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प्रकृतिकोपस्सर्वकोपेभ्यो गरीयान्।प्रजा का कोप सब कोपों से बड़ा होता है।-चाणक्य (नीतिसूत्र, 13)बस, प्रतिशोध की आग न बुझेबलि बकरे की ही चढ़ाई जाती है, शेर की नहीं। यह बात समझने में हिन्दुओं को कितनी सदियां लगेंगी?अच्छे वक्त यदि खत्म होते हैं तो खराब समय भी स्थाई नहीं होते। वीर सावरकर ने कहा था कि जब आप सर्वाधिक संकटों और चुनौतियों से घिरे हों, सामने आशा के बादलों की जगह घटाटोप काले बादल समूह दिखें तो वही समय किसी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र के लिए स्वर्णिम काल होता है। क्योंकि ऐसे ही समय पता चलता है कि व्यक्ति या राष्ट्र के घटकों की धमनियों में बह रहे रक्त का रंग लाल है या सफेद। शांति के समय तो सभी उत्सव मना लेते हैं। संकट के समय जो खड़ा होकर आघातों को परास्त करे वही मनुष्य होता है। छल, कपट और धोखाधड़ी से वार करने वाले कूड़ेदान में समाते ही हैं, यह इतिहास का सत्य है। लेकिन जैसा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूज्य सरसंघचालक श्री कुप्.सी. सुदर्शन कहते हैं, उषाकाल से पहले के अंधेरे को पहचानने और अपना मनोबल न खोते हुए शत्रु पर वार पर वार करते जाने का जिसमें साहस होगा वही भारत भाग्योदय का सर्जक होगा। हिन्दू समाज भी आज ऐसी ही परिस्थिति से गुजर रहा है। हिन्दू बहुल देश में रामसेतु की रक्षा के लिए भी आन्दोलन की आवश्यकता महसूस की जा रही है! जो चीज स्वाभाविक एवं स्वत:स्फूर्त होनी चाहिए उसके लिए समाज में जनजागरण का प्रयास जरूरी हो गया है। यह वक्त है जब हमें अपने ही भीतर बैठे हुए समाज के विरोधियों, आपसी फूट, पत्रकारिता के धन संचालित विद्वेष पोषक उपयोग, सामाजिक, पारिवारिक विघटन जैसी दुर्बलताओं का प्रतिकार करते हुए भारत-द्रोहियों से लोकतांत्रिक एवं संवैधानिक प्रतिशोध का संकल्प घोषित करना चाहिए। यह समय सम्पूर्ण शक्ति को एकत्र कर भारत और भारतीयता अर्थात् हिन्दुत्व पर हो रहे प्रहारों को परास्त करने का है। जो कौम अपने देश और राष्ट्रीय अखण्डता पर हमला करने वालों को निर्णायक तौर पर नाकाम करने से डरती है, उसकी रक्षा करने के लिए ईश्वर भी अनिच्छुक रहता है।तीन साल बीत गएयूंतो सरकारों का भी आना-जाना लगा रहता है और उनके काम, अच्छे और खराब वर्ग में विपक्ष द्वारा रखे जाते रहते हैं। सरकार कांग्रेस के नेतृत्व में कम्युनिस्टों के सहारे चल रही है, इसका अर्थ अनिवार्यत: यह नहीं होना चाहिए कि हम उसकी आलोचना ही करें। लेकिन अच्छे, कम अच्छे या बिल्कुल अच्छे नहीं, ऐसे बिन्दु सम्यक दृष्टि से ढूंढने चाहिए। इस सरकार के बारे में क्या अच्छा कहा जा सकता है? महंगाई ताबड़तोड़ बढ़ी है। किसानों की आत्महत्याएं और नंदीग्राम में जलियांवाला बाग कौन भूल सकता है? हिन्दू संवेदनाओं पर तीव्र आघात बढ़े हैं। अमरीका से संधि अभी अधर में है-अमरीका अपनी शर्तें मनवाना चाहता है और भारत की यह वर्तमान सरकार विपक्ष द्वारा उठाए गए मुद्दों के दबाव में सब कुछ अमरीकी मर्जी से करने में थोड़ा कतराती दिखती है। पाकिस्तान स्वयं परेशानी में है। परवेज मुशर्रफ के दिन गिने हुए लगते हैं, फिर भी भारत सरकार पाकिस्तान के साथ दोस्ती की बातें करना जरुरी मान रही है। लेकिन इतना तय है कि कांग्रेस के भीतर भी सरकार के तीन साल पूरे होने पर उत्साह, उत्सव या संतोष का भाव नहीं है। डा. मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल के सदस्य मणिशंकर अय्यर ने सरकार के तीन साल पूरे होने पर जो नकारात्मक टिप्पणी की है वह जहां कांग्रेस के मायूस मन को दर्शाती है वहीं यह भी कहा जा रहा है कि सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री तो बना दिया लेकिन सरकार की नाकामियों का जिम्मा उनके सिर पर न आए इसके लिए मणिशंकर अय्यर से कवच-बयान दिलवा दिया। कम्युनिस्ट पार्टी के लोग भी सरकार की आलोचना के पाखंड में जुटे हुए हैं। तो सरकार के चलने से खुश कौन है? वह जो असली “प्रधानमंत्री” है, या वह जो नामांकित किया गया है? क्या जनता खुश है या वे, जो दिन रात पैसा बनाने में लगे हैं? कुल मिलाकर लगता है कि यह सरकार जनता के मन को छू नहीं पाई और आम लोग यह कहने लगे हैं कि सब एक जैसा ही है, किससे क्या उम्मीद करें। हां, वाजपेयी सरकार की उपलब्धियां लोग याद कर कहते हैं कि उस समय हम अलग ही माहौल में आगे बढ़ रहे थे तथा इतना खराब हाल नहीं था।सरकार कोई भी रहे, भारत अपनी गति से आगे बढ़ रहा है। इसलिए राजनीतिक चर्चा में ही पूरा समय लगाने के बजाय हम अपने-अपने स्तर पर अगर यह सोचें कि देश के विभिन्न क्षेत्रों में छाई विकृतियां और दुर्बलताएं जन सहभाग और संगठन के बल पर कैसे दूर की जाएं और विद्वेष तथा नफरत से परे राष्ट्रीय विकास का ईमानदार राजनीतिक माध्यम कैसे पनपे, तो यह अधिक उपयुक्त होगा।5
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