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टी.वी.आर. शेनायमेरे जीवन के शुरुआती वर्ष चेरई जैसे छोटे से गांव में बीते जो शायद ज्यादातर नक्शों में कहीं दिखता नहीं है। कालेज की पढ़ाई पूरी करने के समय तक हमारे यहां न बिजली थी, न नल से पानी आता था। घर के बाहर रेत की बोरियों की सड़क थी, तारकोल की नहीं। मगर उस समय भी, और आज भी, मैंने कभी खुद को किसी तरह से वंचित महसूस नहीं किया। खुली चौड़ी जगह, अरब सागर से आती ठंडी ताजी हवा और कुएं का पानी दिल्ली के जल बोर्ड के पानी से कहीं ज्यादा मीठा था।बाद में जब मैं मुम्बई (तब बम्बई) और फिर दिल्ली में आकर बसा तब तंग सड़कें, प्रदूषण और पानी के लिए बराबर चिंता करने जैसी बातों से सामना हुआ। लेकिन एक बहुत सुखद बात थी, जिसे पहचानने में मुझे थोड़ी देर लगी, और वह थी मेरी अलमस्त स्कूली शिक्षा, जिस पर मैंने कभी बहुत गंभीरता से नहीं सोचा था। वास्तव में, दशकों पहले पीछे लौटकर देखता हूं तो लगता है कि हम पर सरस्वती का वरदान था कि हमें न केवल कालेज में बल्कि गांव तक के स्कूल में ऐसे महान शिक्षक मिले।क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि कोई शिक्षक बिना राजनीति में आए आंध्र प्रदेश के राज्यपाल पद तक पहुंच जाए? ठीक यही उपलब्धि थी के.सी.अब्राहम की। (तथ्यों को परिप्रेक्ष्य में रखने के लिए बता दूं कि हैदराबाद राजभवन न में उनके उत्तराधिकारियों में भविष्य में राष्ट्रपति बनने वाले शंकर दयाल शर्मा और उपराष्ट्रपति कृष्णकांत शामिल थे।) अब्राहम मास्टर की पीढ़ी उन प्रखर व्यक्तित्वों की पीढ़ी थी जो अपने कार्य के प्रति इतने समर्पित रहते थे कि उससे उनके छात्रों में अधिक से अधिक सीखने की इच्छा जगती थी।मुझे नहीं लगता कि उनका वेतन बहुत ज्यादा था मगर उस समय की सामाजिक व्यवस्था में एक शिक्षक का स्तर बड़े धनपतियों से कहीं ऊंचा होता था। ठीक से याद नहीं पर 1960 के दशक के आखिर में या शायद “70 के दशक की शुरुआत में-संभव है कुछ और बाद-फसल खराब होनी शुरू हुई। शिक्षक को मिलने वाला सम्मान जाता रहा और शिक्षा भी शिक्षा न रहकर महज एक नौकरी जैसी हो गई। केरल में जब पहली शिक्षक हड़ताल हुई तभी लग गया था कि एक युग की समाप्ति हो गई है। स्कूलों में दाखिले के समय अब जब कभी मैं केरल जाता हूं तो शिक्षा में यह गिरावट ध्यान आ जाती है। माता-पिता भी अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों या केंद्रीय विद्यालयों में भर्ती कराने की कोशिश में रहते हैं। यह मान लिया गया है कि केरल के सरकारी स्कूल आमतौर पर अच्छी शिक्षा देने में असमर्थ हैं। एक सबसे बड़ी खामी अच्छे शिक्षकों की कमी है। अगर कोई भाग्य से सरकारी स्कूल में आता भी है तो जल्दी ही प्राइवेट स्कूल वाले मोटी तनख्वाह पर उसे अपने यहां ले जाते हैं।जो बात स्कूलों पर लागू होती है वही हाल कालेजों का भी है। केरल के बेहतरीन शिक्षक-और उनके छात्र भी- राज्य के बाहर के विश्वविद्यालयों के लिए उतावले रहते हैं। मुझे बताया गया कि साख तो इतनी खराब हो चुकी है कि कई इंजीनियरिंग कालेज बुला-बुलाकर खाली सीटें भरते हैं। कुछ पुराने जमाने के शिक्षक अब भी हैं पर उनका अच्छा विकल्प सामने नहीं आ रहा है।अगर इसी तहर की गिरावट दूसरी जगहों पर भी होने लगे तब क्या होगा? इस बात के संकेत हैं कि संप्रग सरकार का सीटें बढ़ाने के बिना सोचे-समझे फैसले को देश के विश्वविद्यालयों में लागू करने की जल्दी की जा रही है। मैं नाम नहीं बता सकता पर कई प्रोफेसरों ने निजी तौर पर मुझे बताया है कि वे विदेश जाने के प्रस्तावों पर विचार कर रहे हैं।इसका एक कारण यह है कि वे अयोग्य छात्रों को नहीं पढ़ाना चाहते हैं। आई.आई.टी. को तो भूल जाएं, आज तो प्रबंधन स्कूलों को भी ऐसे छात्र चाहिए जो, उदाहरण के लिए, कैलकुलस से तो परिचित हों। मगर इंजीनियरिंग कालेज के प्रोफेसर कहते हैं कि उनके कुछ छात्र तो उच्च स्तर के स्कूल की गणित के सिद्धान्त भी नहीं जानते। कालेज प्रोफेसर स्कूली शिक्षकों जितने धैर्यवान नहीं हैं और एक पिछड़े छात्र को आगे लाने में समय व्यर्थ होने पर लाल-पीले होते हैं।दूसरा कारण है कि उनको न केवल छात्रों की गुणवत्ता के घटते जाने का भय है, बल्कि अच्छा पढ़ाने वालों की कमी का भी खतरा है। अगर आप 55 प्रतिशत सीटें बढ़ाएंगे तो आपको शिक्षक भी बढ़ाने होंगे। किसी आई.आई.टी. या आई.आई.एम. में पढ़ाना कोई हंसी-खेल नहीं है। अच्छे लोग कहां हैं? यह तो ऐसा है मानो कड़ी मेहनत करके शिक्षक बनने वालों से कहीं कम योग्य व्यक्ति के लिए थोड़ी जगह खाली करने को कहना। किसी बड़े अधिकारी विश्वविद्यालय का प्रोफेसर भारत के किसी प्रोफेसर के मुकाबले 10 गुणा वेतन पाता है। (उच्च अनुसंधान सुविधाओं की बात तो छोड़ दीजिए) लेकिन जब भारत से बाहर विकल्प तलाशे जाते हैं तो वेतन प्राथमिकता पर नहीं होता; कुछ लोग तो अमरीका या यूरोप में जमे रहने की बजाय वापस भारत लौटते हैं। तब भी हल्के स्तर के छात्रों व सहयोगियों के बीच काम करने पर विदेश का वेतन काफी आकर्षित करने लगता है। इसमें कोई शक नहीं है कि केवल पश्चिमी विश्वविद्यालय ही भारत के प्रोफेसरों को आकर्षित नहीं कर रहे हैं, दुबई से दक्षिण पूर्व एशिया तक में उन्हें बुलाया जा रहा है।केरल के शिक्षा तंत्र का स्तर तब घटना शुरू हुआ था जब केरलवासियों में शिक्षक के प्रति सम्मान घटा। मैं अब भी यह कहावत सुनकर बेचैन हो जाता हूं कि “जो कुछ कर सकते हैं, वे काम करें और जो कुछ नहीं कर सकते, वे पढ़ाएं।” आज यह असम्मान का भाव राष्ट्रीय स्तर तक फैल रहा है। क्या मनमोहन सरकार के किसी मंत्री ने इस बारे में आई.आई.टी. या आई.आई.एम. के शिक्षकों से कोई बात की है? अगर आप शिक्षकों पर सीधा प्रभाव डालने वाले फैसले पर शिक्षकों की सलाह नहीं लेते हैं तो क्या आप उन्हें बंधुआ नहीं समझ रहे हैं जो आदेश का पालन करने को बाध्य हों? मुझे लगता है कि आने वाले 10 सालों में शिक्षकों का विदेश की ओर पलायन हो सकता है। उनका विकल्प लाना मुश्किल होगा क्योंकि जैसा केरल में हुआ, योग्य और अच्छे शिक्षकों को पढ़ाने में आनंद नहीं आएगा। एक शिक्षाविद् प्रधानमंत्री के लिए यह एक दुखद विरासत रहेगी। (1.6.06)13
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