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मंथन

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Mar 12, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 12 Mar 2006 00:00:00

चीनी राष्ट्रपति और भारतीय कम्युनिस्ट

देवेन्द्र स्वरूप

मीडिया के अनुसार चीन के राष्ट्रपति हू जिनताओ ने अपनी ताजा भारत यात्रा के दौरान वाममोर्चे के तीन घटकों – माकपा, भाकपा और फारवर्ड ब्लाक (पता नहीं क्यों चौथे घटक आर.एस.पी. को छोड़ा गया) के नेताओं को “अधिक व्यावहारिक” होने का उपदेश दिया। उन्हें क्यों शंका हुई कि भारत का कम्युनिस्ट नेतृत्व “अधिक व्यावहारिक” नहीं है। ऊपर से देखने पर तो वह चीन के वर्तमान नेतृत्व के नक्शे कदम पर ही चल रहा है। जिस प्रकार चीन का नेतृत्व “माक्र्सवाद और माओवाद” को रद्दी की टोकरी में फेंककर पूरे वेग से पूंजीवादी बाजारवाद के रास्ते पर दौड़ रहा है, उसी प्रकार माकपा का बंगाल का मुख्यमंत्री भी सार्वजनिक दावा कर रहा है कि बंगाल में हम पूंजीवाद के रास्ते पर चल रहे हैं। केन्द्र में भी वाममोर्चा सत्तारूढ़ संप्रग का विरोध का ऊपरी नाटक करते हुए भी उसके पूंजीवादी सुधार कार्यक्रम को झेल रहा है। जिस प्रकार चीन के नेतृत्व ने पूंजीवादी विकास के रास्ते को अपना कर भी कम्युनिस्ट पार्टी के नाम और झंडे को अब तक पकड़े रहना जरूरी समझा है, उसी प्रकार भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियां भी दिन-रात माक्र्स और लेनिन के नाम जपती रहती हैं। फर्क केवल इतना है कि जहां चीनी नेतृत्व कम्युनिस्ट पार्टी के नाम और झंडे का इस्तेमाल अधिनायकवादी व्यवस्था को बनाए रखने के लिए कर रहा है, बहुदलीय प्रणाली और अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य को दबाने के लिए कर रहा है, वहीं भारत की कम्युनिस्ट पार्टियां यहां की बहुदलीय लोकतंत्र प्रणाली में पार्टी अधिनायकवाद को जिन्दा नहीं रख पा रही हैं और वह अनेक कम्युनिस्ट पार्टियों में टूटता-बिखरता जा रहा है। चीनी नेतृत्व ने सिंक्यिांग प्रांत में सिमटे मुस्लिम पृथकतावाद के हाथ-पांव पूरी तरह बांध दिए हैं, उसके मुंह पर ताला लगा दिया है, तो भारत की कम्युनिस्ट पार्टियां मुस्लिम पृथकतावाद व आतंकवाद के कंधे पर सवार होकर केन्द्र में सत्तारूढ़ होने का स्वप्न देख रही हैं। शायद तभी ये दोनों विचारधाराएं अपने समान अधिनायकवादी प्रवृत्ति को देश पर थोप सकेंगी।

19वीं शताब्दी वाले कम्युनिस्ट

पर, आश्चर्य की बात है कि भारत के लोकतांत्रिक वातावरण में कम्युनिस्ट पार्टियों के भीतर वैचारिक बहस और आत्मालोचन का कोई स्वर सुनाई नहीं देता। अभी भी सोवियत रूस और कम्युनिस्ट चीन के प्रति वफादारी का प्रदर्शन करना उन्हें आवश्यक लगता है। रूस और चीन और कई पूर्वी यूरोपीय देशों में माक्र्सवादी प्रयोग की विफलता के बाद भी वे माक्र्सवाद और लेनिनवाद को प्रासंगिक व अपरिहार्य बताने का दु:साहस कर रहे हैं। सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी माकपा के साप्ताहिक मुखपत्र “पीपुल्स डेमोक्रेसी” के ताजा अंक (12 नवम्बर) में एक लम्बे लेख का शीर्षक है “1917 की नवम्बर क्रांति: माक्र्स का क्रांति सिद्धांत अभी भी मार्गदर्शक”। एक दूसरे लेख का शीर्षक है “लेनिनवाद की केन्द्रीकता”। माकपा के वैचारिक द्विवार्षिक पत्र “माÐकस्ट” के ताजा अंक (अप्रैल- सितम्बर, 2006) में जेएनयू के प्रोफेसर प्रभात पटनायक के लेख का शीर्षक है “माक्र्सवाद की आवश्यकता पर”। इसी प्रकार दूसरी कम्युनिस्ट पार्टी, जो अपने को मूल पार्टी कहती है, भाकपा के मुखपत्र “न्यू एज” में माक्र्सवादी शिक्षण की श्रृंखला की 14 कड़ियां छप चुकी हैं, जिनमें 19वीं शताब्दी में प्रकाशित माक्र्स की पुस्तकों के लम्बे-लम्बे उद्धरण परोसे जाते हैं।

कोई कहेगा कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियां अपने अस्तित्व और आंतरिक अनुशासन की रक्षा के लिए माक्र्स और लेनिन का नाम जपती हैं क्योंकि तभी वे अपने द्वारा बटोरे गए बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, कलाकारों और ट्रेड यूनियनों को पार्टी अनुशासन में बांधे रख सकती हैं। यह नाम जाप उनकी निष्ठा नहीं, मजबूरी है। यह तर्क हमारे गले नहीं उतर रहा। भारतीय लोकतंत्र में जहां कोई कुछ भी बोल सकता है, जहां अभिव्यक्ति की पूरी आजादी है, वहां वामपंथी बुद्धिजीवियों में मुक्त विचारमंथन को पार्टी अनुशासन कैसे रोक सकता है। वामपंथी बुद्धिजीवी स्वयं को “वैज्ञानिक” व “प्रगतिवादी” कहते हैं। वे अपने को बहुत पढ़ाकू जताते हैं। कालेज – मोहल्लों में स्वाध्याय मण्डल चलाना उनकी कार्यशैली का महत्वपूर्ण अंग है। तब क्या इन स्वाध्याय मण्डलों में माक्र्स और एंजिल्स के बाद पिछले सौ-सवा सौ वर्षो में विज्ञान ने जो प्रगति की है, सभ्यता का जो विकास हुआ है, उसकी कोई चर्चा नहीं होती? 1917 में रूस में जो सत्ता परिवर्तन हुआ, उसे यदि सैनिक सत्ता पलट के बजाय कम्युनिस्ट क्रांति मान लें तो माक्र्सवादी विचारधारा के सत्ता के माध्यम से 72 वर्ष लम्बे व्यावहारिक प्रयोग का 1990 में जो दुखान्त हुआ उसकी क्या कोई कारण-मीमांसा इन स्वाध्याय मण्डलों में नहीं होती? उस दुखान्त के आंखों देखे दृश्यों को क्या भावुक युवाओं को कभी नहीं बताया जाता? यदि किसी भारतीय कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी का इन दृश्यों को देखकर माक्र्सवाद और कम्युनिस्ट पार्टी से मोह भंग हो गया हो तो उसे कम्युनिस्ट पार्टियां अछूत क्यों घोषित कर देती हैं। क्यों वामपंथी बुद्धिजीवी आत्मालोचन के बजाय अंधे हिन्दुत्व विरोध पर ही अपनी कलम की धार को बनाए रखने की कोशिश में लगे हुए हैं? हिन्दुत्व यानी भारतीय संस्कृति के प्रति नफरत की खेती बोकर वे मुस्लिम पृथकतावाद को तो रिझा सकते हैं, कम्युनिस्ट पार्टियों की सत्ता-राजनीति का उपकरण तो बन सकते हैं, किन्तु क्या वे अपनी अन्तरात्मा को सुख व संतोष दे सकते हैं?

इन बुद्धिजीवियों की अन्तरात्मा को जगाने के लिए यहां हम गोरखपुर से प्रकाशित विचार प्रधान पत्रिका “दस्तावेज” के 111वें (अप्रैल-जून 2006) अंक में उसके मनीषी सम्पादक श्री विश्वनाथ प्रसाद तिवारी द्वारा लिखित 22 पृष्ठ लम्बे “सोवियत संघ का पतन और माक्र्सवादी चिंतन” शीर्षक सम्पादकीय लेख को पढ़ने का आग्रह करना चाहेंगे। श्री तिवारी 1978 से इस पत्र को बिना किसी सरकार या संस्था के सहयोग के केवल अपने बलबूते पर चला रहे हैं। तथ्यों पर आधारित स्वतंत्र एवं गहन चिन्तन का यह एक अनुकरणीय उदाहरण है। इस निबंध में विश्वनाथ जी लिखते हैं, “26 दिसम्बर, 1991 को सुप्रीम सोवियत ने अपने अंतिम अधिवेशन में सोवियत संघ के अंत की घोषणा कर दी। एक महान संघ का ऐसा दर्दनाक पतन किसी पूंजीवादी षड्यंत्र से नहीं हुआ। इसका सीधा कारण है सत्ता में जनता को भागीदार न बनाया जाना। माक्र्सवादी गढ़ को सत्ताधारी माक्र्सवादियों ने ही ध्वस्त किया।…. यह तो उस अभेद्य दुर्ग के धराशायी होने के बाद ही पता चला कि चाउसेस्को (रोमानिया का कम्युनिस्ट शासक) हीरों से जड़े जूते पहनता था। रोमानिया में कम्युनिस्ट शासन की बात आते ही मुझे स्मरण आ रहा है कि वहां कम्युनिस्ट शासन के पतन के ठीक पहले कम्युनिस्ट पार्टी की कांग्रेस हुई थी, जिसमें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रतिनिधिमण्डल में माकपा सांसद सीताराम येचुरी भी गए थे। वहां से लौटकर उन्होंने रोमानिया में कम्युनिस्ट स्वर्ग का मोहक वर्णन करते हुए जो लेख लिखा था उसे कहीं से खोजकर अवश्य पढ़ा जाना चाहिए।

पागलपन की हद

दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कार्ड होल्डर कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी कर्ण सिंह चौहान संयोग से उन दिनों पूर्वी यूरोप की यात्रा पर गए। बल्गारिया में कम्युनिस्ट शासन के पतन के समय वे वहां की राजधानी सोफिया में थे। उस दृश्य का आंखों देखा वर्णन उन्हीं की कलम से पढ़िए, “टेंटों में महीने से “सत्य का नगर” बसाए बैठे युवक-युवतियों ने फिर चौक में माक्र्स- लेनिन की पुस्तकों का बड़ा ढेर लगाया, सोवियत संघ में बनी तमाम चीजों के नमूनों को वहां फैलाया। कई शाम भीड़ ने चारों तरफ खड़े हो कम्युनिज्म के इन प्रतीकों का मखौल उड़ाया और फिर कई दिनों तक सरेआम होली जली। कुछ-कुछ हमारे स्वेदशी आन्दोलन जैसा माहौल था। लोग अपने घरों से पुस्तकें और सामान आग में डालकर जैसे राष्ट्रीय कर्तव्य की पूर्ति कर रहे थे और फिर एक दिन कम्युनिस्ट पार्टी के केन्द्रीय दफ्तर में आग लगाई गई। इस तरह “सत्य के नगर” का उद्देश्य पूर्ण हुआ। फुलझड़ियां जलाकर खुशियां मनाई गईं।”

रोमानिया का वर्णन करते हुए कर्ण सिंह चौहान लिखते हैं, “और फिर आया उस अदर्शनीय को देखने का दौर। एक महीना पहले ही हुई रोमानिया की कम्युनिस्ट पार्टी की भव्य कांग्रेस में अन्तरराष्ट्रीय प्रतिनिधिमण्डलों के सामने अपनी विजय की घोषणा करने वाले चासेस्कू को हमने अचानक टेलीविजन पर अपनी बूढ़ी पत्नी के साथ एक बैंच पर अदालत में बैठे देखा। सारी रात प्रश्नों की बौछार होती रही, आरोप लगते रहे, अपराध सिद्ध किए जाते रहे और टेलीविजन पर लगातार कार्रवाई किसी कार्निवल त्योहार की तरह दिखाई जाती रही, सिर कलम होने तक।” (यूरोप में अन्तर्यात्राएं, पृष्ठ 106-107)

ऐसे दृश्यों से उद्वेलित कर्ण सिंह के मन में प्रश्नों का झंझावात खड़ा हो गया। उस मन:स्थिति में वे लिखते हैं, “पागलपन की हद तक विदेशी वस्तुओं का बढ़ता मोह, सारा वेतन देकर एक स्वेटर खरीद पाने की हालत में स्थानीय मुद्रा के चक्कर में झूठ, फरेब, और सरकारी चोरी, चीजों की खरीद-फरोख्त का कालाबाजार, कालाधन और क्या-क्या कहूं। सबसे बड़ी बात समाजवादी देशों में बनी वस्तुओं के प्रति शनै:-शनै: उपेक्षा, हिकारत और घृणा, फिर समाजवादी व्यवस्था से घृणा, उसके सब मूल्यों से घृणा। …. हम तो एक नए किस्म का समाज और एक नया मनुष्य बनाने चले थे। नया शोषणमुक्त समाजवादी समाज बनाने में तो कुछ हद तक कामयाब रहे, लेकिन यह कैसा नया मनुष्य बना डाला, जो साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के द्वारा पनपाये उपभोक्तावाद का पहले ही वार में शिकार हो जाए, जो किसी भी तरह के राष्ट्रीय गौरव से शून्य हो जाए और अपने सब कुछ के प्रति हीन भाव पाल ले। …. यह कैसा मनुष्य बनाया हमने? माइकल जैक्सन के कार्यक्रम में लाखों की संख्या में थिरकती इस नई पीढ़ी ने शोषण विहीन समाज के प्रति आस्था क्यों नहीं बनाई, कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर में आगे की घटना पर विरोध क्यों नहीं जताया, विश्वशान्ति के जुलूसों से उसे नफरत क्यों हो गई, माक्र्सवादी दर्शन को पाठ्यक्रम से निकालने का बीड़ा उसने क्यों उठा लिया? साम्राज्यवाद और पूंजीवाद का खूनी चेहरा उसे क्यों भाने लगा है? (वही पृष्ठ 112)

विलासी जीवनशैली

इन देशों के कम्युनिस्ट शासकों की विलासी जीवनशैली का वर्णन करते हुए प्रसिद्ध साहित्यकार मनोहर श्याम जोशी ने अपनी रचना इक्कीसवीं सदी (पृष्ठ 114) में लिखते हैं, “भूतपूर्व सोवियत संघ में बढ़िया बंगला, फर्नीचर, कार, घरेलू उपकरण, जूते-कपड़े, तेल-फुलेल, भोजन-शराब, विदेशी यात्राओं के लिए टिकट और डालर और इस तरह की तमाम चीजें केवल पार्टी के वफादार नेता और बुद्धिजीवी ही पा सकते थे। जहां तक आम आदमी का सवाल है- शिक्षा, स्वास्थ्य, रोटी-कपड़ा-मकान वाले स्तर पर उनकी न्यूनतम आवश्यकताएं तो पूरी कराई गईं, लेकिन साथ ही इस बात का ध्यान रखा गया कि उनके मन में पश्चिम ढंग के भोग-उपभोग के लिए जरा भी ललक न उठे। उसे पूंजीवादी देशों की खुशहाली और उपभोक्ता संस्कृति से अपरिचित रखने के लिए सख्त कदम उठाए गए। चीन में आम आदमी को शार्ट वेव रेडियो भी नहीं सुनने दिया जाता था। ताकि कहीं वह यह न जान लें कि विदेशों में कितना भोग-उपभोग हो रहा है। सोवियत संघ में आम आदमी न पांचसितारा होटल में कदम रख सकता था, न विदेशी माल बेचने वाली दुकानों में।”

इन वर्णनों पर विश्वनाथ जी का निष्कर्ष है कि कम्युनिस्ट शासकों ने अपने तानाशाही चरित्र में जनता का उत्पीड़न किया, उसे इतना लूटा तथा स्वयं इतना सुख भोगा कि जनता परिवर्तन के पक्ष में पलक पांवड़े बिछा उठी। (पृष्ठ 3) और परिणाम यह हुआ कि वहां के डाक्टर, इंजीनियर आदि तक लिपटन और ब्राुक बॉड चाय तथा साबुन के पैकेट्स और इत्र की शीशियां घूस में लेने लगे। मेरे पास इसके लिखित प्रमाण हैं।” (पृष्ठ 11)

विश्वनाथ जी के इस कथन के प्रमाण पाञ्चजन्य की 1971-72 की फाइलों में भी मौजूद हैं। उन दिनों हमारे एक मित्र डाक्टर अशोक मोडक अपने शोध कार्य के सिलसिले में मास्को में तीन वर्ष बिताकर भारत लौटे। तब उन्होंने वहां की जनता की अभावग्रस्त जिन्दगी, डबल रोटी और अण्डे के लिए लम्बे क्यू और डालर पाने के लिए अपनी अस्मत बेचती रूसी महिलाएं व विदेशी वस्तुओं का कालाबाजार आदि का रोंगटे खड़े करने वाला वर्णन हमें सुनाया। मेरे अनुरोध पर उन्होंने अपने अनुभव को लेखबद्ध किया, जिन्हें हमने पाञ्चजन्य में छापा। यह सोवियत संघ के औपचारिक पतन से 20 वर्ष पहले की बात है।

रूस में कम्युनिस्ट शासन की स्थापना के बाद विचार- स्वातंत्र्य का जिस निर्ममता के साथ दमन किया उसका वर्णन करते हुए विश्वनाथ जी लिखते हैं, “महान रूसी क्रांति (1917) के बाद जिन महान रूसी लेखकों ने आत्महत्याएं कीं, उनमें कवि ब्लादीमीर मायकोव्स्की (1893-1930), अलेक्सांद्र ब्लोक, सेरेगई येसेनिन (1895- 1925), कवयित्री मरीना स्वेतायेवा (1892-1941) के नाम उल्लेखनीय हैं।… 2003 में अपनी रूस यात्रा के दौरान मैंने मास्को में एक संग्रह (एंथालॉजी) देखा, जिसका शीर्षक है, “मी झीली तकदान प्लानेते द्रगोई”। इसका हिन्दी होगा, “हम तब रहते थे किसी दूसरे ग्रह पर।” इस संग्रह के सम्पादक हैं वित्कोव्स्की। यह 1995 में मास्को से प्रकाशित हुआ है। यह चार खंडों में है, जिसके प्रत्येक खण्ड में 500 पृष्ठ हैं। इसमें उन 174 कवियों का परिचय और रचनाएं हैं, जो 1917 की रूसी क्रांति के बाद दमन से बचने के लिए देश छोड़कर भाग गए थे। ज्ञातव्य है कि इस संग्रह में इवानबूनिन, सोल्झे नित्सिन और ब्राोदस्की जैसे बड़े लेखकों की रचनाएं नहीं हैं, जिन्हें देश निकाला हुआ था। ये हैरत में डालने वाले आंकड़े क्या बताते हैं? क्या दुनिया के किसी भी दूसरे देश और दूसरी भाषा में इस प्रकार के आंकड़े पाए जा सकते हैं? मात्र पचास-साठ वर्षों की अल्पअवधि में इतने लेखक और महान लेखक क्या किसी दूसरी व्यवस्था में प्रताड़ित किए गए हैं? कितना व्यंजक शीर्षक है उपर्युक्त एंथालॉजी का- “तब हम रहते थे किसी दूसरे ग्रह पर”। 25.11.06 (जारी)

भूल सुधार

? मंथन स्तम्भ के अन्तर्गत गतांक में पहले कालम के दूसरे पैरे में “मुगल बादशाह” को “मुगल दरबार” पढ़ें। ? तीसरे कालम के अन्तिम पैरे में हंगेरियन राष्ट्रवादी “फेरेस और लियंस” को “फेरेस औरेलियंस” पढ़ें। ? चौथे कालम के दूसरे पैरे में “इंस्टीट्यूट आफ मार्किस्ज्म-लेनिनिज्म कम्युनिस्ट दिमाग” की जगह “इंस्टीट्यूट आफ माÐक्स्ज्म-लेनिनिज्म” पढ़ें। ? चौथे कालम के अन्तिम पैरे में “रूस में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 1917 में हुई” की जगह “कम्युनिस्ट सत्ता की स्थापना 1917 में हुई” पढ़ें।

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