|
26 जनवरी को गणतंत्र दिवस पर मुम्बई के जिहादी हमले को दो महीने पूरे हो रहे हैं। उस रात मुट्ठी भर (महाराष्ट्र सरकार के अनुसार केवल दस) जिहादियों ने 183 प्राणों की बलि ले ली, 300 से अधिक को घायल कर दिया, खरबों रुपये की सम्पत्ति को नष्ट कर दिया और पूरे विश्व में भारत की प्रतिष्ठा को धूल में मिला दिया। तभी से हम इस हमले की जड़ को खोद डालने की गर्वोक्तियां करते आ रहे हैं। उस हमले की योजना, तैयारी, और क्रियान्वयन का पूरा दोष पाकिस्तान के मत्थे मढ़कर हम पाकिस्तान को सबक सिखाने की गर्जनाएं तभी से करते आ रहे हैं। पर इसके लिए अपने सैन्य पुरुषार्थ से अधिक हम विश्व के अन्य राष्ट्रों के हस्तक्षेप की गुहार लगाते रहे हैं। क्या हम गणतंत्र दिवस पर सिर ऊंचा करके कह सकते हैं कि पाकिस्तान को हम झुका पाये, विश्व शक्तियों ने हमारी चीख- पुकार पर कोई ध्यान दिया और जिहाद के खतरे से हम मुक्त हो गये? अमरीका में बुश चले गए, ओबामा आ गए। ओबामा ने आते ही पहली घोषणा की कि यदि पाकिस्तान अफगानिस्तान की लड़ाई में पूरा साथ देगा तो अमरीका उसको असैनिक आर्थिक सहायता एकदम तीन गुना कर देगा। यही है जो आर्थिक दृष्टि से दिवालिया पाकिस्तान चाह रहा था। भारत की युद्ध गर्जनाओं का हवाला देकर वह अमरीका को कह रहा था कि भारत के युद्धक इरादों का मुकाबला करने के लिए उसे अपनी सेनाओं को अफगानिस्तान सीमा से हटाकर भारत के साथ पूर्वी सीमा पर लाना पड़ेगा। वैसे भी पाकिस्तान 9/11 के बाद से ही अफगानिस्तान पर अमरीकी आक्रमण में सहायता के नाम पर अमरीका का लगातार आर्थिक दोहन करता आ रहा है। राष्ट्रपति भले ही बदल गए हों, पर आज भी अमरीका की मुख्य चिंता अफगानिस्तान में फंसी अपनी दुम को सुरक्षित निकालने की है। इसलिए उसने भारत की याचिकाओं को ठंडे बस्ते में डालकर पाकिस्तान की “ब्लैकमेलिंग” नीति के सामने समर्पण करने को अपने राष्ट्रीय हित में प्राथमिकता दी है।भरोसा किस पर?भारत को दूसरा भरोसा था ब्रिटेन पर। भारत सरकार समझती थी जिहादी तत्वों की भारी उपस्थिति एवं गतिविधियों से परेशान ब्रिटेन भारत के दर्द को ज्यादा अच्छा समझता है और वह इस मौके पर भारत की सहायता के लिए दौड़ा चला आएगा। ब्रिटेन के विदेश मंत्री मिलिबैंड भारत आए, उन्होंने राहुल के चुनाव क्षेत्र अमेठी में किसी वंचित बस्ती की गरीबी को अपनी आंखों से देखा भी, पर जहां तक मुम्बई पर जिहादी हमले के संबंध में पाकिस्तान पर दबाव बनाने का सवाल है, वे भारत को उपदेश दे गये कि आतंकवाद या जिहाद की जड़ कश्मीर समस्या है, आतंकवाद से छुटकारा पाना है तो कश्मीर समस्या को पहले हल करो। हतप्रभ भारत सरकार ब्रिटिश सरकार के पास कागजी विरोध दर्ज कराने से ज्यादा कुछ नहीं कर पायी है। बेचारे विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी प्रतिदिन वक्तव्य दे रहे हैं कि विश्व को पाकिस्तान पर दबाव बनाना चाहिए वरना भारत ने अपने सब विकल्प खुले रखे हैं।पर उनके ये शब्द बाण न तो विश्व शक्तियों के मन में भारत की व्यथा के प्रति संवेदना उत्पन्न कर पा रहे हैं, न ही पाकिस्तान के मन में किसी तरह का डर। “मेल टुडे” जैसे मुस्लिम समर्थक और हिन्दू विरोधी अखबार खुलकर लिख रहे हैं कि मुम्बई पर जबर्दस्त आतंकवादी हमले के बाद वायुसेना और नौसेना तो आक्रमण के लिए तैयार थीं, पर क्या थलसेना भी युद्ध के लिए तैयार थी? और कि “शस्त्रास्त्रों की कमी ने सेना को पंगु बना दिया था।” (मेल टुडे, 17 जनवरी) अगले दिन वह दोहराता है कि सेना हथियारों की कमी से त्रस्त है क्योंकि सीएजी की 2007 की रपट के अनुसार पिछले पांच सालों में सेना की हथियारों की मांग की सरकार लगातार उपेक्षा करती रही (मेल टुडे, 18 जनवरी)। और अब भारत के तीसरे मित्र राष्ट्र ने परमाणु पनडुब्बी की आपूर्ति अनिश्चितकाल के लिए टाल कर भारत की रक्षा तैयारियों को भारी झटका दे दिया है। जबकि अमरीकी रपटों के अनुसार पाकिस्तान अमरीका से प्राप्त आर्थिक सहायता का इस्तेमाल भारत के विरुद्ध सामरिक तैयारियों के लिए करता आ रहा है। इधर 20 जनवरी को पोकरण में ब्राहृोस क्रूज मिसाइल का परीक्षण आखिरी चरण में “टेक्नीकल” गड़बड़ी में फंसकर विफल हो गया और एक महीने बाद वह दोबारा किया जाएगा। इस प्रकार पिछले दो महीने में मुम्बई हमले के बारे में भारत की कुल मिलाकर अकेली उपलब्धि घायल फिदायीन कसाब की गिरफ्तारी है। वह किसकी गोली से घायल हुआ? महाराष्ट्र पुलिस के अनुसार किसी अज्ञात सिपाही की गोली से या शरीद अशोक काम्टे की एडवोकेट पत्नी विनीता काम्टे की गहन जांच के अनुसार स्वयं काम्टे की गोली से? पर यह कठोर सत्य है कि यदि कसाब पकड़ा न गया होता तो भारत सरकार के हाथ में कोई भी प्रमाण न होता। सच बात यह है कि हमारे राजनेताओं का ध्यान अब मुम्बई कांड से पूरी तरह हट चुका है और उन पर तीन महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनावों का भूत पूरी तरह सवार हो गया है। यूपीए और नकली कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी का पूरा समय कभी कर्नाटक में भाजपा के तीन बिके हुए निष्कासित लोकसभा सदस्यों को अपनी पार्टी में औपचारिक प्रवेश देने के कार्यक्रम में उपस्थित रहकर फोटो खिंचाने, शरद पवार के साथ सीटों के बंटवारे के लिए एकांत बैठकें कराने, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की धमकियों को निरस्त करने जैसी गतिविधियों में ही खर्च हो रहा है। सोनिया की चिंता बढ़ गयी है क्योंकि प्रधानमंत्री पद के लिए मनमोहन सिंह का नाम एक प्रबल दावेदार के रूप में उछलने लगा है।कुर्सी की दौड़उधर, एनसीपी ने शरद पवार को भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश कर दिया है। लालू यादव लोकसभा में खुलकर कह चुके हैं कि वे भी प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं पर, जल्दी में नहीं हैं। सोनिया ने पिछले पांच साल में ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, मिलिंद देवड़ा और नवीन जिंदल जैसे क्षमतावान प्रतिभाशाली युवा सांसदों को पीछे धकेल कर राजनीतिक सूझबूझ से रहित और गुजरात, छत्तीसगढ़ आदि सभी राज्यों के चुनाव प्रचार में फ्लाप रहे राहुल को अपनी पार्टी के महासचिव पद तक पहुंचाने और उन्हें भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत करने के लिए जो कड़ा परिश्रम किया है, क्या वह बेकार चला जाएगा? सोनिया और राहुल का राजनीतिक भविष्य उत्तर प्रदेश पर निर्भर करता है। और उत्तर प्रदेश में मायावती से टक्कर लेना, समाजवादी पार्टी से गठजोड़ के बिना संभव नहीं है। इसलिए सोनिया समाजवादी पार्टी के नेता अमर सिंह की प्रत्येक धमकी के सामने झुकने के लिए मजबूर हैं। अमर सिंह को खुश करने के लिए दिग्विजय सिंह के मुंह पर ताला जड़ दिया, सत्यव्रत चतुर्वेदी को प्रवक्ता पद से हटाकर सार्वजनिक रूप से अपमानित किया। अमर सिंह ने मुम्बई से सोनिया पार्टी की सांसद प्रिया दत्त के विरुद्ध उसके भाई संजय दत्त को खड़ा कर दिया। प्रिया दत्त को संजय के विरुद्ध अपने वक्तव्य को वापस लेना पड़ा। अमर सिंह ने प्रेस कांफ्रेंस में सोनिया और राहुल की तारीफ करके उनकी पार्टी के सभी वरिष्ठ नेताओं का खुला अपमान किया। जिस सरकार की एकमात्र नियंता की यह मानसिकता हो, वह मुम्बई पर जिहादी हमले का मुंहतोड़ जवाब कैसे दे सकती है या हमले की संभावना को रोक सकती है? अमरीका ने अभी ही चेतावनी दे दी है कि भारत पर मुम्बई जैसे हमलों की पूरी संभावना है। कर्नाटक के भाजपा मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ने आशंका व्यक्त की है कि जिहादियों का अगला निशाना बंगलूरु हो सकता है। किंतु इन चेतावनियों की ओर ध्यान देने की फुर्सत किसे है? इस समय तो प्रत्येक राजनेता और प्रत्येक दल चुनावी रोटियां सेंकने में लग गया है। राजनेताओं का व्यक्तिगत अहं नंगा नाच कर रहा है। सत्ता के लिए दल टूट रहे हैं, परिवारों को तोड़ा जा रहा है। व्यक्तिगत अहं के बंदी राजनेता अपने ही दल के नेताओं पर हमला कर रहे हैं, दल ही नहीं तो विचारधारा को भी बदल रहे हैं। मंगलवार 20 जनवरी को दोपहर 2 बजे भोजन के समय जब एनडीटीवी चैनल खोला तो कल्याण सिंह की प्रेस कांफ्रेंस सामने आ गयी। उनसे बहुत पुराना परिचय है अत: रुचि पैदा हो गयी। यद्यपि मैंने 1972 में ही दल और वोट की राजनीति से भावनात्मक एवं शारीरिक संबंध विच्छेद कर लिया है। कल्याण सिंह जी की प्रेस कांफ्रेंस को सुनकर मन को गहरी पीड़ा हुई। हर प्रश्न के उत्तर में केवल अहंकार बोल रहा था, कोई राष्ट्रभक्त अंत:करण नहीं। उन्होंने कहा, “मैंने भाजपा को दोबारा सत्ता में पहुंचाया, मैंने भाजपा को उत्तर प्रदेश में 65 लोकसभा सीटें जितायीं। मैंने बुलंदशहर की लोकसभा सीट से अशोक प्रधान को खड़ा न करने को कहा, पर मेरी बात नहीं सुनी गयी। कभी मैं 85 सीटों का निर्णय करता था, अब एक पर भी मेरी सुनवाई नहीं। मेरे लिए भाजपा में न स्थान है, न सम्मान, न स्वाभिमान है। भाजपा में जनाधार वाले नेताओं के लिए स्थान नहीं है। मैं ही नहीं, उमा भारती, जो मध्यप्रदेश में तीन चौथाई सीटें जिताकर लार्इं, मदन लाल खुराना, जिन्होंने दिल्ली में भाजपा को सींचा, बड़ा किया, झारखंड में बाबूलाल मरांडी तक पार्टी से बाहर हैं।” कल्याण सिंह जी ने यह नहीं सोचा कि क्या भाजपा के बिना वे उत्तर प्रदेश से मुख्यमंत्री बन सकते थे? यदि मध्यप्रदेश में भाजपा को तीन चौथाई सीटें मिलने का श्रेय अकेले उमा भारती के जनाधार को जाता है तो भाजपा से बाहर जाने के बाद उनका वह जनाधार उनको सीटें क्यों नहीं जिता रहा? क्यों वे पिछले विधानसभा चुनाव में अपनी सीट भी हार गयीं? यदि कल्याण सिंह का स्वाभिमान भाजपा में सुरक्षित नहीं है तो अयोध्या के प्रश्न पर मुलायम सिंह से उनका कड़ा विरोध रहा है। अब उनके साथ क्या वे अपनी विचारधारा के साथ स्वाभिमानपूर्वक खड़े होंगे? अपने सम्मान की रक्षा के लिए क्या भाजपा के कुछ वोट काटना ही उनकी राजनीति का लक्ष्य रह गया है? कल्याण सिंह जी की प्रेस कांफ्रेंस को सुनकर मुझे 11 दिसंबर को लिखे और 22 दिसंबर के पाञ्चजन्य में प्रकाशित अपने लेख का शीर्षक स्मरण आ रहा था- “राष्ट्र से बड़ा दल और दल से बड़ा मैं”। यह शीर्षक राजनीति के वर्तमान परिदृश्य पर पूरी तरह लागू होता है।कहां जुड़े हैं तार?वंश और व्यक्ति केन्द्रित दल सत्ता के लिए राष्ट्रीय समाज को जाति, पंथ और क्षेत्र के आधार पर तोड़ने में जुट गये हैं। कोई पार्टी उत्तर भारतीय बनाम महाराष्ट्र सवाल खड़ा कर रही है, तो कोई कर्नाटक और महाराष्ट्र के बीच बेलगांव के पुराने विवाद को जिंदा करके हिंसा फैला रही है। कम्युनिस्टों के तीसरे मोर्चे और सोनिया गठबंधन के बीच मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने की जबरदस्त होड़ लगी है। वामपंथ इस्रायलियों के विरुद्ध मुस्लिम आक्रोश को भुनाने में लगा है, देश में मुस्लिम प्रदर्शनों का नेतृत्व कर रहा है तो सोनिया गठबंधन 29 सितम्बर 2008 के मालेगांव विस्फोट, जिसमें केवल 6 व्यक्ति मारे गये थे, के तार इस्रायल और नेपाल के माओवादियों से जोड़ने का प्रयास कर रहा है। महाराष्ट्र की मकोका अदालत में वहां की एटीएस ने 4528 पृष्ठों की जो चार्जशीट दाखिल की है, उसमें इस छोटे से मालेगांव विस्फोट के पीछे 2024 तक भारत में इस्रायल और माओवादियों की सहायता से हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के षड्यंत्र का हास्यास्पद आरोप भी सम्मिलित किया गया है। हिन्दू समाज के उत्पीड़न से व्यथित कुछेक युवकों के आक्रोश को हिन्दू राष्ट्र की विचारधारा से जोड़ना ही उसके राजनीतिक उद्देश्य को स्पष्ट कर देता है। आरोपियों के वकील महेश जेठमलानी की यह प्रतिक्रिया सही लगती है कि यह आरोप पत्र राजनीति प्रेरित है। आगामी लोकसभा चुनावों के समय मुस्लिम समाज के मन में उनके शत्रु इस्रायल की सहायता से भारत में हिन्दू राज्य की स्थापना का भय उत्पन्न कर उनके वोट अपनी झोली में लाना ही इसका मुख्य उद्देश्य प्रतीत होता है। क्या आप विश्वास कर सकते हैं कि इस षड्यंत्र का मुख्य सूत्रधार ले.कर्नल श्रीकांत पुरोहित केवल 27 लाख रुपये के सहारे यह षड्यंत्र सफल करने वाला था? मालेगांव विस्फोट को मुम्बई आक्रमण के समकक्ष लाने के लिए उड़ाया गया कि पाकिस्तान समझौता एक्सप्रेस में विस्फोट के आरोप में ले.कर्नल पुरोहित को पाने की मांग उठा सकता है। पाकिस्तान सरकार की ओर से यह मांग किसने उठायी, कब उठायी, इसका कुछ पता नहीं। किंतु भारत के रक्षामंत्री एंटोनी और विदेश राज्य मंत्री आनंद शर्मा तुरंत दौड़ पड़े अपनी बहादुरी दिखाने कि हम पाकिस्तान की यह मांग नहीं मानेंगे। वे भूल गये कि भारत सरकार स्वयं ही उस विस्फोट के लिए पाकिस्तान को दोषी ठहरा चुकी है और 20 जनवरी को अपनी प्रेस कांफ्रेंस में महाराष्ट्र एटीएस के कार्यकारी प्रमुख के.पी.रघुवंशी ने पत्रकारों को बताया कि उनकी जांच में पुरोहित का समझौता एक्सप्रेस विस्फोट से कोई संबंध नहीं निकला है। उन्होंने यह भी माना कि इस्रायल और नेपाल के माओवादियों के सम्पर्क का कोई प्रमाण अब तक नहीं मिला है। किंतु यह प्रचार चुनावों तक चलता रहेगा, क्योंकि मुस्लिम मतदाताओं को भ्रमित करने के लिए यह आवश्यक है। क्या मुम्बई मोर्चे पर अपनी हार को ढकने के लिए मालेगांव मोर्चा खोला गया है?लोकसभा चुनावों के कारण ही मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने बटला हाउस में मोहन चंद शर्मा की शहादत पर पुन: प्रश्नचिन्ह लगा दिया, जबकि भारत सरकार उन्हें अशोक चक्र देने का विचार कर रही है। मदरसों को, जहां जिहादी विचारधारा और मानसिकता का पोषण होता है, सीबीएसई के समकक्ष दर्जा दिया जा रहा है। उपराष्ट्रपति अल्पसंख्यकों अर्थात् मुसलमानों के लिए आरक्षण की मांग उठा रहे हैं। दु:खद स्थिति यह है कि जो मीडिया, विशेषकर न्यूज चैनल मुम्बई हमले के विरुद्ध जनचेतना और एकता को पैदा करने का माध्यम बने थे, जो सेंसरशिप की फांसी से बाल-बाल बचे हैं, वे ही इस राष्ट्रघातक विभाजनकारी, पतित राजनीति के प्रचार का स्वयं को हथियार बनने दे रहे हैं। राष्ट्रीय संकट की इस घड़ी में आतंकवाद के विरुद्ध राष्ट्रीय एकता और संकल्प को दृढ़ करने की अपनी भूमिका से मीडिया पीछे कैसे हट सकता है? 23.01.20094
टिप्पणियाँ