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हमने सहयोगी के रूप में भारत की नई खोज” की हैगत 22 अगस्त को जापान के प्रधानमंत्री शिंजो एबे ने भारतीय संसद को संबोधित करते हुए दोनों देशों के बीच ऐतिहासिक संबंधों का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि भारत और जापान मैत्री की एक मिसाल कायम करते हुए इस क्षेत्र की प्रगति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। जापान ने एक सहयोगी के रूप में भारत की “नई खोज” की है। यहां प्रस्तुत हैं श्री एबे के विस्तृत वक्तव्य के संपादित अंश-“भले ही अलग-अलग धाराओं के स्रोत विभिन्न स्थानों से निकलते हों लेकिन उन सभी का पानी समुद्र में ही मिलता है।”आज मुझे महान आध्यात्मिक नेता स्वामी विवेकानन्द, जो भारत की विश्व को एक महान देन हैं, के इन शब्दों के साथ अपना सम्बोधन प्रारंभ करते हुए बेहद प्रसन्नता हो रही है।मित्रो, आज वास्तव में हम ऐतिहासिक और भौगोलिक दृष्टि से कहां खड़े हैं? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए मैं 1655 में दारा शिकोह द्वारा रचित पुस्तक के शीर्षक को उद्धृत करना चाहूंगा।आज हम उस मंजिल पर पहुंच गए हैं जहां “दो महासागरों का संगम” हो रहा है। प्रशांत और हिन्द महासागर आज एक स्वतंत्र और समृद्ध सागर के रूप में एक गतिशील संयोजन बना कर रहे हैं। हम जितना इन सागरों को पोषित और समृद्ध करेंगे, ये हर दृष्टि से उतना ही अधिक पारदर्शी सागर बनकर विशाल रूप धारण करेंगे। मैं भारत की एक अरब जनसंख्या को सीधे यह संदेश देने यहां आया हूं।तेनशिन ओकाकुरा जापान की वे विभूति थे जिनकी विचारधारा आधुनिक जापान के शुरुआती काल से अधिक परिपक्व थी और वे एक तरह से नवचेतन युग के प्रतिपादक थे। स्वामी विवेकानन्द ने ओकाकूरा से मित्रता की थी। ओकाकुरा को न केवल स्वामी विवेकानंद से मार्गदर्शन मिला, बल्कि उन्हें उनकी सच्ची शिष्या और विख्यात महिला समाज सुधारक बहन निवेदिता का सान्निध्य भी प्राप्त हुआ था।कल प्रात: मैं कोलकाता में संभवत: न्यायमूर्ति राधाबिनोद पाल के पुत्र से मुलाकात करूंगा। न्यायमूर्ति पाल का सुदूर पूर्व में अंतरराष्ट्रीय सैन्य न्यायालय के दौरान अदम्य साहस का परिचय देने के लिए आज भी अनेक जापानियों द्वारा अत्यधिक सम्मान और आदर किया जाता है।बंगाल प्रांत के लोगों ने जापान के साथ रिश्ता कायम किया था। यह रिश्ता भले उस व्यक्ति के जरिए हुआ जिसके नाम पर आज कोलकाता का अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा है (सुभाष चंद्र बोस), अथवा, यदि इतिहास के पन्नों में थोड़ा पीछे जाएं, तो अमर कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर, जिन्होंने अपने समकालीन जापानियों के साथ विचारों का आदान-प्रदान किया था, के जरिए था। वास्तव में, आधुनिक काल के प्रारंभ में जापान और भारत के बुद्धिजीवी नेताओं द्वारा विचारों का जितना अधिक गहन और समृद्ध आदान-प्रदान किया गया, वह कुछ मायनों में ऐसा है जिसकी हम आधुनिक काल में केवल परिकल्पना ही कर सकते हैं।भारत और जापान में आज जो परिवर्तन होने शुरू हुए हैं, वास्तव में उनकी कोई मिसाल नहीं है।निस्संदेह इसकी पृष्ठभूमि में हमारी बढ़ती अपेक्षाएं ही हैं जिनसे दोनों देशों के बीच आर्थिक सम्बंध प्रगाढ़ होंगे और इसका स्पष्ट प्रमाण इसी बात से परिलक्षित होता है कि निप्पोन केईदानरेन के अध्यक्ष श्री फुजियो मितारई सहित लगभग 200 उद्योगपति मेरे साथ भारत की यात्रा पर आए हैं।दूसरा, आम जापानी में भारत में दिलचस्पी लेने की जो भावना है, वह उसके माध्यम से इस विस्तृत एशिया की यथार्थता को जानने का प्रयास कर रहा है। जापान ने भारत की, एक सहयोगी के रूप में, “नई खोज” की है, एक ऐसा सहयोगी जो हमारे हितों और मूल्यों को समझता है तथा एक भागीदार के रूप में भविष्य में भी हमारे साथ स्वतंत्रता और समृद्धि के माहौल को सुदृढ़ बनाने की दिशा में कार्य करेगा जो सभी के लिए खुला और पारदर्शी होगा।मैं 1893 में शिकागो में स्वामी विवेकानंद द्वारा दिए गए गहन अर्थपूर्ण भाषण के निष्कर्ष के एक अंश से निम्नलिखित पंक्तियां उद्धृत करना चाहूंगा- उन्होंने कहा था, “सहायता करो, संघर्ष नहीं”, “आत्मसात करो, विनाश नहीं”, “मैत्रीभाव एवं शांति रखो, मनमुटाव नहीं”।आप इन संदेशों को आधुनिक काल के संदर्भ में देखें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि सहिष्णुता के ये उद्गार विगत का अवशेष न होकर वर्तमान के हैं। जापान के लोग सम्राट अशोक के शासनकाल से लेकर महात्मा गांधी जी के अहिंसावादी सत्याग्रह आंदोलन तक, भारतीय आध्यात्मिक इतिहास में सहिष्णुता से भली-भांति परिचित हैं। आज मैं भारत के लोगों को यह बात बलपूर्वक कहना चाहूंगा कि जापानी भारत की जनता के साथ मिलकर काम करने के लिए तत्पर हैं ताकि सहिष्णुता की यह भावना इस सदी का प्रमुख सिद्धांत बन जाए।आंकड़े इस ओर संकेत करते हैं कि 2050 तक भारत दुनिया की सबसे घनी आबादी वाला देश बन जाएगा। संयुक्त राष्ट्र के पूर्वानुमानों के अनुसार, यदि हम केवल 2030 तक की ही बात करें तो भारत में लगभग 27 करोड़ लोगों के नए सिरे से देहातों को छोड़कर, शहरों और नगरों में बसने की संभावना है।मेरे विचार में भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती गरीबी के खिलाफ संघर्ष करना है जो आज भी जारी है और लोकतांत्रिक तरीकों से उन सामाजिक समस्याओं से पार पाना है। जापान और भारत एक नीतिगत वैश्विक भागीदारी बनाकर अपने सम्बंधों का विस्तार कर रहे हैं और उन्हें सुदृढ़ कर रहे हैं, और ऐसा करते हुए उनके उद्देश्य परस्पर एक बन गए हैं। जापान की कूटनीति अब अनेक क्षेत्रों में विभिन्न अवधारणाओं को प्रोत्साहन दे रही है ताकि यूरेशियन महाद्वीप की बाहरी सीमा पर “स्वतंत्रता और समृद्धि का क्षेत्र” नामक एक विशिष्ट घेरा बन सके। जापान और भारत की नीतिगत वैश्विक भागीदारी इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण है।हालांकि जापान और भारत एक-दूसरे के नजदीक आ रहे हैं, और इसमें संयुक्त राज्य अमरीका और आस्ट्रेलिया को शामिल करके यह “विस्तृत एशिया” एक ऐसा विशाल नेटवर्क विकसित करेगा जो पूरे प्रशांत महासागर में फैल जाएगा। इस मुक्त और पारदर्शी नेटवर्क से लोगों को वस्तुओं, पूंजी और ज्ञान से सम्बंधित जानकारी आसानी से उपलब्ध हो सकेगी। हमारे दोनों देशों के लोकतंत्र की एक बड़ी जिम्मेदारी वास्तव में क्षेत्र में स्वतंत्रता और समृद्धि को प्राप्त करना है। इसके अलावा, समुद्री सीमाओं वाले देशों के रूप में समुद्री मार्गों की सुरक्षा भारत और जापान दोनों के महत्वपूर्ण हितों को प्रभावित करती है। नौ-परिवहन विश्व की अर्थव्यवस्था के लिए काफी महत्वपूर्ण है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम आने वाले वर्षों में ऐसे देशों की ताकत को साथ मिलाकर इस बड़ी जिम्मेदारी को निभाने के लिए कार्य करें, जो हमें सौंपी गई है? जापान और भारत को आने वाले वर्षों में सुरक्षा के क्षेत्र में किस तरह से सहयोग करना चाहिए? दोनों देशों के कूटनीति और रक्षा के प्रभारी अधिकारियों को इस विषय पर संयुक्त रूप से विचार करना चाहिए।जापानी और भारतीय, दोनों प्रकृति के प्रति इतनी अधिक श्रद्धा रखते हैं कि यह मानना असंभव लगता है कि हमारे देशों के लोगों में कुछ बातें एक समान नहीं हैं।कुछ समय पहले मैंने “ग्लोबल वार्मिंग” को कम करने के लिए “कूल अर्थ 50” नामक एक पहल दुनिया के समक्ष प्रस्तुत की थी। इस पहल के अंतर्गत 2050 तक ग्रीनहाउस गैसों की उत्र्सन मात्रा में 50 प्रतिशत कमी की जाएगी। मैं चाहता हूं कि जापान और भारत 2050 तक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन की मात्रा में 50 प्रतिशत की कमी करने के इस लक्ष्य को एक साथ मिलकर हासिल करें। भविष्य में दोनों देशों के बीच व्यापार में निवेश प्रभावशाली ढंग से बढ़ेगा। यह कहना गलत नहीं होगा कि अगले केवल तीन वर्षों में यह निवेश लगभग 20 अरब अमरीकी डालर तक पहुंचने की संभावना है।प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कुल 2,800 किलोमीटर लंबे रेलवे गलियारे के माध्यम से मुम्बई, दिल्ली और कोलकाता को जोड़ने की महत्वकांक्षी योजनाओं को लागू करने में व्यापक उत्साह का परिचय दिया है। इसके अलावा, जहां तक संभावित दिल्ली-मुम्बई औद्योगिक गलियारे का संबंध है, जापान सक्रिय रूप से ऐसे उपायों पर विचार कर रहा है जिसके द्वारा वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जा सके। हमारा पूरी तरह से यह मानना है कि एक सुदृढ़ भारत, जापान के हित में है और एक सुदृढ़ जापान, भारत के हित में है।अब चूंकि यह “विस्तृत एशिया” हिन्द और प्रशांत महासागरों के संगम का नया रूप ले रहा है, अत: इन महासागरों के किनारे बसे लोकतांत्रिक देश अपने नागरिकों में प्रत्येक संभावित स्तर पर दोस्ती की भावना को और भी ज्यादा सुदृढ़ करें। अगले पांच वर्षों में हम जापान में प्रतिवर्ष 500 भारतीय युवाओं को आमंत्रित करेंगे। इनमें से लगभग 100 स्थान जापानी भाषा का अध्ययन करने और जापानी भाषा सिखाने वालों के लिए रखे जाएंगे, जो भावी पीढ़ियों के लिए एक निवेश साबित होगा।भारत और जापान के बीच संबंध कायम करने वाला यह मैत्रीभाव निश्चित रूप से हमारे दोनों देशों के लोगों का नेतृत्व करेगा जिससे दोनों एक-दूसरे की भावनाओं को समझ सकेंगे। 50 वर्ष पहले मेरे नाना नोबुसुके किशी भारत की यात्रा करने वाले जापान के पहले प्रधानमंत्री थे। तब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू मेरे नानाजी को एक निजी नागरिक अभिनंदन समारोह में ले गए थे जिसमें हजारों लोग एकत्र हुए थे। उन्होंने बड़े उत्साह से उपस्थित जनसमूह से उनका परिचय कराते हुए कहा था, “ये जापान के प्रधानमंत्री हैं, एक ऐसा देश जिसका मैं बेहद सम्मान और आदर करता हूं।” किशी वे प्रधानमंत्री थे जिन्होंने जापान सरकार की युद्धोपरांत पहली सरकारी विकास सहायता शुरू की थी। उस समय, जिस देश ने जापान की सरकारी विकास सहायता स्वीकार की थी, वह और कोई नहीं, भारत था। मेरे नानाजी इस बात को कभी भी नहीं भूले। भारत और जापान ऐसे ही भागीदार बनना चाहते हैं जो एक-दूसरे के साथ इसी तरह के सही तालमेल का प्रदर्शन करें।9
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