमूर्ति रामास्वामी पर शुरू की गयी महाभियोग की कार्यवाही अपने अंजाम तक नहीं पहुंच पायी थी, किन्तु उससे जनमानस को लगने लगा था कि न्यायपालिका में भी सभी दूध के धुले नहीं हैं। उसके बाद तो जैसे आरोपों का अन्तहीन सिलसिला चल पड़ा। न्यायमूर्ति सौमित्र सेन, न्यायमूर्ति दिनकरन, गाजियाबाद का पी.एफ. घोटाला तथा पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय के मामले दृष्टिगोचर प्रकरणों में से कुछ की बानगी पेश करते हैं। इसका सबसे त्रासद पहलू यह है कि ज्यादातर मामले उस समय के हैं जब से नियुक्तियों का अधिकार न्यायपालिका ने अपने हाथ में ले लिया है।न्यायाधीश कठघरे मेंदो माह पहले पूर्व केन्द्रीय विधि मंत्री शांतिभूषण का एक बयान सुर्खियों में था। उन्होने सर्वोच्च न्यायालय के सामने शपथ पत्र दिया था कि विगत 16 मुख्य न्यायाधीशों में आठ ऐसे थे जिनके बारे में पूरे विश्वास से कहा जा सकता है कि वे भ्रष्ट थे। उन्होंने शेष छह मुख्य न्यायाधीशों के बारे में कहा कि वे पूर्णत: ईमानदार थे तथा शेष दो के बारे में वे विश्वासपूर्वक कुछ भी नहीं कह सकते। यहां शांतिभूषण के आरोपों के गुण-दोष के बारे में चर्चा नहीं की जा सकती, किन्तु इसका निहितार्थ यह अवश्य है कि हालात इस सीमा तक पहुंच चुके हैं कि पानी सिर के ऊपर जा चुका है। ऐसे कानूनविद् भी अब अदालती अवमानना की लक्ष्मण रेखा लांघ कर उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों की ईमानदारी को सार्वजनिक तौर पर कटघरे में खड़ा कर रहे हैं तो इसे नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिये।हालात को इस सीमा तक पहुंचाने के लिए एक तरह से, न्यायपालिका खुद ही जिम्मेदार है। देश के न्यायविदों और विधि आयोग ने न्यायिक सुधार के लिए कई बार सुझाव दिए। उसमें चयन प्रक्रिया को और पारदर्शी बनाने, न्यायिक जवाबदेही को सुनिश्चित करने के लिए न्यायिक आयोग के गठन का भी सुझाव था। संविधान में संशोधन करके छोटी-मोटी गलतियों के लिए हल्के-फुल्के दण्ड की भी व्यवस्था थी। किन्तु इस तरह के हर प्रयास को न्यायपालिका ने इस आधार पर खारिज कर दिया कि उससे न्यायिक स्वायत्तता का हनन होगा। इसके अलावा न्यायिक तंत्र में पारदर्शिता के लिए की गयी कोशिशों पर भी न्यायपालिका की ओर से कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिली। इतना ही नहीं, न्यायालय अवमानना कानूनों में संशोधन की कोशिशों को भी सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकार नहीं किया। परिणाम यह हुआ कि लोगों को ऐसा लगने लगा कि वे कानून से ऊपर हैं और उनका कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता।आरोपों के बावजूद पद परलोकशाही में भ्रष्टाचार की शिकायतें मिलती रहती हैं, क्योंकि कई बार तथ्यों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने की छूट को अभिव्यक्ति की आजादी के रूप में निरूपित किया जाता है। किन्तु न्यायापालिका का भ्रष्टाचार शेष लोगों के भ्रष्टाचार से अलग है इसलिए यह विशेष चिन्ता का विषय होता है। हमारे देश में न्यायापालिका को विशेष सुरक्षा कवच मिला हुआ है। उसकी समालोचना करने से भी लोग कतराते हैं, क्योंकि अदालती अवमानना की तलवार हमेशा लटकती रहती है। इसलिए उनके दोष जनता के सामने नहीं आ पाते। ऐसी परिस्थितियों में जनता को कई बार लगने लगता है कि भ्रष्टाचार का दृष्टिगोचर हिस्सा, वास्तविक हालात की तुलना में बहुत कम है। इस तरह की परिस्थितियों के कारण अदालतों से आम आदमी का भरोसा उठने लगता है जो किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की सबसे बड़ी पूंजी हैं।न्यायापालिका का भ्रष्टाचार इसलिए भी चिन्ता का विषय है क्योंकि न्यायाधीशों की सेवा शर्तें ऐसी हैं कि उनके खिलाफ कोई कार्यवाही करना असम्भव सा है। न्यायमूर्ति सौमित्र सेन के खिलाफ पिछले चार वर्षों से कार्यवाही चल रही है फिर भी वे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के नाते वेतन-भत्ते ले रहे हैं। न्यायाधीश दिनकरन के ऊपर आरोपों के बावजूद वे उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पद पर आसीन हैं। यही स्थिति कमोबेश देश के हर हिस्से में है। कई बार जनता को यह देखकर आश्चर्य होता है कि राजनेताओं पर लगे आरोपों के बाद वह पद छोड़ देते हैं, जबकि दूसरी ओर न्यायाधीशों की पद की सुरक्षा ऐसी है जिसमें वे अधिक अधिकार सम्पन्न हैं। उनके द्वारा अधिकार का दुरुपयोग करने पर समाज अधिक प्रभावित हो सकता है, फिर भी उनके खिलाफ कार्यवाही आसान नहीं है।न्यायमूर्ति सौमित्र सेन पर लगे आरोपों की जांच करने वाली समिति ने अपनी रपट में एक महत्वपूर्ण तथ्य की ओर इशारा किया था। उसमें कहा गया है कि न्यायपालिका को अत्यन्त मजबूत सुरक्षा कवच और अत्यन्त विस्तृत अधिकार इसलिए दिया गया है ताकि वह स्वतंत्र और निष्पक्ष होकर काम कर सके। उसे किसी का भय न रहे। रपट में आगे कहा गया है कि न्यायाधीशों को सुरक्षा इसलिए भी दी गयी है ताकि उन्हें अनर्गल आरोपों से बचाया जा सके और वे अपने दायित्वों को पूरी क्षमता से निभा सकें। ऐसे में यदि बाड़ ही खेत को खाने लगे तो जनता किसके ऊपर भरोसा करेगी? समय आ गया है कि इन परिस्थितियों पर न्यायपालिका आत्म विश्लेषण करे और समाज में इस विषय पर व्यापक बहस हो ताकि न्यायिक जवाबदेही की पुख्ता व्यवस्था की जा सके और न्यायपालिका की प्रतिष्ठा के क्षरण को रोका जा सके। द5
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