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हिन्दुओं पर आघात बढ़े, अलगाव पाला-पोसाराज्य के बजट में आय कम, खर्च चौगुनाजम्मू-कश्मीर का हाल ही में प्रस्तुत बजट अपने में अनोखी तस्वीर पेश करता है। इस राज्य के व्यय अविश्वसनीय सीमा तक छलांग लगा रहे हैं। 1947 में जब जम्मू-कश्मीर का भारत के साथ विलय हुआ था तब पूरे राज्य, जिसमें पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर और चीन के कब्जे वाले क्षेत्र भी शामिल थे, का कुल व्यय मात्र 3.5 करोड़ रुपए था जिसमें सेना का खर्चा भी शामिल था। किन्तु आज राज्य के वर्तमान स्वरूप में वार्षिक बजट 16,000 करोड़ रुपए से भी ज्यादा हो गया है। और तो और, सेना का बजट इसमें शामिल नहीं है।भारत के साथ विलय से पूर्व इस राज्य की आय के तीन बड़े साधन थे- वन से प्राप्त लकड़ी की आय, अंग्रेजों के प्रशासन वाले क्षेत्रों में आयात होने वाली वस्तुओं पर कस्टम अर्थात महसूल और खेती से होने वाली आय। किन्तु अब आय के ये तीनों बड़े साधन लगभग समाप्त हो चुके हैं और राज्य का हर वर्ष बढ़ता व्यय केन्द्र से मिलने वाली आर्थिक सहायता तथा अनुदान पर निर्भर होकर रह गया है, जबकि राज्य के आंतरिक साधनों से होने वाली आय कुल व्यय का मुश्किल से 15 प्रतिशत ही होती है।गत दिनों विधानसभा में राज्य के वित्त मंत्री तारिक हमीद कराह ने वित्तीय वर्ष 2007-08 का बजट प्रस्तुत किया जिसमें व्यय सारी हदें तोड़ता दिखाया गया। इसके अनुसार आगामी वित्तीय वर्ष के दौरान व्यय का अनुमान 16,266 करोड़ रु. है जबकि चालू वित्तीय वर्ष अर्थात् 2006-07 के व्यय का पुनर्निर्धारित अनुमान 14,163 करोड़ रुपए का है अर्थात केवल एक वर्ष के समय में ही इस छोटे राज्य के व्यय में 2,103 करोड़ रुपए की वृद्धि होगी।इतने भारी व्यय को देखते हुए राज्य के आंतरिक साधनों से आय का अनुमान 3,100 करोड़ रुपए लगाया गया। विपक्ष का कहना है कि यह आय भी बढ़ा-चढ़ाकर दिखाई गई है क्योंकि गत वर्ष बजट प्रस्तुत करते समय आय 2,720 करोड़ रुपए ही अनुमानित थी। राज्य के आंतरिक साधनों से होने वाली इस आय के विपरीत राज्य सरकार के सिर्फ कर्मचारियों के वेतन, पेंशन तथा भत्तों आदि का खर्चा 6,000 करोड़ रुपए तक होने की संभावना है।जब से जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस-पी.डी.पी. गठबंधन सरकार सत्ता में आई है तब से यानी चार वर्षों के दौरान अब तक 1.10 करोड़ जनसंख्या वाले इस राज्य में 50,000 करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं। इनमें से लगभग 40,000 करोड़ रुपए केन्द्र सरकार ने दिए हैं।सत्ताधारी नेताओं का दावा है कि उनके प्रयासों के कारण जम्मू-कश्मीर राज्य “खुशहाली” की ओर अग्रसर है किन्तु विपक्ष के नेताओं ने इन सरकारी दावों को खोखला और वास्तविकता से कहीं दूर बताया है।वित्त मंत्री की ओर से प्रस्तुत किए गए आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया है कि जम्मू-कश्मीर शिक्षा के क्षेत्र में देश के सभी राज्यों से नीचे है। 25 प्रतिशत नागरिक बिजली की सुविधाओं से वंचित हैं, 45 प्रतिशत को पीने का स्वच्छ पानी उपलब्ध नहीं, प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय आय दर से बहुत कम है और इन चार वर्षों के व्यय के परिणाम कहीं अधिक विचारणीय हैं। सरकार ने इस दौरान सभी के लिए शिक्षा की केन्द्रीय योजना के अंतर्गत 10,000 नए शिक्षण संस्थान खोले, साथ ही अनेक संस्थानों का दर्जा बढ़ाया गया है। किन्तु वास्तविकता यह है कि इन संस्थानों में शिक्षक नहीं हैं, भवन नहीं हैं। शिक्षा हेतु ढांचा उपलब्ध कराने के लिए राज्य सरकार ने केन्द्र से और 6,000 करोड़ रुपए की मांग की है।जम्मू-कश्मीर को जिन बड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ा रहा है उनमें बिजली संकट प्रमुख है। यह संकट आश्चर्यजनक है क्योंकि इस राज्य में नदियों से पनबिजली बनाने की अपार क्षमता मौजूद है। अभी तक किए गए सर्वेक्षण के अनुसार जम्मू कश्मीर में 20,000 मेगावाट से अधिक पन बिजली उत्पन्न की जा सकती है, किन्तु गत 50 वर्षों के दौरान अरबों रुपए के व्यय के पश्चात भी अभी तक केवल 1400 मेगावाट बिजली ही बनाई जा रही है।बेरोजगारी राज्य की एक बड़ी समस्या बनाई जाती है, जिसके कई कारण हैं। राज्य में औद्योगिक संगठनों का अभाव है। 1998 में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार राज्य में पंजीकृत औद्योगिक इकाइयों की संख्या 36,510 थी जिन्हें आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई गई, किन्तु इनमें से केवल 15,145 इकाइयां काम कर रही थीं, 4,840 बंद हो गईं और 16,219 का कहीं नामोनिशान नहीं था।सरकारी आंकड़ों के अनुसार रोजगार कार्यालयों में पंजीकृत बेरोजगार शिक्षित युवकों की संख्या 1.40 लाख है जिनमें बहुत से डाक्टर, इंजीनियर तक की शिक्षा प्राप्त किए हुए हैं। इनमें 62,000 से अधिक जम्मू संभाग से हैं। जम्मू संभाग में भी जम्मू जिले में सबसे अधिक बेरोजगार हैं, जिनकी संख्या 27,000 से अधिक है। इन समस्याओं के समाधान के सवाल पर सत्ताधारी नेताओं का कहना है कि राज्य में रुपए खर्च करने का अर्थ शांति बहाली को प्रोत्साहन देने जैसा है, किन्तु नेशनल कांफ्रेंस तथा अन्य दलों के नेता ऐसा नहीं मानते। इनका कहना है कि केन्द्र राजनीतिक कारणों से जम्मू-कश्मीर को धन उपलब्ध करा रहा है, किन्तु रुपए से समस्या का समाधान नहीं हो सकता, यह एक राजनीतिक समस्या है।गत 55 वर्ष के दौरान केन्द्र ने जम्मू-कश्मीर को विभिन्न विकास योजनाओं के अतिरिक्त अन्य सहायता के रूप में तीन लाख करोड़ रुपए उपलब्ध कराए हैं। मगर देश का इतना अधिक पैसा इस राज्य में भेजे जाने के बावजूद परिणाम यह सामने आ रहा है कि अलगाववाद के जो नारे कश्मीर घाटी तक सीमित थे, वे अब जम्मू में भी सुनाई देने लगे हैं।गत दिनों ईद के अवसर पर अलगाववादी हुर्रियत कांफ्रेंस के नेता सैयद अली शाह जिलानी ने एक जुलूस निकाला और प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय के सामने भाषण देकर भारत की एकता को चुनौती दी। जुलूस में “आजादी” के नारे लगाए गए।इस स्थिति पर टिप्पणी करते हुए भाजपा नेताओं ने आरोप लगाया कि “आजादी” और जिहाद के जो नारे पहले लाल चौक, श्रीनगर तक सीमित थे वे अब शहीदी चौक, जम्मू तक पहुंच गए हैं। यह सब कांग्रेस की नीतियों का परिणाम है। मुख्यमंत्री गुलाम नबी और उससे पहले मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद जिन नीतियों पर चलते रहे हैं उनसे अलगाववादियों के हौसले बुलंद ही हुए हैं। गोपाल सच्चर27
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