सोमनाथ चटर्जी लोकसभा अध्यक्ष हैं या माकपा पोलित ब्यूरो के सदस्य? लोकसभा के पूर्व महासचिव सुभाष कश्यप के विरुद्ध विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव लाकर सदन की गरिमा का उल्लंघन किसने किया?
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सोमनाथ चटर्जी लोकसभा अध्यक्ष हैं या माकपा पोलित ब्यूरो के सदस्य? लोकसभा के पूर्व महासचिव सुभाष कश्यप के विरुद्ध विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव लाकर सदन की गरिमा का उल्लंघन किसने किया?

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Apr 6, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Apr 2006 00:00:00

भाजपा ने विरोध में सोमनाथ चटर्जी के रवैए की कड़ी भत्र्सना की, तो सुभाष कश्यप कहते हैं-

जो सच है वही कहा

गत 23 मई को संसद में एक अजब नजारा दिखा। लोकसभा ने अपने ही पूर्व महासचिव और अन्तरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त संविधानविद् डा. सुभाष कश्यप के विरुद्ध कम्युनिस्टों के दबाव में विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव पारित किया। रक्षा मंत्री प्रणव मुखर्जी ने डा. कश्यप को “सदन की अवमानना का दोषी” ठहराते हुए निंदा प्रस्ताव प्रस्तुत किया था। लेकिन इस प्रस्ताव और लोकसभा अध्यक्ष के इस रवैए के विरुद्ध भाजपा ने कड़ी आपत्ति दर्ज कराई और भाजपा सांसद अध्यक्ष के आसन के पास जाकर नारे लगाने लगे- “लोकतंत्र में तानाशाही नहीं चलेगी, दादागिरी नहीं चलेगी, नादिरशाही नहीं चलेगी।” भाजपा ने सदन की कार्यवाही आगे नहीं चलने दी लेकिन इस शोरगुल के बीच सत्ता पक्ष ने ध्वनि मत से प्रस्ताव पारित भी कर दिया। यह सब डा. कश्यप की एक टिप्पणी पर किया गया।

उल्लेखनीय है कि 4 अगस्त, 2005 को डा. कश्यप ने एक समाचार चैनल साक्षात्कार में कहा था- “सांसद ममता बनर्जी पहली बार लोकसभा में सोमनाथ चटर्जी जैसे व्यक्तित्व को हराकर आई थीं।” (यह उस घटना के संदर्भ में कहा गया था जब बंगाल में बंगलादेशी घुसपैठियों के दस्तावेजी प्रमाण देने से उन्हें सदन के अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने रोक दिया था और गुस्से में सुश्री बनर्जी दस्तावेजों का पुलिन्दा अध्यक्ष के आसन की ओर उछाल कर सदन से बाहर चली गई थीं।) उनकी इस टिप्पणी को लोकसभा अध्यक्ष की निष्पक्षता पर आक्षेप की तरह लिया गया और “संसदीय विशेषाधिकार का उल्लंघन” मानते हुए रक्षामंत्री प्रणव मुखर्जी ने सदन में विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव प्रस्तुत कर दिया। प्रस्ताव में कहा गया, “लोकसभा के पूर्व महासचिव डा. सुभाष सी. कश्यप ने लोकसभा के अध्यक्ष के प्रति पक्षपातपूर्ण व्यवहार करने की टिप्पणी करके सदन की अवमानना व विशेषाधिकार उल्लंघन किया है और सदन इस दुराचरण के लिए उन्हें चेतावनी देता है।” यह “चेतावनी” लोकसभा अध्यक्ष द्वारा डा. कश्यप को सदन में बुलाकर सांसदों के सामने दी गई। यह संसदीय इतिहास में अभूतपूर्व घटना थी।

इस प्रकरण पर स्थिति स्पष्ट करते हुए डा. कश्यप ने कहा-“मैं पूरी ईमानदारी से मानता हूं कि यह “सच” और एक ऐतिहासिक तथ्य पर आधारित बयान था। मुझे समझ नहीं आता कि इसे संसदीय विशेषाधिकार का हनन कैसे माना जा सकता है। मैंने जवाहरलाल नेहरू और दादा साहब मावलंकर के काल से ही लोकसभा में 37 वर्ष से अधिक समय तक काम किया है। संसदीय विशेषाधिकार, कानून और प्रक्रियाओं पर विस्तृत लेखन किया है। मैं लोकसभा अध्यक्ष जैसे उच्च पद पर किसी तरह का लांछन लगाने वाली बात कहने अथवा ऐसा कुछ करने की कल्पना तक नहीं कर सकता। भारत के एक स्वतंत्र नागरिक और बिना किसी लाग-लपेट वाले वरिष्ठ नागरिक के नाते मैंने अपना कर्तव्य निभाया है। राष्ट्रीय हित में सच बोलने का मुझे अधिकार है। महासचिव पद से 16 साल पहले स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने के बाद से मैं यही कर रहा हूं।”

इसमें शक नहीं है कि डा. कश्यप एक बेदाग व्यक्तित्व हैं। संसदीय चाल-चलन, नियम, प्रक्रियाओं की उन्हें गहन जानकारी है और इस पर वे अनेक पुस्तकें लिख चुके हैं। संविधान पर उनका गहन अध्ययन है। वे जानते हैं कि उनके उक्त बयान के गलत अर्थ निकाले गए हैं, अत: स्पष्ट कहते हैं, “टेलीविजन साक्षात्कार में मैंने जो कहा, मैं उस पर अडिग हूं।” संसद के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए सुप्रसिद्ध संविधानविद् कहते हैं, “संसद सर्वोच्च है और लोकसभा व इसके अध्यक्ष के प्रति मेरे मन में अत्यन्त आदर है, मगर देश के स्वतंत्र नागरिक के नाते वह बात बोलने का पूरा अधिकार है जिसे मैं सच मानता हूं।” इस प्रकरण के विरोध में विशेषाधिकार समिति में शामिल भाजपा सदस्यों ने समिति से इस्तीफा देते हुए 23 मई को संसदीय लोकतंत्र के इतिहास के सबसे काले दिन की संज्ञा दी। प्रतिनिधि

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