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मंथन

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Oct 12, 2006, 12:00 am IST
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दिंनाक: 12 Oct 2006 00:00:00

श्रद्धाञ्जलि- पुरुषोत्तम निझावन

वामपंथी दमन का भारतीय शिकार

देवेन्द्र स्वरूप

पिछले सप्ताह जब मैंने सोवियत रूस में स्टालिन के शासनकाल में बुद्धिजीवियों और कलाकारों के उत्पीड़न-उन्मूलन का हृदय विदारक चित्रण किया तब मुझे कल्पना भी नहीं थी कि अगले सप्ताह मुझे भारत में वामपंथी उत्पीड़न के शिकार एक मित्र बुद्धिजीवी की अकस्मात् मृत्यु का समाचार सुनना पड़ेगा। 28 नवम्बर को मुम्बई में 80 वर्षीय पुरुषोत्तम निझावन की मृत्यु का समाचार मेरे लिए भारी धक्का बनकर आया। 1991-92 में जब वे मुझे दीनदयाल शोध संस्थान में आकर मिले तब वे वामपंथी बुद्धिजीवियों के शक्तिशाली गिरोह से अकेले जूझ रहे थे और अपनी लड़ाई में कोई सहारा ढूंढ रहे थे। उस भेंट से बहुत पहले ही सन् 1982 में पंजाब समस्या पर टाइम्स आफ इंडिया में निझावन के लेखों ने मुझे आकृष्ट किया था। पंजाब उन दिनों आतंकवाद की आग में जल रहा था, पूरा देश चिन्तित था। उस वातावरण में निझावन के लेख अत्यन्त प्रांजल अंग्रेजी में एक रचनात्मक संतुलित दृष्टि लेकर पंजाब समस्या की कारण-मीमांसा प्रस्तुत कर रहे थे। उनकी बौद्धिक क्षमता से मैं बहुत प्रभावित था। कुछ वर्ष बाद 22 मार्च, 1987 को टाइम्स आफ इंडिया में ही “आई एम प्लेजराइज्ड -मेरी साहित्यिक चोरी हो गई” शीर्षक से एक लम्बा आर्तनाद पढ़ा, जिससे पता चला कि वे किसी संकट में फंस गये हैं। पर उनसे मेरा कोई परिचय नहीं था, सम्पर्क का सूत्र नहीं था। अत: जब 1991 में निझावन स्वयं ही मिलने आ गये तो मैं गद्गद् हो गया, मेरे आनन्द का पारावार नहीं था।

तब ही निझावन की पूरी कहानी सुनने का अवसर मिला। उनके घर जाकर मुल्कराज आनन्द, कर्तार सिंह दुग्गल, पी.एन. हक्सर, डा. प्रेम कृपाल और अन्य अनेक पंजाब के जाने-माने बौद्धिक दिग्गजों के साथ उनके पत्राचार को देखने-पढ़ने का अवसर मिला। तब पता चला कि पंजाब समस्या के बारे में टाइम्स आफ इंडिया में उनके लेखों ने इन दिग्गजों को भी आकर्षित-प्रभावित किया था। इसलिए टाइम्स आफ इंडिया के सम्पादक स्व. गिरिलाल जैन ने उन्हें अपने पत्र में आने का न्योता दे दिया।

चंडीगढ़ में स्थापित “क्रिड” (सेन्टर फार रिसर्च इन रूरल एण्ड इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट) नामक संस्था के निदेशक रशपाल मल्होत्रा (जो स्वयं को तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी का तीसरा बेटा कहते थे, जिसके इशारे पर विश्वविद्यालयों में कुलपति नियुक्त होते थे, पंजाब के मुख्यमंत्री भी जिनकी कृपा दृष्टि पाने के लिए लालायित रहते थे, बड़े-बड़े संपादक और बुद्धिजीवी जिनके सामने गिड़गिड़ाते थे) ने मुम्बई में निझावन से सम्पर्क साधा और पंजाब समस्या के उद्भव विषय पर एक लम्बा विश्लेषणात्मक लेख आमंत्रित किया। निझावन का वह लेख “क्रिड” की शोध पत्रिका “मैन एण्ड डेवलपमेंट” में प्रकाशित हुआ और उसकी पचास हजार प्रतियां अलग से छपवा कर पंजाब और विदेशों में सिख बुद्धिजीवियों में वितरित की गईं। उस लेख की प्रशंसा करते हुए पी.एन. हक्सर (जो इन्दिरा गांधी के मुख्य सचिव के नाते उनके चाणक्य माने जाते थे तथा जो इन्दिरा गांधी और वामपंथ के बीच पुल का काम करते थे, इसी पुल के रूप में हक्सर ने “क्रिड” की चंडीगढ़ में स्थापना की थी) ने 7 दिसम्बर, 1982 को निझावन को एक पत्र लिखा तथा पंजाब समस्या को हल करने में उनके बौद्धिक योगदान को आमंत्रित किया। लगभग उसी समय मूर्धन्य वामपंथी बुद्धिजीवी मुल्कराज आनंद ने निझावन से सिख नेता मास्टर तारा सिंह का जीवन चरित्र लिखने का अनुरोध किया। 23 जनवरी, 1983 के पत्र में उन्होंने इस जीवन चरित्र का महत्व बताते हुए लिखा, “किसी भी अन्य काम से यह ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि तारा सिंह के जीवन चरित्र के माध्यम से सिख-मानस के पूरे अन्तद्र्वन्द्व को प्रस्तुत किया जा सकता है।”

निझावन को रिझाने के लिए पंजाब के वामपंथी बुद्धिजीवियों का टोला पूरी तरह सक्रिय हो गया। निझावन स्वयं भी पंजाब को आतंकवाद के जबड़े में फंसा देख प्रत्यक्ष कर्मक्षेत्र में कूदने के लिए बहुत बेचैन थे। इसी बेचैनी में उन्होंने मुम्बई पंजाबियन सभा की स्थापना कर डाली। उनकी इस बौद्धिक और कर्म सक्रियता को भुनाने के लिए “क्रिड” के निदेशक रशपाल के नेतृत्व में पंजाब के तीन वामपंथी बौद्धिकों-कर्तार सिंह दुग्गल, भीष्म साहनी और प्रिंसिपल छबीलदास की बेटी व कम्युनिस्ट साहित्यकार शिवदान सिंह चौहान की पत्नी विजय चौहान का जत्था 1984 में मुम्बई पहुंच गया। उन दिनों निझावन एक औद्योगिक पत्रिका में बहुत ऊंचा वेतन पाने वाले संपादक थे किन्तु वे पंजाब जाने के लिए छटपटा रहे थे। उनकी इस छटपटाहट को भांपकर रशपाल ने उन्हें “क्रिड” में छह महीने की “फैलोशिप” के सहारे पंजाब की स्थिति का प्रत्यक्ष अध्ययन करने के लिए चंडीगढ़ आने का निमंत्रण दे दिया और निझावन भावावेश में आकर अपनी ऊंची नौकरी से त्यागपत्र देकर पंजाब पहुंच गए। उन्होंने बाबा पंजाब दास नाम धारण करके वानप्रस्थी वेष में पंजाब में भ्रमण भी किया।

मुम्बई जाने से पूर्व पुरुषोत्तम निझावन पंजाब में एक हिन्दी कवि के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। उनकी कुछ रचनाओं को पंजाब विश्वविद्यालय के पाठक्रम में भी सम्मिलित किया गया था। वे सृजनात्मक प्रतिभा के धनी थे। हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं पर उनका समान अधिकार था। पचास के दशक में उन्होंने गालिब की रचनाओं का जो अंग्रेजी अनुवाद किया उसे पढ़कर प्रख्यात सिख बुद्धिजीवी गुरुबचन तालिब ने भाव विभोर होकर कहा था “एक नये इकबाल का जन्म हुआ है।” चंडीगढ़ आने के पूर्व ही अप्रैल, 1982 में निझावन “हिन्दुइज्म रिडिफाइन्ड” नामक एक अंग्रेजी पुस्तक प्रकाशित कर चुके थे, जिसमें उन्होंने सभ्यता की सीधी रेखा यात्रा के पाश्चात्य सिद्धान्त का खंडन करते हुए पुराणों के चक्रीय सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था।

उनकी कल्पनाशील सृजनात्मक प्रतिभा ने पंजाब में आतंकवाद द्वारा निर्मित हिन्दू-सिख कटुता का समाधान खोजते-खोजते भगवद्गीता में प्रस्तुत कृष्णार्जुन संवाद की तर्ज पर गुरु गोबिंद सिंह और बन्दा बैरागी का संवाद “श्री गुरु गोबिन्द गीता” के नाम से फरवरी, 1985 में प्रकाशित कर दिया। इस कृति ने निझावन की साहित्यिक प्रतिष्ठा को आकाश पर पहुंचा दिया। श्री गिरिलाल जैन ने स्वयं उसकी समीक्षा “टाइम्स आफ इंडिया” में तथा कर्तार सिंह दुग्गल ने ट्रिब्यून में की। पंजाब आर्ट कमेटी के अध्यक्ष डा. एम.एस. रंधावा, यूनेस्को के संस्थापक सदस्य एवं महान् शिक्षाविद् डा. प्रेम कृपाल, सरदार खुशवंत सिंह आदि मूर्धन्य लोगों ने भी “श्री गुरु गोबिन्द गीता” की भूरि-भूरि प्रशंसा की। प्रख्यात शिक्षाविद् डा. अमरीक सिंह के साथ निझावन का आधा घंटा लम्बा साक्षात्कार दूरदर्शन ने आयोजित और प्रसारित किया। स्व. स्वामी रंगनाथानंद और प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भी प्रशंसा के पत्र लिखे।

“श्री गुरु गोबिन्द गीता” जहां निझावन की बौद्धिक प्रतिभा को चार चांद लगाने का माध्यम बनी वहीं उन्हें वामपंथी षडंत्र का शिकार बनाने का भी कारण बनी। इस षडंत्र में फंसने के बाद ही निझावन ने पहचाना की चंडीगढ़ में स्थापित “क्रिड” संस्था कम्युनिस्ट-मुस्लिम बौद्धिक गठबंधन का मंच है। इसके सूत्रधार पी.एन. हक्सर हैं और प्रत्यक्ष संचालक रशपाल मल्होत्रा है। इस संस्था पर इन्दिरा गांधी का वरदहस्त है और वह उनके द्वारा स्थापित “रा” नामक उच्चस्तरीय गुप्तचर संस्था की हस्तक मात्र है। इस संस्था के संचालक मंडल में पी.एन. हक्सर, टी.एन.कौल जैसे शीर्ष कूटनीतिज्ञों एवं सैयद नूरुल हसन, प्रो. मुशीरूल हसन, प्रो. ए.एम. खुसरो, एम.एस. अगवानी (पूर्व कुलपति, जे.एन.यू.) डा. मूनिस रजा, हबीब तनवीर, प्रो. रईस अहमद, प्रो. ए.जे. किदवई जैसे मुस्लिम बुद्धिजीवियों के साथ डा. मुल्कराज आनन्द, कर्तार सिंह दुग्गल, बिपिन चन्द्र, जे.एस. ग्रेवाल, ए.के. दामोदर, जी.एस. भल्ला आदि वामपंथी बौद्धिकों का जमावड़ा है। रशपाल मल्होत्रा कोई शैक्षिणिक योग्यता न होते हुए भी अनेक विश्वविद्यालयों, अनेक शोध संस्थानों व अनेक बड़े बैंकों की संचालन समितियों का सदस्य है।

इस टोली ने निझावन की श्रेष्ठ रचना “श्री गुरु गोबिन्द गीता” का अमरीका, कनाड़ा आदि देशों के सिख समुदायों में व्यापक प्रचार करने का प्रलोभन दिखाकर उन पर दबाव डाला कि वह इस रचना को अनेक परिवर्तनों के साथ नये रूप में प्रकाशित करने का सर्वाधिकार अमरीका में स्थित हिमालयन इन्स्टीटूट आफ योग एण्ड स्पिरिचुएलिटी के संस्थापक-अध्यक्ष स्वामी राम को दे दें। स्वामी राम ने उस रचना में जो संशोधन-परिवर्तन सुझाए वे निझावन को सैद्धान्तिक दृष्टि से स्वीकार्य नहीं थे। उनका स्वामी राम के नाम से पत्राचार चल ही रहा था कि स्वामी राम ने “सेलेश्चियल सांग/ गोबिन्द गीत” नाम से एक स्वतंत्र रचना प्रकाशित भी कर दी। इस स्वीकारोक्ति के साथ कि “हमें इस रचना की प्रेरणा निझावन की श्री गुरु गोबिन्द गीता” से मिली है। किन्तु वे यह भूल गये कि गुरु गोबिन्द सिंह और बन्दा बैरागी का संवाद निझावन की कल्पना की उपज थी और इस प्रकार की सृजनात्मक रचनाओं में कल्पना की मौलिकता पर उसके मूल लेखक का ही सर्वाधिकार होता है, उसे चुराया नहीं जा सकता। निझावन ने इसे विश्वासघात के रूप में देखा। वे बहुत अधिक उद्विग्न हो गये और उसी उद्विग्नता के क्षणों में लिखा “आई एम प्लेजराइज्ड़”।

1988 में निझावन ने जयपुर के एक न्यायालय में स्वामी राम और रशपाल मल्होत्रा के विरुद्ध मुकद्मा ठोंक दिया और तब उन्होंने पाया कि वे एक बड़ी संगठित, सशक्त, साधन-सम्पन्न और प्रभावशाली वामपंथी लाबी के विरुद्ध खड़े हो गये हैं। स्वामी राम के तार अमरीका से रूस तक फैले हुए थे। वे आये दिन मास्को के चक्कर लगाते रहते थे। भारत में पी.एन. हक्सर जैसा प्रभावशाली व्यक्तित्व “क्रिड” का सूत्रधार था और “क्रिड” का निदेशक इस मुकद्मे में मुख्य अपराधी था। उसे बचाने के लिए 23 अक्तूबर, 1988 को डा. मुल्कराज आनन्द और कर्तार सिंह दुग्गल की पहल पर गोवा के राज्यपाल (स्व.) डा.गोपाल सिंह, पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश आर.एस. नरूला, दिल्ली उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति प्रीतम सिंह सफीर, गुरुनानक फाउंडेशन दिल्ली के निदेशक डा. मोहिन्दर सिंह, आरसी के संपादक प्रीतम सिंह जैसे दिग्गजों ने निझावन के विरुद्ध एक संयुक्त वक्तव्य न्यायालय में दाखिल कर दिया। ऐसा भी नहीं था कि निझावन बिल्कुल अकेले पड़ गए थे, वस्तुत: उनकी दृढ़ता ने बौद्धिक जगत में ध्रुवीकरण की स्थिति पैदा कर दी थी। प्रसिद्ध दार्शनिक दयाकृष्ण ने न्यायालय में खड़े होकर उनके पक्ष में बयान दिया, साथ ही पंजाब के 23 बुद्धिजीवियों ने उनके समर्थन में सार्वजनिक वक्तव्य जारी किया। उन हस्ताक्षरकर्ताओं में भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति स्व. कृष्णकान्त भी थे। किन्तु यह सब होने पर भी निझावन मुकद्मा हार गए। पूरी तरह अकेले पड़ गये। आर्थिक दृष्टि से भी निराधार हो गए।

इस स्थिति में वे दिल्ली आये। तब से उनका मेरे साथ जो सम्बन्ध बना वह अंत तक बना रहा। उन्होंने “मंथन” के संपादन में मुझे सहयोग दिया। “आर्गेनाइजर” में भी उनके लेख छपते रहे। यद्यपि सब प्रश्नों पर उनसे मतैक्य नहीं हो पाता था। उनकी कुछ सुनिश्चित धारणाएं थी, जिसके दायरे से वे बाहर निकलने को तैयार नहीं थे। अत: उनसे खूब गरमा-गरम बहस होती थी। विचार भिन्नता बनी रहती पर उनके साथ आत्मीय सम्बंध अन्त तक बना रहा। दिल्ली में पहले कोहाट एन्क्लेव और फिर रोहिणी के वरुण अपार्टमेंट्स में कई बार जाना हुआ। उनकी पत्नी बीमार रहती थीं पर निझावन अपनी बौद्धिक लड़ाई में उलझे रहते। उनकी बौद्धिक सक्रियता एक क्षण के लिए भी मंद नहीं पड़ी। उनकी हिन्दुत्वनिष्ठा अडिग थी। मुम्बई पहुंच कर भी उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं। “श्री गुरु गोबिन्द गीता” का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित किया। गालिब की काशी पर शायरी का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया। दिसम्बर, 1999 में उन्होंने “हिन्दुइज्म: फ्यूचर टेन्स आफ ह्रूमेनिज्म” (हिन्दुत्व : मानवता का भविष्य) शीर्षक पुस्तिका लिखी। सन् 2004 में “रीडिस्कवरिंग हिन्दू धर्म एज ए यूनीवर्सल सिविलाइजेशन” (विश्व सभ्यता के रूप में हिन्दू धर्म का पुनरान्वेषण) जैसा अद्भुत ग्रन्थ पिता-पुत्र संवाद के रूप में लिखा। इसकी भूमिका एम.वी. कामथ ने लिखी है। भगवद्गीता की एक नई व्याख्या प्रकाशित की। गुरुनानक देव के योगदान पर एक ग्रन्थ प्रकाशित किया। और अब वे गुरु गोबिन्द सिंह पर एक ग्रन्थ लिख चुके थे। पिछले ही महीने 22 अक्तूबर को उन्होंने मुम्बई से फोन करके इस ग्रन्थ के बारे में लम्बा वार्तालाप किया। इसके पूर्व फरवरी, 2006 में अपनी मुम्बई यात्रा के समय में मैं लोखंडवाला में उनके निवास स्थान पर गया। तब वहां वयोवृद्ध शिक्षाविद् डा. अमरीक सिंह भी ठहरे हुए थे। उनसे संघ आंदोलन पर वार्तालाप हुआ था।

निझावन की सृजनात्मक प्रतिभा, बौद्धिक क्षमता और सैद्धान्तिक दृढ़ता के प्रशंसकों की संख्या बहुत बड़ी थी। न्यायालय में हार के बाद वे नेहरूवादी-वामपंथी बौद्धिकों के विरुद्ध खुला मोर्चा लेना चाहते थे। इसलिए उन्होंने 20 सितम्बर, 1987 को देशवासियों का आह्वान करने के लिए एक खुला पत्र भी लिखा। पर उनके ढंग से उनका मनचाहा समर्थन उन्हें नहीं मिल पाया। इसकी पीड़ा उनके मन में गहरी थी। इस पीड़ा को उन्होंने नवम्बर, 1997 में “सप्रेशन आफ इंटिलेक्चुअल डिसिडेंस एण्ड हाऊ लेफ्ट-नेहरूवियन्स डेस्ट्रोयेड पंजाब (बौद्धिक असहमति का दमन और “वामपंथी-नेहरूवादियों ने पंजाब को कैसे ध्वस्त किया) शीर्षक से 248 पृष्ठों की मोटी पुस्तक में अपनी पूरी संघर्ष गाथा का वर्णन किया है। इसमें उन्होंने इस संघर्ष में मेरे असहयोग और उनसे मत भिन्नता का भी उल्लेख किया है। आज वह पीड़ा पुन: जागृत हो गयी है कि मैं निझावन की मित्रता को पाकर भी उनके संघर्ष में पूरी तरह उनके साथ खड़ा नहीं हो पाया। उनकी आर्थिक कठिनाईयों को दूर करने में भी सहायक नहीं बन पाया। यह मेरी व्यक्तिगत पीड़ा है। पर निझावन की मित्रता मेरी अमूल्य अमिट थाती है। उनकी संघर्षमय सिद्धान्तनिष्ठ बौद्धिक यात्रा नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्तंभ सकती है। अपने ऐसे मित्र के लिए मेरी भावभीनी हार्दिक श्रद्धाञ्जलि। (30 नवम्बर, 2006)

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